“अटल बिहारी वाजपेयी” एक नाम कई पहचान
“अटल बिहारी वाजपेयी” एक नाम कई पहचान।
Atal Bihari Vajpayee Ek Naam Kayi Pahchaan
अमूमन तौर पर एक व्यक्ति की केवल एक ही पहचान होती है परन्तु इस धरा पर कई ऐसे व्यक्ति या फिर यूँ कहें महान विभूतियों नें जन्म लिया है जिनको कई रूप में जाना व पहचाना जाना जाता है। ऐसी ही महान विभूति का नाम है ‘अटल बिहारी वाजपेयी’ जो शरीर से तो एक किन्तु चरित्र अथवा आत्मां से कई भावों को समाहित किये हुए थे जो निम्न प्रकार की हैं – नेता , लेखक , कवी , पत्रकार और समाजसेवी।
हिन्दुस्तान एक ऐसा देश है जो न सिर्फ अपनी सभ्यताओं व परंपराओं में भिन्नताएं रखता है बल्कि नाना प्रकार की विषमताओं को अपने आप में समेटे समय की गति के साथ बहता चला जा रहा है। इसी गति में एक क्षेत्र राजनीति का भी है जहाँ अनेकों सम्मान्नीय नेतागण आये गए जिसमें अटल जी को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है। अटल बिहारी, न तो पक्ष थे न विपक्ष थे वह तो सिर्फ अटल बिहारी थे जिनका सम्मान सभी दल के नेता किया करते थे और ऐसा अदभुत सम्मान मैंने स्वयं अपने अभी तक के जीवनकाल में किसी अन्य राजनेता का नहीं देखा।
जहाँ एक ओर राजनीति विषय है – छल का , कपट का , नफरत का , ईर्ष्या का , अनैतिक का , असैद्धांतिक होने का , लूट और आरोप प्रत्यारोप का वहीं राजनीति की इस पारंपरिक अवधारणा के ठीक विपरीत कोई था तो वह नाम है अटल बिहारी वाजपेयी। ज्यों-ज्यों हमारे बीच सैद्धांतिक नेताओं का पतन होता जा रहा है त्यों-त्यों हमारा समाज हिंसा , अपराध , कुंठा व अहम् की अग्नि में गिरता जा रहा है। ये कहना गलत नहीं होगा की इस अग्नि की लौ अब और अत्यधिक विकराल हो चली है और एक दिन ऐसा आएगा की समस्त भारतीय समाज ‘आहुति’ की भाँति इस विकराल होती अग्नि में मुँह के बल गिर पड़ेगा जहाँ जलना भी हमें ही हैं।
एक कटु सत्य तो यह भी है की अनैतिक राजनीति को इतना अनुकूल माहौल देने में देशवासी भी पूर्ण रूप से उतने ही भागिदार हैं जितने कुछ आपराधिक प्रवृत्ति के नेता। कहीं न कहीं अपना निजी हित साधने के चक्कर में हमने अपने घरों में दूषित व्यक्तियों को पनाह दे डाली है। यह देश हमारा घर है इसे स्वच्छ रखने की जिम्मेदारी हमारी अपनी है परन्तु यह बोध हम्मे होता तो क्या आज़ादी के 71 वर्षों के गुजर जाने पर भी हम जातिवाद अथवा ऊंच-नींच की पराकाष्ठा से ऊपर न उठ जाते।
श्रद्धांजलि स्वरुप,
मैं अटल जी की ही एक बेहतरीन कविता आपके समक्ष रखना चाहूंगा जिसे मैंने अपने स्कूल के समय जाना और समझा।
अपने ही मन से कुछ बोलें
क्या खोया, क्या पाया जग में,
मिलते और बिछड़ते मग में,
मुझे किसी से नहीं शिकायत,
यद्यपि छला गया पग-पग में,
एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें।पृथिवी लाखों वर्ष पुरानी,
जीवन एक अनन्त कहानी
पर तन की अपनी सीमाएं
यद्यपि सौ शरदों की वाणी,
इतना काफी है अंतिम दस्तक पर खुद दरवाजा खोलें।जन्म-मरण का अविरत फेरा,
जीवन बंजारों का डेरा,
आज यहां, कल कहां कूच है,
कौन जानता, किधर सवेरा,
अंधियारा आकाश असीमित, प्राणों के पंखों को तौलें।
अपने ही मन से कुछ बोलें!
लेखक:
रवि प्रकाश शर्मा