ग़ज़ल – क्यों गुज़र जाता है हर ख़ुशनुमां लम्हां

हम आधुनिकता के दौर में कितने भी आगे क्यों न चले जाएं अतीत हमेशा ही हमें अपनी ओर खींचने का प्रयास करता है। असल में अतीत वह अंकुर होता है जहाँ हम पनपते हैं और एक वृक्ष के समान बड़े हो जाते हैं, अतीत का वह अंकुर हमारी जड़ें हैं जो अगर ना होती तो यक़ीनन हम भी न होते। भविष्य सिर्फ एक कल्पना है और अतीत हमारी वास्तविकता; तभी तो कुछ पुराने लम्हें हमें सदा याद रहते हैं। नीचे लिखी ग़ज़ल उन्हीं अतीत के लम्हों पर आधारित है जिसमें एक भाव है, प्रेम है और दुःख भी।

क्यों गुज़र जाता है हर ख़ुशनुमां लम्हां
क्यों आती है दिलग़ीर बार बार ज़िंदगी में।

न थी सोग़वारी ऐसे पहले कभी
न ये आँखें मग़्मूम रहा करती थीं
रह रह कर उठते हैं यादों के ग़ुबार दिल से
क्यों न होती अब वही बरसात ज़िंदगी में।

जानें क्यों बेरंग हैं अब ये फ़ज़ाएँ इतनी
क्यों हर तरफ मनहूसियत सी छाई रहती है
ज़र्द बनकर गिर रहे हैं हर शाख से पत्ते
क्यों न आती फिर से बहार ज़िंदगी में।

क्यों गुज़र जाता है हर ख़ुशनुमां लम्हां
क्यों आती है दिलग़ीर बार बार ज़िंदगी में।

लेखक:
रवि प्रकाश शर्मा