मॉडर्न पब्लिक स्कूल दुर्व्यवस्था – क्या करें अभिवाभाक, कैसे सुधरेंगे हालात, जानिए कुछ रोचक बातें
(ए) 21 जनवरी 2018, गुरुग्राम स्थित 12वीं के क्षात्र नें अपने ही स्कूल प्रिंसिपल की गोली मारकर हत्या कर दी।
(बी) 18 जनवरी 2018, उत्तर प्रदेश की राजधानी स्थित स्कूल की 7वीं कक्षा में पढ़ने वाली क्षात्रा नें अपने ही स्कूल के बच्चे पर चाकू से वार किया।
(सी) 8 सितंबर 2017, गुरुग्राम स्थित रयान इंटरनेशनल स्कूल के 11वीं के क्षात्र नें अपने ही स्कूल के बच्चे को चाक़ू से मारकर हत्या कर दी।
साल 2017 के अंत के साथ साथ, साल 2018 के आगमन पर पहले ही महीने में स्कूल में हत्या और क़त्ल के मामले सामने आये। आखिर स्कूलों में अपराध क्यों बढ़ रहा है ? क्यों बच्चे अब अपनी मासूमियत भूल चाक़ू और बंदूख से खेल रहे हैं ? मेरे खयाल से यह एक सामाजिक प्रश्न है। यूँ तो स्कूल और कॉलेज से पढ़ते हुए हम भी आये हैं परन्तु हमारे दौर में इतनी भयावह घटनाएं कभी सामने नहीं आयीं। अगर कभी कुछ हुआ भी तो यारों दोस्तों संग थोड़ी कहासुनी या हाथापाई। पर हत्या ?? यह तो कभी जेहन में आता भी नहीं था। सातवीं , आठवीं , ईगराहवीं या बारहवीं के क्षात्र क्या किसी की हत्या भी कर सकते हैं ? अगर ये हत्याएं मासूम बच्चों द्वारा की जा रहीं है तो निश्चित तौर पर देश और समाज में अब कोई सुरक्षित रहने की न सोचे।
पखेरू के इस अध्याय में हम स्कूलों में बढ़ते अपराध, अभिभावक और बच्चों की बदलती मानसिकता का ही जिग्र करेंगे। बच्चे एक बीज के समान होते हैं ऐसे में उनका अपराध की दुनियां में जाना मानव रुपी बागीचे को खून से भर देगा। किसी भी तरह इसे रोकना ही होगा जिसमें अभिभावकों का सम्मलित होना सर्वप्रथम अनिवार्य है। दूसरा बिंदु ये की सरकार अपनी शिक्षा प्रणाली में बदलाव लाये जिससे की बच्चा केवल पढ़े ही नहीं बल्कि एक अच्छा इंसान भी बन सके।
पुराने दौर के स्कूल और उनके चलन पर एक झलक:
ज्यादा पीछे न जाते हुए 1990 के दशक से लगभग 2005 तक की स्थिति को देखें तो उस जामने में छोटे स्कूलों का बोलबाला था। वे छोटे स्कूल बच्चे के उम्र व अवस्था के हिसाब से अलग-अलग रूप में बंटे हुए थे। उदाहरण – सरस्वती शिशु मंदिर, सरस्वती विद्या मंदिर, गंगा बाल विद्यालय, विद्या निकेतन, गर्ल्स स्कूल, बॉयज स्कूल और इंटरमीडिएट कॉलेज इत्यादि।
शिशु मंदिर – नर्सरी से लेकर कक्षा पांच तक होते थे।
विद्या मंदिर – कक्षा पांचवीं से लेकर कक्षा आठवीं तक होते थे।
गंगा बाल – कक्षा पांचवीं से लेकर कक्षा आठवीं।
विद्या निकेतन – कक्षा नौवीं से लेकर बारहवीं तक।
सभी इंटरमीडिएट कॉलेज – कक्षा नौवीं से लेकर बारहवीं तक।
गर्ल्स स्कूल्ज – केवल बालिकाओं के लिए।
बॉयज स्कूल – केवल बालकों के लिए।
इन छोटे स्कूलों और इनका छोटे छोटे टुकड़ों में बटा होना बच्चों के पठन-पाठन के लिहाज से अनुकूल था। क्योंकि जो स्कूल ही नर्सरी से लेकर पाँचवीं तक है या पाँचवीं से लेकर आठवीं तक है तो उसमें पढ़ने वाले सभी बच्चे उसी उम्र व अवस्था के होते थे। विद्यालय का सम्पूर्ण प्रांगण उन्हीं बच्चों का था, वहाँ लघुशंका व दीर्घशंका हेतु बनाये गए शौचालय भी केवल उन्हीं बच्चों के इस्तमाल हेतु थे।उम्र व कक्षा निर्धारित होने की वजह से बच्चों की संख्या भी उतनी ही हुआ करती थी जिससे की उनपर अध्यापक या अन्य कर्मी नजर रख सकें। छोटे बच्चों के पढ़ने से वहां का वातावरण भी उदंड बच्चों का नहीं था।
सबसे जरूरी बात यह की ये सभी छोटे स्कूल हमारे आस पास ही स्थित होते थे। घर का कोई भी व्यक्ति पिता, माँ, भाई, बहन आसानी से ज्यादा समय खर्च किये बिना बच्चे को स्कूल छोड़कर आ जाते थे या फिर रिक्शे के माध्यम से बच्चे ज्यादा वक़्त गवांये बिना सरलता से स्कूल चले जाते थे। आस पास के मोहल्ले में स्थित होने की वजह से ज्यादातर अध्यापक अभिभावकों के जान पहचान के ही होते थे जो अमूमन तौर पर घर भी मिलने आ जाते थे या फिर शहर में किसी चौक चौराहे पर उनसे मुलाक़ात हो ही जाती थी। इस पुरानी स्कूली व्यवस्था को देखें तो यह खुद में कितनी सामाजिक लगती है जहाँ न केवल बच्चा अच्छे से पढ़ लेता था बल्कि अभिभावक उसपर हरपल नजर भी रख लेता था। उम्र के हिसाब से विद्यालयों का होना बच्चों को पूर्णरूप से सुरक्षा भी प्रदान करता है। पर यह दुःखद है की इतनी खूबसूरत स्कूली व्यवस्था को ईसाई मशीनरी द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों नें ध्वस्त कर दिया जिसका जिम्मेदार केवल अभिभावक है।
नए दौर का नया स्कूली चलन:
गुजरते समय के साथ अंग्रेजी स्कूलों का चलन बढ़ता गया। भव्य इमारतें, किसी मॉडल से दिखने वाली अध्यापिकाएं व अध्यापक, केवल अंग्रेजी बोलने की पाबंदी, कोट पैंट व टाई जैसा वस्त्र, चमचमाती स्कूल बसें इत्यादि नें अभिभावकों का मन मोह लिया। सरल व सीधे से दिखने वाले स्कूलों से अभिभावक मुँह मोड़ता गया और फिर एक भीड़ सी उमड़ पड़ी इंग्लिश स्कूल में अपने बच्चे को पढ़ाने की।
इन अंग्रेजी स्कूलों में एक ही बिल्डिंग होती है और उसी में हर उम्र के बच्चे शिक्षा लेते हैं। ये सभी अगंरेजी स्कूल चूँकि बहुत बड़े क्षेत्रफल में फैले होते हैं अतः ये हमारे मोहल्ले व शहर के दायरे से बहुत दूरी पर स्थित होते हैं। पहले जो बच्चा 15 से 30 मिनट में स्कूल पहुँच जाता था, अब बच्चे को समय से 2 घंटे पूर्व जागना पड़ता है और करीब 1 घंटे से अधिक समय तक स्कूल बस में गुजारना पड़ता है विद्यालय जाने के लिए। देखा जाय तो अभिभावकों नें अपने ही बच्चे पर एक अतिरिक्त भार डाल दिया। नर्सरी, कक्षा एक, कक्षा पाँच में पढ़ने वाले बच्चे की उम्र ही क्या पर माँ बाप को इसकी परवाह कहाँ है वे सुबह 6 बजे ही प्यारे बच्चे को आवाजें देकर, उनको कच्ची नींद से जागकर अंग्रेजी स्कूल की बस में ठूस देते हैं जहाँ जाकर वो बच्चा वही ABCD और गिनती पढ़कर आता है जिसको उनका नजदीकी स्कूल कभी पढ़ाता था।
कौन हैं ये Ryan, Goenka, St.Thomas, St.Lucas, Mary Wana, Don Bosco, Anthoni, Peter, Julia इत्यादि ? किन इतिहासों में इनके नाम दर्ज हैं, क्या योगदान है समाज में इनका; किसी को कुछ अता पता नहीं, बस पढ़ाना है तो इन्हीं स्कूलों में। कितनी महान विभूतियाँ निकलीं हैं इन स्कूलों से ? कितने महान वैज्ञानिक निकले हैं इन स्कूलों से ? कितने समाजसेवी निकले हैं इन स्कूलों से ? किसी अभिभावक के पास इसका माकूल जवाब नहीं। केवल अंग्रेजी पढ़ाने की इतनी हाय तौबा क्यों ! English तो केवल एक भाषा है जिसको आप घर में बोलकर बच्चे को उसका अच्छा वक्ता बना सकते हैं। असल विषय की शिक्षा कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है क्योंकि उनमें निपुण होने के बाद ही बच्चा Doctor या Engineer इत्यादि बनता है।
हक़ीक़त तो यह है की इन English Medium के विद्यालयों में बच्चे का नैतिक विकास नहीं होता, सदाचार आचरण व शिष्टाचार की भावना नहीं आती। भौतिकवाद को जन्म देने वाले यही स्कूल हैं जिनका आधार केवल पैसों पर टिका है न की सामाजिक व्यवस्था पर।
अभिभावक से अभिभावक की बढ़ती प्रतिस्पर्धा किन्तु बच्चे नजरअंदाज:
एक ने पूछा आप कौन से स्कूल में अपने बच्चे को पढ़ाते हैं दूसरे नें कहा St. William में। अब जो बच्चा अच्छे से किसी Montessori Junior High School में पढ़ रहा था उसके अभिभावक यह योजना बनाने में लग जाते हैं की कैसे मैं इसको अगले वर्ष St. William में दाखिल करा दूँ। किसी नें पूछा आपके बच्चे के कितने मार्क्स आये दूसरे ने जवाब दिया 98% पर Montessori Junior High School में पढ़ने वाला बच्चा 65% ही ला पाया। माँ बाप इस प्रतिशत के जाल में फंस जाते हैं और एक अच्छे स्कूल पर सवाल खड़ाकर मारते हैं की जरूर ये मेरे बच्चे को अच्छे से शिक्षित नहीं कर रहा है, मैं तो यहाँ से बच्चे का नाम कटवा दूंगा।
यह भी एक सच्चाई है की English Schools के मालिक काफी रसूखदार होते हैं जैसे बड़े बिजनेसमैन, बड़े राजनेता। इन्हीं रसूखदारों नें मिलकर CBSE और ICSE Board को Higher Marking and Higher Percentages की योजना पर काम किया ताकि लोगों का ध्यान English Medium Schools की तरफ आकर्षित किया जा सके। देश के राज्य बोर्डों में इतने नंबर और प्रतिशत का चलन नहीं था वहां 60% नंबर लाने का अर्थ था कि बच्चे नें दिल से पढ़ाई की है। परन्तु अभिभावक प्रतिस्पर्धा का शिकार हो गया और अपने नन्हें बच्चे को धकेल दिया नंबर के खेल में। जरा सोचिये भला कोई 98% या 99% तक सही होता है क्या ? असल में यह केवल एक मायाजाल है जिसके माध्यम देश में फैले Education माफिया अपना कारोबार बढ़ा रहे हैं और देश में हमारे चुने हुए नेता उनका बखूबी साथ दे रहे हैं क्योंकि इन स्कूलों की कमाई का मोटा हिस्सा उनको भी जाता है। यह बात केवल स्कूल तक आके ख़त्म नहीं होती अपितु इसी Higher Percentages और Number Marking की तर्ज पर महंगे Professional Colleges का भी निमार्ण करवाया गया जिससे की 10 लाख, 15 लाख और 20 लाख जैसी मोटी फीस लेकर बच्चों का Admission किया जाय। जब आपको बच्चों में बढ़ते आपराधिक भावना या उनके द्वारा होने वाली क़त्ल व हत्याओं की घटना के खिलाफ High Court या Supreme Court में ही जाना है तो आप अपनी गाढ़ी कमाई क्यों इनको दे रहे हैं। क्या पढ़ा रहे हैं ये की एक बच्चा अल्प आयु में ही अपने हाथ में चाकू और बंदूख उठा लेता है किसी को मारने के लिए।
शिक्षा और ज्ञान दोनों में अंतर समझें:
मूलतः शिक्षा का अर्थ भौतिक पढ़ाई से लिया जाता है जिसको पढ़कर बच्चा उसके अनुसार पैसे कमा सकता है। पर जब हम ज्ञान जैसे शब्द को सुनते हैं तो यह अपने अंदर बहुत बड़े भाव को समाहित किये हुए जान पड़ता है। असल में ज्ञान बोध का विषय है – आत्म बोध, समाज बोध, नैतिक अनैतिक बोध, सत्य असत्य बोध, प्रेम भावना बोध, पाप पुण्य बोध, कर्म दुष्कर्म बोध, स्त्री मर्यादा बोध, धर्म अधर्म बोध, माता पिता बोध, गुरु शिष्य बोध, मनुष्य जीवन व उद्देश्य बोध जैसी बातें रेखांकित की जातीं हैं ज्ञान के माध्यम से। ज्ञान और बोध की बातें सुन लोग इसे साधु संतों का विषय मान लेते हैं पर यह सच नहीं है। शिक्षित व्यक्ति के पास यदि बोध का आभाव है तो वह अपनी शिक्षा का उचित इस्तेमाल नहीं कर पायेगा। बच्चा पढ़ने में अच्छा है पर वह बोधी नहीं है तो वह दुष्कर्म के मार्ग पर जायेगा। नंबर और प्रतिशत के खेल में अभिभावकों नें ज्ञान व बोध को भुला दिया है यही वजह है कि बच्चे हो सकतें हों पढ़ने में बहुत अच्छे हों पर उनका बौद्धिक दृष्टिकोण कैसा है यह कोई नहीं जानता । यही बोध का आभाव प्रद्युम्न जैसी घटना को अंजाम देता है क्योंकि अगर बच्चा बोधी होता तो उसे ज्ञात होता की चाक़ू के वार से किसी का खून बहेगा और वह मृत्यु को प्राप्त होगा।
बोध हर बच्चे अथवा इंसान में एक छुपा हुआ गुण होता है जरूरत है उस छुपे हुए गुण को बच्चे के सामने लाने की। गुरुकुल, आचार्यकुलम, विद्यालय, स्कूल और फिर पब्लिक स्कूल तक आते आते ज्ञान और बोध की बातें मीलों पीछे छूट गयीं; रह गयी है तो बस शिक्षा अर्थात केवल पाठ्यक्रम और उनका विषय। अभिभावकों को चाहिए की वे जरा भारतवर्ष के अतीत को खंगालें। जब हम अतीत में झांकर देखेंगे तो ऐसे कई उदहारण मिलेंगे जहाँ एक डाकू ज्ञान व बोध प्राप्ति के बाद वेद-पुराण का रचईता बन गया। यह बोध ही था जिसने सम्राट अशोक को खून और क़त्ल की दुनियां से आज़ाद किया। यह बोध ही था की अंगुलिमाल डाकू सत्कर्म के रास्ते पर आ गया। असल में बोध हमारी आत्मा की शुद्धि करता है ताकि हम कुमार्ग पर न जाएं और समाज के हर प्राणी के हितों की रक्षा करें।
माता पिता अपने बच्चे के अंदर छुपे बोध को उसके समक्ष उजागर करें और उसे समझाएं की उसको कैसा व्यवहार करना चाहिए। Physics, Math, Chemistry, English, Biology जैसे तमाम विषय हमारे रोजगार प्राप्ति के लिए अनिवार्य हैं पर ज्ञान-बोध हमारे व्यव्हार को कुशल बनाता है। बच्चे को केवल मॉडर्न पब्लिक स्कूलों में धकेल देने से कुछ नहीं होगा अभिभावक का यह कर्तव्य है की बच्चे में बोध भाव को उत्पन्न करें। यह दुर्भाग्य है की ईसाई मशीनरी द्वारा चलाये जा रहे Public School ज्ञान व बोध से दूरी बनाये हुए हैं शायद कहीं उनको भी बोध से डर लगता है।
क्या करें अभिभावक:
- आडंबर व दिखावे वाले मॉडर्न पब्लिक स्कूलों से दूरी बनाएं।
- इंग्लिश माध्यम में बच्चे को पढ़ाना बुरी बात नहीं पर पड़ोसियों के साथ अनायास की प्रतिस्पर्धा न पालें।
- सिर्फ Ryan, DPS, Thomas, Goenka इत्यादि स्कूल ही आपके बच्चे को शिक्षित कर सकते हैं यह न सोचें।
- बच्चे को अपने घर से अत्यधिक दूर स्थित स्कूल में पढ़ने न भेजें।
- नंबर और प्रतिशत का दबाव अपने बच्चे पर न डालें।
- बच्चे की पढ़ाई के अलावा उसके व्यक्तिगत रुझानों पर ध्यान दें।
- हर वक़्त उसको पढ़ने के लिए ही न कहें, कुछ पल उसके साथ हंसी मजाक और खेल में बिताएं।
- बच्चे द्वारा की जाने वाली स्कूली शिकायतों या फिर अपने सहपाठियों की शिकायतों को सीरियस लें।
- अगर बच्चा किसी अन्य बच्चे, बड़े व्यक्ति या शिक्षक व सहपाठी के साथ जाने से इंकार करता है तो उसपर दबाव न बनाएं।
- अगर बच्चा किसी व्यक्ति से डरता है तो उससे उसके डर का कारण पूछें।
- स्कूल जाने में बच्चा आनाकानी या भय महसूस करता है तो उसका कारण पूछें।
- स्कूल वैन या बस में जाने वाला बच्चा, बस चालक अथवा कंडक्टर की शिकायत करता है तो पूरा माजरा बच्चे से समझें।
- बच्चे को यह रोज शिक्षा दें की उसे स्कूल में किसी अन्य क्षात्र के साथ एकांत में जाने की जरूरत नहीं।
- बच्चे को प्रेरित करें की कोई उसे एकांत स्थान या अज्ञात जगह पर जाने व आने को कहता है तो बच्चा आपको पहले बताये।
- किताबी पाठ्यक्रम के अलावा बच्चे में अन्य पुस्तकों को पढ़ने की जिज्ञासा उत्पन्न करें।
- बच्चों की Magazine, Comic Books, Child Stories जैसी किताबें भी बच्चों को लेकर दें ताकि उनका मानसिक विकास और समझ बढे।
- अगर बच्चा – खेल, ड्राइंग, पेंटिंग, डांसिंग, सिंगिंग, एक्टिंग जैसी रूचि रखता है तो पढ़ाई के साथ उसको यह भी जारी रखने दें।
- Physics, Math, Chemistry, Biology, Art, Commerce जैसे किसी विशेष विषय में रूचि रखता है तो उसे उसी ओर प्रेरित करें।
- बच्चा जब भी कोई गलत कार्य करे तो उसे टोकें जरूर।
- टीवी पर आने वाले – Horror Shows, Crime Serials या Big Boss टाइप के धारावाहिकों से बच्चे को दूर ही रखें और आप भी उनके साथ न देखें।
- बच्चे की पसंद नापसंद की कदर करें और उसकी जिज्ञासा को न दबाएं।
- बच्चे को देश की महान विभूतियों और उनके किये कार्यों को बताएं।
- हर वक़्त बच्चे को डराना व डाँटना व्यर्थ है, क्योंकि बच्चे इसे आपकी आदत समझ लेते हैं और फिर आपकी बातों को नजरअंदाज करने लगते हैं।
- बच्चा जब बड़ा होता चलता है तो उससे उसकी क्षमता के अनुरूप चंद छोटे काम करने को बोलें।
- थोड़े बड़े बच्चों को Money Saving और फिजूल खर्ची क्या है इसको समझाएं।
- बच्चे की तुलना किसी अन्य बच्चे के साथ न करें, सबकी अपनी क्षमता होती है।
साधारण अभिभावक महंगे और बड़े मॉडर्न पब्लिक स्कूलों से बचें:
जैसा की मैंने पहले ही कहा अत्यंत महंगे स्कूल में किसी मध्य परिवार से आने वाले बच्चे को नहीं पढ़ना चाहिए। ऐसा मैं इसलिए कह रहा हूँ की एक तो वो महंगे स्कूल बड़ा रसूख रखने वाले इंसान का होता है और दूजा वहां अधिकांश पढ़ने वाले बच्चे भी बड़े धन्ना सेठों के ही होते हैं। धनाढ्य परिवारों से आने वाले ये बच्चे असल में लाठ साहब की तरह विद्यालय के प्रांगण में घूमते हैं और किसी भी सामान्य से दिखने वाले इंसान पर अपना रुबाब झाड़ते नजर आते हैं। इन स्कूलों का माहौल ऐसा होता है कि वहां पढ़ाने वाला अध्यापक व अध्यापिका भी इन बच्चों के दबाव में ही रहते हैं। स्कूल का प्रशासन भी इन ढीठ बच्चों के कू-कृत्य की अनदेखी करता रहता है क्योंकि वे उनको मोटा पैसा देते हैं। मैं ये नहीं कहता की सभी बच्चे ख़राब होते हैं पर प्रायः ऐसा देखने को मिलता है की वहां पढ़ने वाले बच्चे अपने माता पिता के ऊँचे पद पर होने की धौंस देते नजर आते हैं। मजाल है कोई टीचर इनको डाँट दे या मजाल है की स्कूल का कोई अन्य व्यक्ति इनको सही से व्यवहार करने की सलाह दे। इन बच्चों की जेब पैसे से भरी होती है, महंगे मोबाइल फ़ोन होते हैं, महँगी गाड़ियों में बैठ इनका आना व जाना होता है ऐसे में इनके मुँह पर एक ही बात होती है “तुम जानते हो मैं कौन हूँ” “चलो देख लेता हूँ तुमको बाहर”। साधारण आमदनी प्राप्त करने वाले अभिभावकों को इस प्रकार के स्कूल से दूरी बनानी चाहिए न की अपनी इच्छाओं का दमनकर अपने बेटे या बेटी को इस प्रकार के विद्यालय में भेजना चाहिए। अगर कोई साधारण परिवार से आने वाला बच्चा इन स्कूलों में पढता है तो वह काफी मानसिक दबाव महसूस करेगा या फिर इनकी तरह बनने का प्रयास करेगा।
स्कूलों में बढ़ते क्राइम की वजह:
नए दौर के स्कूल और पुराने दौर के स्कूल में जो फर्क था वो हमने आपको ऊपर सबसे पहले बतला दिया। पहले के स्कूल बच्चे की उम्र के हिसाब से छोटे छोटे टुकड़ों में बंटे थे जिससे की उनके साथ बड़े बच्चों का सम्मलित होना असंभव था। छोटे बच्चे नन्हें पुष्प के समान होते हैं जिन्हें इंसानी व्यवहार की ज्यादा समझ नहीं होती। कोई भी बड़ा बच्चा या व्यक्ति उन प्यारे बच्चों का शोषण कर सकता है। आज पब्लिक स्कूलों का दौर है जहाँ हर उम्र व अवस्था के बच्चे एक साथ ही अध्यन करते हैं ऐसे में छोटे बच्चे व बालिकाएं काफी असहज महसूस करते हैं।
हालिया घटी सभी स्कूली घटनाओं पर ध्यान दें तो एक समान बात सामने आती – बड़े बच्चे द्वारा छोटे बच्चे का शोषण। रेयान स्कूल में प्रद्युम्न जैसे प्यारे बच्चे को उसी स्कूल में 11वीं के क्षात्र ने मारा। क्या कसूर था प्रद्युम्न का ? वो बेवजह शिकार बना। लखनऊ के स्कूल की भी घटना कुछ ऐसी ही है, वहाँ भी कक्षा 7वीं की क्षात्रा नें अपने ही स्कूल के छोटे बच्चे पर चाक़ू से हमला किया। केवल यह दो घटनाएं ही सामने आ पायीं परन्तु जाने कितनी ऐसी घटना होती होगी या होती है जिससे हम अभी तक अनजान हैं।
मॉडर्न पब्लिक स्कूलों नें अपने खर्चे को कम करने के लिए हर उम्र के बच्चों को एक साथ एक ही परिसर में पढ़ाने का जिम्मा तो ले लिया परन्तु सुरक्षा न के बराबर है। खून और क़त्ल की घटना तो उजागर भी हो जाती है पर वो घटनाएं जिसमें एक छोटी बच्ची या छोटा बच्चा किसी अन्य बड़े बच्चे के कू-कृत्य का शिकार हो जाता है यह पता भी नहीं चल पाता। नन्हें बच्चों का शारीरिक शोषण तक हो जाता है और बात सामने नहीं आ पाती।
इस व्यवस्था को बदलना बहुत जरूरी है। नर्सरी से पाँचवीं , पाँचवीं से आठवीं और आठवीं से 12वीं कक्षाएं चलायी जानी चाहिए। स्कूल का डिज़ाइन और उसका प्रांगण बंटा हुआ होना चाहिए जिससे की छोटे बच्चों के समूह में बड़े बच्चे न जा सकें और बड़े बच्चों के समूह में छोटे बच्चे न जा सकें। स्कूल वाहन भी छोटे बच्चों का अलग हो और बड़े बच्चों का अलग हो। स्कूल एक ही रहे कोई समस्या नहीं, पर व्यवस्था टुकड़ों में बांटनी ही पड़ेगी। आठवीं क्लास तक के बच्चे सबकुछ समझने लगते हैं और बारहवीं तक के तो वयस्कों जैसा व्यव्हार करने लगते हैं अतः ये आवश्यक है की छोटे बच्चे इन वयस्क से दिखने वाले बच्चों के झुण्ड से अलग रह सकें।
सरकार क्या करे:
वैसे तो इन मॉडर्न पब्लिक स्कूलों का बोल-बाला सरकार की मिलीभगत से ही हो रहा है पर फिर भी सरकार कुछ नए कायदे स्कूलों को लेकर लागू करे। बाहरी देशों जैसे अमेरिका इत्यादि में Home Schooling की भी व्यवस्था है। इस व्यवस्था में बच्चा अपने घर पर रहकर ही शिक्षा ले सकता है फिर उसे शिक्षित उसके माता पिता करें या कोई टूशन मास्टर आकर पढ़ाये। ये होम स्कूलिंग वहां की सरकार द्वारा मान्य है अर्थात स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे और घर पर रहकर पढ़ने वाले बच्चे एक समान ही माने जाते हैं।
मुझे लगता है हमारे देश में अब यह Home Schooling की व्यवस्था को लागू करने का सही समय आ गया है। असल बात ये है की स्कूल जाने वाला हर बच्चा पढ़ाई में रूचि नहीं रखता। ऐसे बहुत बच्चे हैं जो लाख अच्छे स्कूल में पढ़ने के बाद भी शिक्षित नहीं हो पाते, स्कूली परीक्षाओं में उनका बार बार फेल होना, टीचर्स के साथ अभद्र व्यवहार करना, अन्य पढ़ने वाले बच्चों को बाधा पहुँचाना, ऊट पटांग की हरकतें करना, अश्लील कार्य करना, मारपीट लड़ाई झगड़ा छेड़खानी इत्यादि ही इन बच्चों का उद्देश्य होता है। इनके माता पिता भी इनकी स्थिति को जानते हैं पर वे फिर भी उनको स्कूल में दाखिल करा देते हैं यह सोचकर की शायद ये वहाँ सुधर जाए। कुछ माँ बाप ऐसे भी हैं जो अपने उपद्रवी बच्चे से निजात पाने के लिए उन्हें स्कूल में डाल देते हैं यह जानते हुए की ये पढ़ेगा लिखेगा नहीं। अगर हमारे देश में Home Schooling लागू हो तो पढ़ाई में बिलकुल भी रूचि न रखने वाले, उदण्ड व्यवहारी, झगड़ालू मानसिकता, चक्कू छूरी भांजने वाले बच्चों से स्कूल भी मुक्त हो जायेगा। फिर उनको पढ़ाने की जिम्मेदारी उनके माता पिता की होगी जो अपने निवास स्थान पर ही कर सकेंगे।
स्कूलों की रेटिंग:
सरकार बच्चे में पनपते जुर्म, स्कूलों की बढ़ती लापरवाही पर लगाम लगाने का प्रयास करे। हालाँकि School Rating यह केवल मेरा एक विचार है हो सकता है आप सहमत न हों पर मुझे ये खयाल अच्छा लगा जिसे मैं आपसे शेयर करना चाहूंगा।
School Rating की व्यवस्था, इस व्यवस्था के अंतर्गत सरकार एक सिस्टम बनाये जिसमें स्कूलों को रेटिंग प्रणाली के अंतर्गत रखा जाय। यह प्रणाली 1 से 10 रेटिंग की हो सकती है या 1 से 100 रेटिंग तक हो सकती है। लगातार 5 वर्ष तक ख़राब रेटिंग हासिल करने वाले स्कूल की मान्यता रद्द हो। किस स्कूल की क्या रेटिंग है यह शिक्षा बोर्ड अपनी वेबसाइट पर दिखाए। रेटिंग की व्यवस्था नर्सरी से लेकर 12वीं तक के स्कूलों पर लागू होनी चाहिए।
देश में दिन प्रतिदिन स्कूल तो बढ़ते जा रहे हैं पर उनमें बहुत की तो हालत ख़राब है। किसी भी तरह की कोई सरकारी जांच पड़ताल तक नहीं है, कई स्कूल में बच्चा पानी की टंकी में गिरकर मर जाता है, कई स्कूल में वहां हो रहे कंस्ट्रक्शन कार्य की चपेट में आकर मर जाता है। जिसके पास पैसा है वो आसानी से स्कूल खोलने का लाइसेंस ले लेता है, जिसके पास पैसा है वो आसानी से किसी बड़े नामी स्कूल की प्रेंचाईजी ले लेता है। यही दुर्व्यवस्थायें स्कूल का माहौल ख़राब कर रहीं हैं और सरकार व प्रशासन चैन की नींद सो रहे हैं। स्कूलों की अपनी मनमानी भी बढ़ती जा रही है, सोने के भाव जैसे इनकी फीस जिसपर कोई लगाम नहीं है और पढ़ाई व सुरक्षा के नाम पर सबकी बत्ती गुल है। School Rating प्रणाली ऐसे घटिया स्कूलों को कसने में कारगर होगी।
कौन करेगा रेटिंग – School को Rating प्रदान करने वाले वहां पढ़ने वाले बच्चे के माता पिता होंगे। माता पिता के द्वारा दी गयी रेटिंग शिक्षा बोर्ड अपने डेटाबेस में सुरक्षित रखेगा और उस रेटिंग को अपनी वेबसाइट पर दिखायेगा। इस प्रक्रिया से फायदा यह होगा की माँ बाप शिक्षा बोर्ड की वेबसाइट पर जाकर किसी स्कूल की रेटिंग को देख सकेंगे और उसके आधार पर वे फैसला लेंगे की वहां अपने बेटे या बेटी को पढ़ाना है या नहीं। इस रेटिंग प्रणाली से स्कूल मालिक और वहां के व्यवस्थापकों पर एक दबाव भी रहेगा; की कहीं रेटिंग ख़राब रही तो उनकी मान्यता रद्द हो जाएगी। स्कूल पर हमेशा अच्छी शिक्षा, साफ़ सुथरे टॉयलेट, स्वच्छ क्रीड़ा स्थल व प्रांगण, बच्चों के क्लास रूम, उत्तम स्कूल बसें, टीचर्स का माता पिता से व्यव्हार, टीचर्स का बच्चे से व्यव्हार, CCTV कैमरे, सुरक्षा गार्ड और अच्छे माहौल का दबाव बना रहेगा। इससे स्कूलों की लापरवाही से घटने वाली घटनाओं में कमी आएगी और खून खराबे जैसा वातावरण भी नहीं बनेगा जिससे की स्कूल की छवि और उनकी रेटिंग ख़राब हो।
क्या करें अभिभावक:
एक स्कूल में कई बच्चे पढ़ते हैं, अभिभावक एक दूसरे को बेशक न जाने पर उनके बच्चे एक ही स्कूल में पढ़कर घुल मिल जाते हैं। यहीं से स्कूल की दोस्ती जन्म लेती है। यदि स्कूल में किसी बच्चे के साथ कुछ गलत घटित होता है तो वहां पढ़ने जाने वाले बच्चों के सभी अभिभावक मिलकर स्कूल पर दबाव बनाएं अगर स्कूल कोई प्रतिक्रिया नहीं देता तो फिर नजदीकी पुलिस स्टेशन या मीडिया का सहारा लें। जिस प्रकार बच्चे एकजुट होकर साथ स्कूल में पढ़ते हैं उसी प्रकार सभी अभिभावकों को भी एकजुट होकर स्कूल में घटने वाली घटना को उजागर करना चाहिए। अभिभावक अपना बच्चा या उनका बच्चा जैसी भावना मन में न आने दें। स्कूल के अपराध और दुर्व्यवस्था के लिए एकजुट होकर प्रदर्शन करें ताकि सभी के बच्चे सुरक्षित रह सकें।
मैं पब्लिक स्कूलों के खिलाफ नहीं पर जिस प्रकार उनका प्रभाव बढ़ता जा रहा है वो ठीक नहीं। इन स्कूलों के दबाव में हो चुका है आज का अभिभावक, इनकी हर मनमानी को मानने को राजी है, अपनी गाढ़ी कमाई को इन पब्लिक स्कूलों पर नौछावर कर आखिर अंत में मिलता क्या है एक काग़ज़ का सर्टिफिकेट। खैर विषय ये नहीं है कि क्या मिलता है विषय ये है की हमें इन स्कूलों का ग़ुलाम बनने से बचना चाहिए। स्कूलों की पहचान वहां दी जाने वाली शिक्षा से हुआ करती थी परन्तु इन मॉडर्न पब्लिक स्कूलों नें व्यापार बना दिया। आगे जब भी आप अपने बच्चे के लिए किसी बड़े हाई फाई स्कूल के बारे में सोचें तो मेरी लिखी बातों पर जरूर गौर फरमाइयेगा।
लेखक:
रवि प्रकाश शर्मा