जहाँ सबकुछ पैसा ही है – हिंदी कविता

जहाँ सबकुछ पैसा ही है। कितनी सच्ची लगती है ये बात; मौजूदा दौर पैसों का है तभी तो कहा जाता है – न बाप बड़ा न भईया सबसे बड़ा रुपईया। निचे लिखी कविता समाज के असल चेहरे को चरित्रार्थ करती है। पैसे का बढ़ता बोलबाला व्यक्तिगत संबंधों में दरार पैदा करता जा रहा।

 

ज़िंदगी का एक दौर ऐसा भी है ;
जहाँ सबकुछ पैसा ही है !!

न मेरी पूछ न तेरा मान ;
पैसों से ही सबका सम्मान !

कितना बंध गए हम काग़ज़ के टुकड़ों से ;
पास रहकर भी हैं बेखबर अपनों से !

क्या हाल-ए-दिल कैसी ख़ैरियत, किसकी खबर कहाँ ;
ले जा रहा है पैसा हमें न जानें किधर कहाँ !

कहते हैं लोग पैसा सबकुछ नहीं होता ;
गर ये न हो तो कुछ भी नहीं होता;
कौन पूछे किसे बिन पैसों के;
न हो अगर पास तो कोई रहनुमां नहीं होता !

हर ख़ुशी की पहचान है पैसा ;
हर ग़म का निदान है पैसा !

यह पैसा ही है जो हमें चला रहा है ;
वरना कौन किसके पास आ-जा रहा है !

पैसा है तो हर ख्वाब है !
ज़िंदगी में प्रीत-अनुराग है ;
पैसों के बिना है जग सून ;
किसे मिले चैन और सुकून !!

कैसी ज़िंदगी कैसी दांस्तान ;
पैसे बिना न कब्रिस्तान-शमशान !

ज़िंदगी का एक दौर ऐसा भी है ;
जहाँ सबकुछ पैसा ही है !!

 

लेखक:
रवि प्रकाश शर्मा