बागीचा – हिंदी कहानी

हमेशा की तरह रामकली आज भी तड़के सबेरे 4 बजे उठ गयी।
बड़ी बहु को सोता देख बुदबुदाते स्वर में कहती है
– सुबह के चार बज गये, अभी तक सो रही है। कहां सास-ससुर को चाय बनाकर देती पर वो भी मुझे ही करना पड़ रहा है। बड़े भाग से मिली है ऐसी बहु, सास चूल्हा फूके और वो खाट पर सोये।

मिट्टी के चूल्हे में गोबर के कंडे पर कुछ केरोसिन तेल डालते हुए रामकली खुद से कहती है –
मैं भी तो ब्याह कर आई इस घर में पर मजाल है सास-ससुर को कभी शिकायत का मौका दिया हो।
माचिस की लौ से चूल्हे में आग जल पड़ी, पास रखि सूखी लकड़ियों के टुकड़े रामकली चूल्हे में झौंक रही थी ताकि आंच तेज़ हो।
अभी रामकली जस्ते के पतीले कि पेंदी पर मिट्टी का लेप लगा ही रही थी कि, बहु पास आकर बोल पड़ी- माँ जी लाइये मैं कर देती हूँ, रामकली ने कोई उत्तर देना उचित न समझा और पतीला चूल्हे पर बैठाकर वहां से चली गयी।

बहु ‘चंद्रिका’ स्वाभाव की बुरी न थी, हां मगर उसमें सास रामकली जैसी फुर्ती का बेहद आभाव था।
पतीले में पानी, चाय पत्ती और गूर डालकर चंद्रिका ने सुबह कि पहली चाय बनाने का कार्य आरंभ किया। उधर रामकली अपने पति रामचंद्र के पास जा बैठी…और धीमे स्वर में बोली – अब तक तो मैं बागीचे में चली जाती….!

क्या हुआ पति रामचंद्र ने पूछा – कुछ नहीं, तुम्हारी बहु महारानी है !
रामचंद्र ये भलि-भांति जानते थे की उनकी पत्नी आज इतने गुस्से में क्यों है। उन्होंने समझाते हुए कहा – बहु ‘चंद्रिका’ स्वभाव से तो अच्छी है, बस थोड़ा काम ही धीरे-धीरे करती है। अब तू सुबह 4 बजे बागीचे में जाकर क्या करेगी ? थोड़ा आसमान और साफ़ हो जाय तो जा।

तुम भी उसी का पक्ष लो – रामकली ने नाराज़ स्वर में कहा ! मैं ही स्वभाव कि बुरी हूँ…बाकि सब अच्छे हैं।
इतने में बहु चंद्रिका अपने एक हाथ में पीतल का लोटा और दूसरे हाथ में पीतल का गिलास लिए खड़ी थी। रामकली को लोटे में चाय पीने की आदत जो थी वो भी बिना दूध वाली। बहु सास-ससुर को चाय देकर चली गयी।

ससुर रामचंद्र फिर बोले – देख तो रामकली चंद्रिका ने कितनी अच्छी चाय बनायी है।
सास रामकली अपने पति रामचंद्र की इस बात पर मुस्काते हुए चाय पीने लगी।
अब हल्का नीला रंग आसमान में बिखरे काले अँधेरे को चीरता हुआ आगे बढ़ रहा था। रामकली को बागीचे में जाने कि उत्सुकता थी अतः उसने रामचंद्र से कहा – अच्छा सुनो, द्वार पे गईया और बछिया की नाद लगा देना ! मैं जरा बागीचे को देख आती हूँ; कल मैंने उसमे अमरुद, बादाम, लीची और एक नारियल का पौधा भी लगाया था। कहीं कोई जानवर घुसकर खा तो नहीं गया !!

रामकली की बात सुनकर रामचंद्र हंसने लगे…हा…हा..!
रामकली ने चिढ़ते अंदाज़ से पूछा हंस क्यों रहे हो ?
तू सच में बुढ़िया हो गयी है रामकली, सारे पेड़ तो ठीक हैं पर ये बता नारियल का पेड़ क्यों लगाया तूने ? अरे वो तो, जब तक बड़ा होगा तब तक तू और मैं इस दुनियां को छोड़ चुके होंगे। रामचंद्र चिढ़ाते हुए बोले – बता कैसे खायेगी नारियल ?

हुंह।।। बड़े आये मुझे बूढ़ा कहने वाले, मैं तो अपने पेड़ का नारियल खा के ही मरूंगी देख लेना।
यह बात बोलकर रामकली अपने बागीचे की ओर प्रस्थान करती है।

5 बीघे के क्षेत्रफल में फैला बागीचा पूर्वजों की निशानी तो था ही मगर उसे पेड़ पौधों से सुसज्जित करने वाली रामकली ही थी।
अपने ससुर की मौत के उपरांत स्वयं रामकली मुखिया बन उस बागीचे की सेवा करती रही। कभी दुल्हन के रूप में आयी रामकली की उम्र आज 52 वर्ष की हो चली थी; जवानी से बुढ़ापे तक रामकली ने बागीचे को किसी बच्चे की तरह प्यार दिया। बागीचे की सुरक्षा हेतु उसके क्षेत्रफल को कंटीले तारों से घेरा गया था, इसके किनारों के चारो तरफ करौंदे के पौधे समेत – शीशम, सफेदा, बाँस इत्यादि के वृक्ष लगे हुए थे। बागीचे की यह घेराबंदी स्वयं रामकली ने ही कराई थी।

शिक्षा से अनपढ़ रामकली वृक्षारोपण और उनके प्रकार को अच्छी तरह जानती थी। छोटे पौधों में पानी देने के लिए बागीचे में ही उसने एक कुआँ खोदवाया था। रामकली की बढ़ती उम्र के साथ-साथ रोपित वृक्ष भी जवान बेटों की तरह खड़े दिखाई दे रहे थे।
मौसम के अनुरूप – आम , अमरुद , संतरा , मौसमी , लीची , सहतूत , ईमली , बेर , करौंदा , आँवला , बेल , केला व पपीता जैसे फल बागीचे को सुशोभित करते जिन्हें देख रामकली फूली न समाती। रामकली यह चाहती कि उसके बागीचे में हर प्रकार के फल उगे; अपनी इसी इच्छा की पूर्ति के लिए उसने नारियल के एक पौधे को रोपित किया था।

52 वर्षीया रामकली अपने 3 जवान शादीशुदा पुत्रों की माता भी है; जिसमें पहले पुत्र विजय की पत्नी चंद्रिका ही रामकली के साथ अधिकतर रहती है। अन्य दो पुत्रों सुशील और संतोष की पत्नियों का ससुराल से मायके आना जाना प्रायः लगा रहता है। रामकली चंद्रिका से बेशक नाखुश रहती है मगर उसका ससुराल में सदैव रहना रामकली को मानसिक सुकून देता है। कड़वे बोल के साथ चंद मीठे अल्फ़ाज़ भी रामकली और वधु चंद्रिका के बीच होते रहते।

ये ले चंद्रिका तेरे लिए कुछ लीचियां लायी हूँ…रामकली ने चंद्रिका को देते हुए कहा।
एक दम मीठे हैं, अपने बाग़ के फल हैं; इनका स्वाद बाजार के फलों में न मिलेगा!! खूब खाया कर कुछ फुर्ती आयेगी तेरे बदन में।
रामकली की बातें सुन चंद्रिका ने मुस्कान पूर्वक मीठे लीची के दानों को ग्रहण किया और अपने काम में लग गयी।

रामकली के दो बेटे सुशील और संतोष शहर में काम करते थे अतः दोनों ने अपनी पत्नियों को अपने साथ शहर ही बुला लिया। खास त्यौहारों पे दोनों का आना जाना रहा पर वह भी समय के साथ कुछ धीमा हो गया। इधर गांव में रामकली के साथ उसका बड़ा बेटा विजय , बहु चंद्रिका और पति रामचंद्र ही थे। दो बहुओं के गांव कम आने जाने से रामकली दुःखी होती थी पर करे तो क्या !

समय अपनी गति से प्रवाहित हो रहा था, उसी बीच एक दिन रामकली को यह पता लगता है की उसकी बड़ी बहु चंद्रिका पेट से है। बहु के गर्भवती होने से रामकली बेहद उत्साहित थी, वह अब चंद्रिका का बहुत खयाल रखने लगी।
बागीचे के ताज़े फल लाकर बहु को देते हुए कहती – देख चंद्रिका तू तो बड़ी सुस्त है अब क्या मेरे नाती-नातिन को भी सुस्त बनाएगी !!
रोज ये फल खाया कर औऱ खाना भी अच्छे से खाया कर।

रामकली की दिनचार्य में घर और बागीचे के अतिरिक्त एक और कार्य जुड़ गया और वह था – ऊन के स्वेटर बनाना।
स्वेटर बुनते रामकली कहती है – देख चंद्रिका नाती होगा तो उसका नाम ‘श्याम’ रखूंगी और नातिन होगी तो ‘तुलसी’ रखूंगी।

एक दिन चंद्रिका ने रामकली से सवाल करते हुए पूछा – माँ जी बच्चा तो मुझे जुलाई में होने की उम्मीद है फिर आप स्वेटर क्यों बना रही हो ?
अरे पगली मैं दादी हूँ उसकी, बच्चा जुलाई में हुआ तो क्या !! ठण्ड तो बच्चे के लिए सितंबर से शुरू हो जायेगी; तू रहने दे, मैं जो कर रही हूँ ठीक है।
रामकली का यह प्रेम देख चंद्रिका खुद को धन्य समझती थी कि उसे ऐसी सास मिली।

दिन बीतते देर नहीं लगती, आखिर चंद्रिका की गर्भावस्था का काल चक्र पूरा हुआ और उसने एक सुन्दर हष्ट-पुष्ट बेटी को जन्म दिया।
शहर से अन्य दो बहुओं और बेटों का भी आना हुआ। रामकली का घर कितने वर्षों बाद खिला-खिला लग रहा था। परिवार के सभी सदस्य बेटी तुलसी के जन्म से खासे उत्साहित थे।

तुलसी को जन्म लिए 6 माह ही गुजरे थे कि रामकली उसे अपने साथ बागीचे ले जाने लगी। अपने द्वारा लगाये पेड़ पौधों और फूलों के पत्तों को तुलसी के हाथ से स्पर्श कराती; ऐसा कर वह उसे ये अहसास दिलाती कि ये सब तेरा है। बगीचे में विचरण करती रामकली उस स्थान पर पहुंची जहां उसने नारियल का पौधा लगाया था। पहले के मुकाबले वह नारियल का पौधा अब काफी मजबूत हो गया था मगर अभी वो बेहद छोटा था। अन्य पेड़ों की अपेक्षा रामकली का ध्यान नारियल के पेड़ पर ज्यादा रहता था क्योंकि उसके बागीचे में एक भी पेड़ नारियल का नहीं था…शायद रामकली उसे जल्दी बड़ा होते देखना चाह रही थी।

52 वर्षीया रामकली बढ़ती उम्र के साथ अब 55 वर्ष की हो चली थी। इस उम्र में भी उसका बागीचे के प्रति लगाव कम न हुआ, हां मगर वृद्धावस्था का असर अब उसपर साफ़ दिखाई दे रहा था ! उसकी हड्डियों में अब पहले जैसी जान न थी।

रामकली बागीचा हिंदी कहानी

महीना आषाढ़, शाम के वक़्त रामकली अपने बागीचे में रोज की तरह पेड़ पौधों के रख रखाव की व्यवस्था देख रही थी। कुछ पल के लिए वह बांस के पेड़ नीचे बैठी हुई थी तभी उसके पैर पर डंक के साथ तेज़ जलन का अहसास हुआ। इससे पहली कि वो स्वयं कुछ समझ पाती वो बेसुध होकर ज़मीन पर लेट गयी। कुछ देर उसी अवस्था में पड़े रहने के उपरांत किसी राहगुजर ने उसे ज़मीन पर गिरे देखा तो उसके घर आकर सूचना दी।
घर में चंद्रिका अकेली थी, उसे कुछ न सूझ रहा था कि वो क्या करे। किसी तरह उसने पास की महिलाओं से संपर्क कर चंद मर्दों के साथ बागीचे की ओर रुख किया और रामकली को घर पर लाया गया। बेटा विजय गांव से बाहर था, पर इतने में रामचंद्र घर आ पहुंचे; रामकली के पैर पर लगे डंक के निशान देखकर वो समझ गए कि यह साँप का काटा है।

झाड़-फूंक वाले को एक बार बुलाकर देख लेते हैं – ये बात वहां खड़े एक बुजुर्ग ने कही।
जरा पैर तो देखो कितना नीला पड़ गया है, लगता है विष पूरा पैर में फ़ैल गया है।
किसी ने नाड़ी को छूकर देखा तो कहा – जान तो चल रही है मगर अवस्था मूर्छित है। हां भाई अवस्था मूर्छित है मगर जान सुरक्षित है; जल्दी को बैद्य-हकीम को बुलाओ ताकि जान को बचाया जा सके नहीं तो जहर पूरा शरीर में फ़ैल जायेगा।
लोगों कि होती गुफ्तगू के बीच रामचंद्र पीछे से अपने एक साथी डॉक्टर मित्र और एक विष झाड़ने वाले व्यक्ति को ला रहे थे।

एक तरफ झाड़-फूंक हो रही थी और दूसरी तरफ डॉक्टरी इलाज।
कुछ देर के उपरांत झाड़-फूंक वाले ने कहा – मैंने तो अपना काम कर दिया है बाबूजी, विष अब शरीर में आगे नहीं बढ़ेगा। बाकि डॉक्टर साहब देख लें की होश कब तक आ जायेगा।
डॉक्टर साहब बोले – रामचंद्र जी, शुकर है कि ये केवल बेहोशी की अवस्था में हैं; वरना इतनी देर में तो जान ही चली जाती। एक काम कीजिये मेरे नजदीकी अस्पताल लेकर चलिए। इन्हें लगातार देख-रेख की आवश्यकता है, होश कब आयेगा मैं कह नहीं सकता मगर मैं अपनी पूरी कोशिश करूँगा।

घर में अकेली बहु चंद्रिका, अपनी सास की यह स्थिति देख बेहद दुःखी थी। शहर में रहने वाले दो बेटे-बहु आये तो जरूर पर वे कुछ दिनों में पुनः अपने काम को लौट गये। रामचंद्र, चंद्रिका और बेटी तुलसी ही घर में थे !! बागीचे की देखभाल खुद रामचंद्र करने लगे और रामकली की देखभाल की जिम्मेदारी बहु चंद्रिका को सौंप दिये।

एक दिन अचानक रामकली को पूरे 2 महीने के बाद होश आया…डॉक्टर ने कहा कि वो कोमा में चली गयी थी।
खबर मिलते ही रामचंद्र अपनी पत्नी की स्थिति देखने अस्पताल पहुंचे पर वे और दुःखी हो बैठे।
रामकली होश में तो थी मगर वह पूरी तरह मानसिक विच्छिप्ति का शिकार हो चुकी थी। उसके सम्मुख खेलती नन्ही बेटी तुलसी अपनी दादी को पकड़ रही थी किन्तु रामकली अपनी नातिन को पहचान पाने में असमर्थ थी।

रामचंद्र जी, आप कृपया इन्हें अपने साथ ले जायें – डॉक्टर ने कहा !
मैं कुछ दवाईयां लिख दे रहा हूँ !! पर इनकी मानसिक अवस्था में आने की अब कोई गारंटी नहीं है। परिवार में रहकर क्या पता इन्हें कुछ याद आये।
रामचंद्र अपनी पत्नी की स्थिति देख भाउक हो गये, बस बहु चंद्रिका के सामने अपने आंसू को रोक बैठे।

दिन से महीने और महीने से साल गुजरे मगर रामकली की मानसिक दशा ठीक होने की बजाय और अधिक बिगड़ती गयी। न उन्हें भूख का ज्ञान, न उन्हें थकान, न उन्हें अपनी शरीर का होश और न ही नित्कर्म का बोध। बहु चंद्रिका उन्हें नित्कर्म कराती, नहलाती, खाना खिलाती और दवाईयां देती !! रामकली दिन-रात, द्वार से आंगन और आंगन से द्वार भ्रमण करती रहती…बिना रुके , बिना थके !!

रामचंद्र कभी-कभी उन्हें किसी तरह खींचकर बागीचे में ले जाते; उनके लगाए पेड़ पौधों को दिखाते कि शायद इन्हें कुछ याद आये पर उनकी हर कोशिश बेकार गयी। रामकली को बाहर ले जाना अब ठीक न रहा…खुली जगह पर वो इधर-उधर भागने लगी।
तांत्रिक बाबाओं कभी यकीन न करने वाले रामचंद्र ने उनके यहाँ भी पत्नी रामकली को दिखाया…शहर के बड़े अस्पतालों में दिखाया किन्तु हर जगह मायूसी ही हाथ लगी। शायद होनी को यही मंजूर था…हमेशा बागीचे में रहने वाली रामकली अब सदा के लिए एक कमरे में कैद होकर रह गयी।

बहु, तुम चाहो तो अपने मायके घूम आओ – रामचंद्र ने चंद्रिका से कहा !
बेटी तुलसी के जन्म के बाद तुम घर जाने वाली थी पर सब कुछ हमारी सोच के विरूद्ध हो गया। पूरे डेढ़ साल हो गये तुम भी शायद मुझे कोसती होगी।
बेटी जाओ कुछ दिन घूम आओ अपने माता-पिता के यहां से। मैं और विजय तो हैं यहां सब संभाल लेंगे।

पिताजी, मैं नहीं जाती तो मेरे पिता भाई तो यहाँ आ ही जाते हैं – चंद्रिका ने उत्तर देते हुए कहा।
सबको पता है कि यहां के क्या हालात हैं; फिर आप और ये, माँ जी को कैसे संभालेंगे वो कोई मर्द थोड़ी हैं, उनके साथ तो हरपल एक औरत चाहिए ही। आप मेरी चिंता न करें मैं तो अपने घर में ही हूँ। बहु के इस जवाब से रामचंद्र काफी प्रभावित हुए !!

1 वर्ष के उपरांत, शहर में रह रही मझली बहु को भी एक पुत्र की प्राप्ति हुई मगर उसकी ख़ुशी रामचंद्र को न थी।
पत्नी रामकली शायद अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर आ चुकी थी…मानसिक विच्छिप्ति से उनका शरीर नष्ट हो चुका था और एक दिन वही हुआ। नारियल के पौधे को बड़ा देखने की चाहत रामकली की अधूरी रह गयी और उनका शरीर चिता की आग पर पंचतत्व में विलीन हो गया !! चिता के पास खड़े रामचंद्र भीगी पलकें लिए यह सोच रहे थे कि, उस दिन मैंने ऐसा क्यों कहा की जब तक नारियल का पेड़ बड़ा होगा तब तक तू ये दुनियां छोड़ चुकी होगी।

रामकली को गुजरे 15 साल हो गये, इस बीच घर की स्थिति काफी बदल गयी। अब रामचंद्र 79 वर्ष के कमजोर वृद्ध हैं, तीनों बेटों ने घर को अपने अनुसार बाँट लिया है। बड़ी बहु चंद्रिका समेत सभी के दो-दो बच्चे हैं जो अब समझदार हो गये हैं। चंद्रिका अपने ससुर रामचंद्र का पूरा ख़याल रखती है क्योंकि रामचंद्र का दुःख केवल वही जानती है।

बाबा उठो, खाना खा लो – यह आवाज़ तुलसी की है ! दिन के भोजन के लिए रामचंद्र को जगा रही है।
ये क्या लिए घूम रही है ? रामचंद्र ने उठते हुए पूछा !!
बाबा ये बेर हैं….बागीचे गयी थी ढेर सारे लेकर आयी।
तुलसी अब 16 वर्ष की सुन्दर कन्या है, आगे कहती है – जानते हो बाबा वो जो नारियल का पेड़ है ना उसमें पूरे 12 गुच्छे निकले हैं नारियल के।
मेरा तो बड़ा मन कर रहा था तोड़ने को पर वो है बहुत ऊँचा…अब भला मैं कैसे तोड़ती उसे।

नातिन की बातें सुनकर रामचंद्र ने कहा – हां बेटी अब वह बहुत बड़ा हो गया होगा।
उसमें जो नारियल निकले हैं वो तेरी दादी की मेहनत के फल हैं। बड़ा शौक था उसे नारियल का पेड़ देखने की, आज ज़िन्दा होती तो कितनी खुश होती।

बागीचे के किनारों पर लगे सफेदे के पेड़ (युकलिप्टस) को मझले और छोटे बेटे ने काटने का प्रस्ताव रामचंद्र के सामने रखा।
पिता जी, हम चाहते हैं की पेड़ों को काटकर बेच दिया जाय ! पैसे भी अच्छे मिल जायेंगे और कुछ घर के सामान भी उनकी लकड़ी से बन जायेंगे। वैसे भी अब बागीचे में पहले जितने फल तो होते नहीं ! अमरुद के सारे पेड़ सूख गये हैं, आम के कुछ ही पेड़ काम के हैं, केले के सारे पेड़ जल गये हैं और अब जो बचा है वो सब जंगली फलों के पेड़ हैं। न कहीं संतरा निकलता है, न मौसमी, बादाम और लीची भी अब सूख गये हैं।

रामचंद्र ने गुस्से से कहा – हां सब सूख गए हैं, एक दिन तुम सब भी पेड़ों की भांति सूख जाओगे।
जितनी बातें तुम कह रहे हो असल में वो सब तुम्हारी नाकारी और असफलता का नतीज़ा है। घर तो तुम लोगों ने पहले ही बाँट लिया अब बागीचे के पीछे पड़े हो। क्या कमाया तुम लोगों ने शहर में; अरे अगर कुछ खरीदने की क्षमता नहीं तो जो है उसे बेच क्यों रहे हो।
बागीचे की देखभाल करने वाली आज से 15 साल पहले मर चुकी…वो होती तो उसमें एक पेड़ न सूखता !!…समझे !

रामचंद्र की ये बात उनके दो बेटों सुशील और संतोष को नागवार गुजरी और दोनों ने अपनी मनमानी करते हुए अगले दिन पूरे 5 सफेदे के पेड़ को काट गिराया। बड़ा बेटा विजय इच्छा न रखते हुए भी इसमें शामिल हुआ।
रामचंद्र की अवस्था इतनी न थी कि वो जवान बेटों से जोर जबरदस्ती करते अतः वे भी चुप रहे !
घर की बड़ी बहु चंद्रिका जो अपनी सास रामकली के ज्यादा करीब रही, उसे भी बागीचे के पेड़ों का काटा जाना रास न आया।

चंद्रिका ने विजय से पूछते हुए कहा – आपने अपने भाईओं को रोका क्यों नहीं ? आप भी उनके साथ शामिल हो गये क्यों ?
विजय कहता है – चंद्रिका मैं शामिल न होता तो क्या करता ! तू बता क्या मैं अकेला इन दोनों से लड़ लूंगा।
मैं न शामिल रहूं तो ये मुझे भी कुछ न देंगे और सारे पेड़ काट देंगे, कौन रोक पायेगा इन्हें ?
बाबूजी तो अब बूढ़े हो गये भला मैं अकेला क्या कर सकता हूँ।
मैं जानता हूँ कि उसमें सारे पेड़ माँ ने लगाये थे; पर अब वक़्त बदल गया है !! आज घर बंटा है कल बागीचा बंटना भी तय है।

रामचंद्र की बढ़ती अवस्था ने उन्हें लाचार बना दिया था; वो बेटों के आगे विवश थे। समय का पहिया कुछ और आगे चला और अपने अंतिम गंतव्य स्थान से कुछ ही दूरी पर था। एक रात छोटा बेटा सुशील पिता रामचंद्र से बागीचे के बंटवारे और बिक्री को लेकर लड़ पड़ा।
उसने अपने पिता को रामचंद्र नाम से संबोधित करते हुए कहा –
बागीचे में मुझे अपना हिस्सा बेचना है मैं यहाँ गांव में नहीं रहना चाहता। मैं अपना हिस्सा बेचकर शहर लौट जाना चाहता हूँ।
रामचंद्र जी अब आप बूढ़े हो चले बेहतर होगा आप मेरा बँटवारा कर दें; मैं आपके साथ नहीं रह सकता।

सुशील को जवाब देते हुए रामचंद्र ने कहा – मुझसे आज्ञा ऐसे मांग रहे हो जैसे तुम मेरी बात मानोगे।
ठीक है, कल तीनों साथ आ जाओ अपना-अपना हिस्सा लेलो। चाहो तो मुझे भी बाँट लो…नाराज़गी जताते हुए बोले !!

अगले दिन बागीचे को बेटों ने अपनी इच्छा स्वरूप तीन हिस्सों में बाँट लिया।
सिर्फ बड़े बेटे विजय को छोड़, अन्य दोनों बेटों ने अपने हिस्से में आने वाले पेड़ को काटना शुरू कर दिया।
कभी हरा भरा रहने वाला बागीचा जहाँ मीठे फल लगा करते थे, उसके पेड़ कटकर ज़मीन पर गिरते जा रहे थे।

नारियल का पेड़ जिसे माँ रामकली ने बड़े अरमानों से रोपा था, आज उसे छोटे बेटे ने कई टुकड़ों में काट गिराया।
कटे नारियल के पेड़ से नीचे गिरा उसका फल…तुलसी ने उठा लिया और बाबा रामचंद्र को देते हुए बोली – बाबा ये लो दादी के पेड़ का नारियल पानी।
पीलो बाबा, रामचंद्र हाथ में नारियल फल लिए यादों में खो गये !!!

“सारे पेड़ तो ठीक हैं पर ये बता नारियल का पेड़ क्यों लगाया तूने ? अरे वो तो, जब तक बड़ा होगा तब तक तू और मैं इस दुनियां को छोड़ चुके होंगे। रामचंद्र चिढ़ाते हुए बोले – बता कैसे खायेगी नारियल ?”

ये माजरा याद कर वो रोने लगे !! तू मुझे क्यों छोड़ गयी रामकली…देख तेरे बेटों ने क्या किया ?? देख !!
फ़फ़क-कर रोते रामचंद्र को देख बहु चंद्रिका ने सांत्वना देते हुए कहा – पिता जी, कम से कम आप इस पानी को पी लीजिये ताकि माँ जी की मेहनत सफल हो।

बेटे सुशील ने पेड़ की लकड़ी को बेच दिया और अपने हिस्से में आने वाले बागीचे की ज़मीन को गांव के ही एक ज़मीदार को बेच दिया।
मझले बेटे संतोष ने भी अपनी जमीन और पेड़ की लकड़ी उसी ज़मींदार को बेच दी।

बड़ा बेटा विजय, अपने हिस्से को नहीं बेचना चाहता था और उसमें लगे पेड़ भी उसने नहीं काटे।
रामचंद्र जीवन के आखरी सफर में थे; विजय ने उनकी देखभाल में कोई कसर न छोड़ी पर होनी को कौन टाल सकता है।
एक दिन भोर में रामचंद्र की आंखें नहीं खुलीं !! तुलसी के बाबा अब अपनी पत्नी रामकली के पास जा चुके थे।

चंद्रिका ने अपने हिस्से के बागीचे को फिर से सजाने का ज़िम्मा उठाया।
रामकली की भाँति वह भी बागीचे से प्रेम कर बैठी…जिसमें उसने एक नारियल का भी पौधा लगाया।
चंद्रिका ने अपने छोटे बेटे का नाम रामकली की पसंद पर ‘श्याम’ रखा था।
आज एक छोटा बागीचा पुनः जन्म ले रहा था।

शायद रामकली ऊपर से यह सब देख रही थी उसे अपनी बहु चंद्रिका पर गर्व महसूस हो रहा होगा जिसे वो अक्सर आलसी समझती थी।

लेखक:
रवि प्रकाश शर्मा