कॉर्पोरेट सर्कस और रिंग मास्टर का खेल

एक बार, एक हाथी का बच्चा शहर से सटे जंगल में विचरण कर रहा था। बच्चा बेहद छोटा था अतः वह अपनी मस्त नटखट चाल से इधर-उधर टहल रहा था। कुछ दूर ऐसे ही घूमते फिरते वह अचानक एक गड्ढे में जाकर गिर जाता है। हाथी का बच्चा अकेला था, वहां उसके आस-पास अन्य बड़े हाथियों कोई झुंड नहीं था। वह जिस गड्ढे में गिरा था वह नीचे से बेहद संकीर्ण था, अतः हाथी का बच्चा लाख कोशिशों के बावजूद उस गड्ढे से निकलने में नाकामयाब रहा। एक सुन्दर भोले-भाले हाथी के बच्चे को गड्ढे में गिरे करीब 7 दिन बीत गये। भूख प्यास के कारण वह अपने हाथ पैर हिलाने में भी असक्षम था।

करीब 7 दिनों के बाद, एक बड़ी गाड़ी उस गड्ढे के करीब आकर खड़ी होती है जिसमें 5 लोग सवार थे। भूखे प्यासे हाथी के बच्चे को वे निकालते हैं; बाहर निकलते ही बच्चा खड़ा हो जाता है जिसे वे पांच लोग धकेलते हुए गाड़ी पर चढ़ा देते हैं। लाचार हाथी का बच्चा देख रहा होता है कि वे सभी 5 गाड़ी सवार फिर एक वैसा ही गड्ढा खोद रहे होते हैं और खोदने के उपरांत उस पर घास, खर-पतवार डालकर ढक देते हैं। जानवर का बच्चा जो ठहरा भला वो इंसानी चाल क्या समझे।

गाड़ी पर लदा छोटा हाथी का बच्चा शहर स्थित एक सर्कस कैंप में लाया जाता है। सर्कस के अन्य कर्मचारी उस भूखे हाथी के बच्चे के पैर में मोटे लोहे की ज़ंजीर बांध देते हैं। कुछ देर में वे लोग उसे खाने के लिए घास, हरी पत्तेदार पेड़ों की टहनियां इत्यादि देते हैं। 7 दिनों से ज्यादा भूखा हाथी का बच्चा झपट कर खाने लगता है, फिर कुछ देर में उसे पानी भी पिलाया जाता है। जैसे ही बच्चा खा-पीकर पुनः तरोताज़ा होता है वह अपने पैरों में पड़ी लोहे की ज़ंजीर को तोड़ने का प्रयास करने लगता है। बच्चा पुनः जंगल में लौट जाने को व्याकुल है, वह अपने हाथियों के परिवार में वापस लौटना चाहता है! किन्तु वह लोहे की ज़ंज़ीर जो उसके पैर में बंधी है टूटने का नाम नहीं लेती। हाथी का बच्चा पूरे जी जान से अपने पैर को खींचता व झटकता है ताकी लोहे की ज़ंज़ीर किसी तरह टूट जाय; मगर उसकी सारी कोशिशें बेकार जातीं हैं और लोहे की ज़ंज़ीर नहीं टूटती।

एक दिन सर्कस का रिंग मास्टर हाथी के बच्चे के पास आता है और उसकी पीठ पर चाबुक से ताबड़तोड़ कई प्रहार करता है। बच्चे के पैर में बंधी ज़ंज़ीर उसे असहाय बना देती है और वह रिंग मास्टर की मार सहने को विवश हो उठता है। वह नन्हा हाथी का बच्चा जो जंगल में स्वतंत्र रूप से कभी विचरण करता था उसे आज एक साधारण मानव अपना ग़ुलाम बना चुका है। रिंग मास्टर प्रतिदिन उसपर चाबुक से अनगिनत वार करता जिससे की हाथी उसके कहे अनुसार करतब करना सीखे।

रिंग मास्टर रोजाना उसे मारकर करतब करना सिखाता है और बच्चा चाबुक की मार से बचने के लिए रिंग मास्टर के आदेशानुसार करतब करने लगता है। महीने बीत चुके थे, अब हाथी के बच्चे को पैर में बंधी ज़ंज़ीर की आदत हो चली थी। बच्चा यह जान चुका था कि मैं कितनी भी ताक़त क्यों न लगा दूँ मेरे पैर की ज़ंज़ीर नहीं टूटने वाली अतः अब वो कभी उसे तोड़ने का प्रयास नहीं करता। चाबुक कि मार और पैर में बंधी लोहे की ज़ंज़ीर हाथी के बच्चे को करतब करने को बाध्य कर चुकी थी। रिंग मास्टर भी काफी उत्साहित था, कुछ दिन और ट्रेनिंग के उपरांत वह समय आ गया था कि हाथी के बच्चे को सर्कस में शामिल किया जाय और लोगों के सामने लाकर उसके करतब को दिखाया जाय।

अगले कुछ दिनों में सर्कस का कार्यक्रम शुरू होता है। हाथी के बच्चे के पैर में बंधी लोहे की ज़ंज़ीर को रिंग मास्टर खोलकर उसकी जगह एक पतले नायलॉन की रस्सी बांध देता है। सर्कस का पंडाल लोगों से भरा हुआ है, रिंग मास्टर जैसे ही उस हाथी के बच्चे को लोगों के सामने लाता है लोग जोरदार तालियां बजाने लगते हैं। रिंग मास्टर अपने हाथ में एक छड़ी लिए हाथी के बच्चे को इशारा करता है और बच्चा अपनी सूंढ़ उठाकर लोगों को प्रणाम करता है।

फिर शुरू होता है हाथी का खेल अर्थात सर्कस – हाथी का बच्चा कभी साईकल चलाता है, कभी कुर्सी पर बैठ जाता है, कभी फुटबॉल खेलता है तो कभी डांस करता है। सर्कस पंडाल में उपस्थित तमाम दर्शक हाथी के करतब देख तालियां बजाते हैं, मुस्कुराते हैं और आनंद लेते हैं ! किन्तु यह कोई नहीं जानता कि उस मासूम हाथी के बच्चे ने कितनी यातनायें झेलीं हैं। सर्कस के इस खेल को हाथी का बच्चा अपना संपूर्ण जीवन मान लेता है; वह यह स्वीकार लेता है कि अब वो कभी जंगल नहीं लौट सकता।

बच्चे के पैरों में बंधी लोहे की ज़ंज़ीर अब सदा के लिए हट चुकी है, उसकी जगह केवल नायलॉन की रस्सी है। कभी छोटा बच्चा दिखने वाला हाथी सर्कस में पूरे10 साल बिताकर बड़ा विशालकाय हाथी बन चुका है ! जिसके पैर में अब भी केवल नायलॉन की रस्सी है।

क्या आप कुछ सोच रहे हैं ?
शायद आप यही सोच रहे होंगे की आखिर एक नायलॉन की रस्सी बड़े हाथी को कैसे बांधे रख सकती है ? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि वह उस नायलॉन की रस्सी को तोड़कर सर्कस से भाग निकले !! एक ताक़तवर हाथी जो पेड़ उखाड़ देता है, बड़ी-बड़ी गाड़ियों को पलट देता है उसके लिए नायलॉन की रस्सी कितनी मजबूत हो सकती है ? ऐसी नायलॉन की रस्सी तो वो पलभर में तोड़ दे, फिर भला वो क्यों नहीं तोड़ पाता !!

अब भी आप नहीं समझे ऐसा क्यों ?
असल में उस हाथी के बच्चे को यह आभास ही नहीं है कि उसके पैर में लोहे की ज़ंज़ीर नहीं बल्कि नायलॉन की रस्सी है। सालों पहले उसने लोहे की ज़ंज़ीर को तोड़ने के अनगिनत प्रयास किये जिसमें वो हमेशा असफल रहा। ज़ंज़ीर को तोड़ने के लिए अपने द्वारा किये गए कई असफल प्रयासों से वह हार मान चुका था। बेशक आज वह छोटा हाथी का बच्चा नहीं, वो एक बड़ा ताक़तवर हाथी हो गया है किन्तु उसके पैर में बंधी नायलॉन की रस्सी उसे आज भी लोहे की ज़ंज़ीर की भांति लगती है! जिसे तोड़ने का प्रयास वह कई साल पहले करना छोड़ चुका है। अपनी भाषा में कहें तो हाथी का माइंड नायलॉन की रस्सी को लोहे की ज़ंज़ीर मान बैठा है अर्थात उसका माइंडसेट वैसा हो चुका है कि अब वह उसे तोड़ ही नहीं सकता। अतः वो ये आत्मसाहित कर लेता है कि अब वो खुद को सर्कस से कभी आज़ाद नहीं कर सकता चाहे रिंग मास्टर उसपर कितने ही चाबुक क्यों न बरसाता रहे।


Corporate,
जी हाँ मित्रों, कॉर्पोरेट भी ठीक सर्कस के खेल के समान है जहाँ अगर किसी ने 10 साल से ज्यादा समय बिता दिया तो वह खुद को कभी आज़ाद नहीं कर पायेगा फिर चाहे उसे वहां कितनी ही यातनायें व ग़ुलामी क्यों न सहनी पड़ें।

कहीं हम ड्रीम कंपनी और ड्रीम सैलरी की माया में खुद की योग्यता का नाश तो नहीं कर रहे हैं ?

corporate circus aur ringmaster ka khel

IIT , NIIT , IIIT , IIM या फिर किसी अन्य छोड़े बड़े शिक्षण संस्थानों के काबिल बच्चे कैसे इन कॉर्पोरेट में मौजूद रिंग मास्टर के चाबुक सहने को मजबूर हो रहे हैं ! कैसे कॉर्पोरेट का रिंग मास्टर इतने पढ़े लिखे काबिल नौजवानों को अपने इशारे पर करतब दिखाने को मजबूर कर रहा है।

खबर आती है कि फलाना आईआईटी के बच्चे को गूगल ने 50 लाख का पैकेज दिया। कहीं एप्पल ने 1 करोड़ का पैकेज दिया तो कहीं माइक्रोसॉफ्ट, फेसबुक, याहू ने बड़ा पैकेज दिया…पर आखिर क्यों ? क्या सच में पूरी दुनियां में सिर्फ भारत के बच्चे ही काबिल हैं ? अगर हां, तो फिर गूगल , एप्पल , माइक्रोसॉफ्ट , फेसबुक , याहू इत्यादि भारत में क्यों नहीं जन्म ले पायीं ?

छोटे-छोटे शिक्षण संस्थानों के बच्चे तो 5 लाख तक के साधारण पैकेज पाने के लिए भी ललाहित हैं। शिक्षण संस्थानों में भी हर बच्चे को ड्रीम कंपनी और ड्रीम सैलरी प्राप्त करने को ही प्रेरित किया जा रहा है बजाय कि वे अपने अंदर दबी योग्यता को भी जान सकें। जिस प्रकार सर्कस के लोगों ने जान बूझकर जंगल में एक गड्ढा खोदा कि इसमें कोई जानवर गिरे और उसे अपने सर्कस का ग़ुलाम बनायें ! ठीक वैसे ही हर छोटे से बड़े शिक्षण संस्थान शिक्षा देने के नाम पर खोदे गये एक गड्ढे हैं जिसमें बच्चे को गिराकर, उसकी क्षमता का नाश कर, उसे विवेकहीन बनाकर किसी मल्टीनेशनल कंपनी को बेचा जा सके। इस धंधे में कंपनियां और कॉलेज एक साथ मिलकर काम करती हैं।

असल में वे हमें कोई पैकेज नहीं देते ! साधारण शब्दों में कहें तो, वे खरीददारी करके सालों तक अपना ग़ुलाम बनाके हमें नष्ट कर देते हैं। बड़े कॉर्पोरेट में उपस्थित रिंग मास्टर जिन्हें यह ज्ञात है कि इस देश में प्रतिभायें जन्म लेतीं हैं अतः इनकी बोली लगाओ खरीदो और 10 से 15 साल में नष्ट कर दो। विगत कई सालों से भारत में IIT , NIIT , IIIT , IIM जैसी प्रसिद्ध शिक्षण संस्थानें हैं आखिर इनसे एक ‘फेसबुक’ जैसी वेबसाइट भी क्यों न बन सकी ? दूसरी ओर वहां एक मार्क ज़ुकरबर्ग जैसा नॉन क्वॉलिफाइड व्यक्ति फेसबुक डेवलॅप कर देता है और फिर बोली लगता है IIT के क्षात्रों की। क्या हम सच में योग्य हैं ? अगर हैं तो अब तक हमने अपना क्या बनाया जिसे दुनियां इस्तेमाल करे ?

कुछ लोग ऐसा तर्क देते हैं जो हजम नहीं होता ! अरे हिंदुस्तान में तो सरकारें ही वैसी हैं, यहाँ गवर्नमेंट का ध्यान है ही नहीं इत्यादि। हम सारा जीवन यहां पढ़ाई और काम करके गुजार देते हैं किन्तु उसमें सरकार पर दोष नहीं मढ़ते मगर बात जब कुछ करने की हो तब सरकारें दोषी। एक वेबसाइट और सॉफ्टवेयर बनाने के लिए सरकार से क्या चाहिए ?…मेरा उत्तर है – कुछ नहीं !

असल बात ये है कि हमें मात्र ड्रीम सैलरी और ड्रीम कंपनी की लालसा है।
क्या ड्रीम कंपनी फाउंड करना हमारे बस में नहीं ? अगर नहीं तो फिर खुद को क्वॉलिफाइड कैसे मानें।

बात अगर हम ड्रीम कंपनी की ना भी करें तो एक साधारण कॉर्पोरेट भी हमारी प्रतिभा को नष्ट करने का ही कार्य कर रहा है वो भी केवल 50 हज़ार रुपये देकर। कॉर्पोरेट में मौजूद मैनेजर, ऑपरेशन हेड की श्रंखला और उनके आदेश के आगे आपकी प्रतिभा व सोच दिनों दिन नष्ट हो रही है। किसी भी कंपनी में कोई भी एम्प्लॉई अपनी मर्जी से कुछ भी नहीं कर सकता। एम्प्लॉई के इर्द गिर्द कई रिंग मास्टर घूमते हैं जो अपनी बातों से और अनर्गल काम के बोझ व आदेश से प्रतिदिन आपको चाबुक मारते हैं।

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कॉलेज के कैंपस में हम छोटे हाथी के बच्चे के समान दिल में बड़े ख्वाब लिए घूमते हैं फिर एक दिन कैंपस इंटरव्यू के गड्ढे में गिरते हैं जिसे झानबूझकर बनाया गया था ताकि हम उसमें गिरें। फिर कुछ कॉर्पोरेट के सर्कस वाले आते हैं कई महीने तक ट्रेनिंग के नाम पर हमें करतब करना सिखाते हैं। हमारे पैरों में बेशक लोहे की ज़ंज़ीर न सही किन्तु कंपनी के कठिन कायदे-कानून की बेड़ियां होतीं हैं। फिर एक दिन टीम लीडर, मैनेजर, ऑपरेशनल हेड इत्यादि जैसे रिंग मास्टर चाबुक चलाना शुरू कर देते हैं। लगभग 10 सालों में या इससे अधिक समय तक आते-आते हम वैचारिक रूप से नष्ट हो जाते हैं।

हमारा माइंडसेट पूरी तरह कॉर्पोरेट के अधीन होकर रह जाता है और हमारे अंदर की प्रतिभा मर जाती है। एक पड़ाव ऐसा भी आता है जहाँ से अब सैलरी बढ़ने की गुंजाईश भी नहीं रह जाती क्योंकि हम सैलरी के मैक्सिमम स्लैब को छू चुके होते हैं। जरूरी बात ये कि आप कितने भी साल किसी कंपनी में क्यों न देदें, कंपनी आपसे प्रेम बिल्कुल नहीं करती। आपकी बढ़ती उम्र कंपनी के लिए बोझ बन जाती है, आप 10 से 15 साल गुजार देते हैं किन्तु कंपनी आपसे किसी भी तरह का प्रेमभाव नहीं रखती। अगर आप रिजाइन भी कर दें तो कंपनी आपके जाने से खुश ही होगी।

सवाल ये है कि आपको मिला क्या ? आपने अपनी सारी जवानी, परिश्रम, सोच विचार एक ऐसी जगह पर नष्ट कर दिया जहाँ से आपको आजीवन कोई लाभ नहीं मिलने वाला, न आपकी अगली पीढ़ी उसका हिस्सा बनेगी। जब आपकी पारिवारिक जिम्मेदारियां बढ़ गयीं, घर में पैसों की जरूरत ज्यादा हो गयी, शरीर रोगों से घिर गया तब ये सर्कस जैसा कॉर्पोरेट आपसे पीछा छुड़ाने को उतावला हो जाता है। 10 वर्ष काम करने के उपरांत आप ठीक हाथी के समान नायलॉन की रस्सी से बंधे जाते हैं, यह सोचते हुए कि अब आप यहाँ से कभी आज़ाद नहीं हो सकते। आप भी उसे लोहे की ज़ंज़ीर समझकर तोड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाते और 10 वर्ष कॉर्पोरेट सर्कस में बिताने के बाद आप पूर्णतः नष्ट हो जाते हैं।

तो क्या नौकरी ना करें ?

क्या मैंने ऐसा कहा !! जी आप बिल्कुल नौकरी करें मगर कॉर्पोरेट में अधिकतम 10 से 15 वर्ष ही गुजारें तो बेहतर। हां यह बात उनपर लागू शायद न हो जो बेहद प्रतिभवान या यूँ कहें किस्मत वाले होते हैं जिन्हें मोटी तनख्वा के साथ बड़ा सिक्योर पद भी प्राप्त हो जाता है जहां वे जमकर बढ़ती उम्र में भी नौकरी कर लेते हैं और धन जमा कर लेते हैं, कुछ लोगों की नज़र में ऐसे लोग चाटुकारों की श्रेणी में भी आते हैं। ऐसा अवसर कितनों को प्राप्त हो पाता है ? कॉर्पोरेट जगत में क्या प्रतिशत है ऐसे सौभग्यशाली लोगों का ?

कॉर्पोरेट में सरपट दौड़कर 10 साल के अंदर जब आप अच्छी तनख्वा प्राप्त कर रहे हों या फिर ऐसा लगे कि शायद अब आप अपनी Highest Salary Slab या Package को छू चुके हैं जिसे सामान्य भाषा में Saturation Level (संतृप्ति स्तर) कहते हैं; तब ये स्थिति यह दर्शाती है कि अब आपके पैर में नायलॉन की रस्सी है इसे लोहे की ज़ंज़ीर समझने की गलती न करते हुए आय के अन्य साधन जल्द तलाशने शुरू कर दें। क्योंकि आपने जब corporate join किया था तब आप छोटे हाथी थे किन्तु बिताये गये 10 से 15 वर्षों में आप बड़ा हाथी बन चुके हैं। अपनी तमाम जरूरतों का स्तर आपने बेहद ऊँचा कर लिया है ऐसे में अगर कॉर्पोरेट सर्कस आपसे पीछा छुड़ा ले तो आप गरीबी में जीने को विवश हो जायेंगे।

याद रहे कॉर्पोरेट अधिकतम 15 साल के लिए ही होता है उसके बाद अपनी आय के साधन को तलाशना आवश्यक हो जाता है। अगर आप किसी विशेष पारिवारिक परिस्थिति में हैं, जिस कारण नौकरी छोड़ना आपके हित में नहीं है तो भी आप धीरे-धीरे अपना समय निकलकर अन्य कार्य को खड़ा करने का प्रयास करते रहें। क्योंकि हमारी मजबूर कर देने वाली परिस्थियां कॉर्पोरेट सर्कस के रिंग मास्टर को मौका देती हैं जिससे वह अपने चाबुक को और जोर से पटक सके। अतः हर परिस्थिति को लोहे की ज़ंज़ीर न समझें वह नायलॉन की रस्सी भी हो सकती है जिसे आप तोड़ सकते हैं।

यदि आप 25 से 28 वर्ष के अंदर कॉर्पोरेट ज्वाइन कर लेते हैं तो आप अधिकतम 40 वर्ष तक नौकरी करें उसके बाद वहां से निकलकर कुछ अपना काम कर लेना बेहतर होगा। यदि आप 35 वर्ष की उम्र तक आते-आते अच्छी तनख्वा प्राप्त कर लेते हैं जिसमें से काफी पैसे बच जाते हैं तो यह मौका आपके लिए अच्छा है; कुछ बेहतर विकल्प तलाशकर आप दूसरे काम को भी खींचने का प्रयास करें। अच्छी सैलरी को विलासिता (Luxury) पर फिजूल खर्च न करें क्योंकि Luxury की कोई अंतिम सीमा नहीं है। अच्छी सैलरी से एक्स्ट्रा पैसे को निकालकर उसे कहीं अचल संपत्ति में निवेश करें या फिर समय रहते कोई अन्य व्यापार खड़ा करने की सोचें।

याद रहे, औरों के लिए हम सालों-साल मेहनत करने को राजी हो जाते हैं किन्तु स्वयं की खातिर 4 से 5 वर्ष भी मेहनत नहीं करना चाहते! यही हमारी कमजोरी बन जाती है जो एक दिन हमें अर्श से फर्श पर ला देती है। हर बेहतर काम को अंजाम अपनी बेहतर अवस्था में ही देना चाहिये। आगे देखेंगे, अरे बाद में कुछ कर लेंगे, जब तक नौकरी चल रही है चला लेते हैं, कोई बात नहीं सैलरी नहीं बढ़ रही तो, अब क्या होगा हमसे, अरे ज्यादा हुआ तो गांव चले जायेंगे…जैसी मानसिकता से समय रहते बाहर निकलें। वैचारिक नाश इसी को कहते हैं जो कॉर्पोरेट की देन है, ड्रीम सैलरी हमें सिर्फ कुछ सालों तक लगती है उसके बाद वह साधारण सैलरी बन जाती है।

मध्यमवर्गीय परिवार आखिर मध्यमवर्गीय ही क्यों रह जाता है ? जबकि अक्सर ऐसा देखने में आता है कि ऐसे परिवारों में कोई न कोई अच्छी सरकारी और प्राइवेट नौकरी में रहता है। फिर ऐसा क्यों होता है कि एक मिडिल क्लास फैमिली पीढ़ी दर पीढ़ी मिडिल क्लास ही रह जाती है ?

मिडिल क्लास फैमिली में नौकरी करने वाला व्यक्ति जैसे – दादा या फिर पिता अपनी उम्र के 58 से 60 साल तक केवल सरकारी नौकर बनकर रह जाते हैं। करीब-करीब 30 वर्ष की नौकरी करने के दौरान व्यक्ति न तो किसी प्रकार की विरासत खड़ी करने की सोचता है, न किसी तरह का व्यापार ज़माने की सोचता है, न कहीं घर व ज़मीन जैसी वस्तु में निवेश करता है! जिसका नतीजा यह होता है कि जब वह सरकारी ग़ुलामी से बाहर निकलता है अर्थात रिटायरमेंट लेता है तो उसके पास केवल सरकारी फण्ड ही होता है जो नए ज़माने में आकर बेहद कम पड़ जाता है। परिवार में पैसों की कमी पड़ जाती है और परिवार अपनी मिडिल क्लास की अवस्था में ही रह जाता है।


58 वर्ष की आयु में भी व्यक्ति पारिवारिक जिम्मेदारियों से लदा हुआ रहता है किन्तु उसके निर्वाह हेतु उसके पास बड़ा पैसा नहीं होता। पैसों का ये आभाव उसकी अगली पीढ़ी को भी मिडिल क्लास में रहने को मजबूर कर देती है; कई परिवार तो गरीबी की अवस्था में आ खड़े होते हैं।

चाहे कॉर्पोरेट जॉब हो या सरकारी नौकरी। हमेशा अपनी बेहतर अवस्था में नौकरी से हटकर किसी अन्य कार्य को अंजाम देने का प्रयास करें। यह बात उनपर शायद लागू न हो जो ऐसी सरकारी नौकरी में हैं जिसमें ऊपरी इनकम किसी भी कार्य से ज्यादा है। किन्तु कॉर्पोरेट में ऊपरी इनकम जैसा कोई माध्यम नहीं होता अतः इनमें आने वाले लोग उम्र के 35वें वर्ष से ही पैसे बनाने के अन्य साधनों पर दृढ़ता से ध्यान देना शुरू कर दें और 5 साल खुद के लिए जमकर ऐसी मेहनत करें की आप हमेशा के लिए कॉर्पोरेट सर्कस को अलविदा कह सकें।

अंत में बस इतना ही, कॉर्पोरेट के सर्कस में रहकर हाथी जैसा करतब न दिखाते रहें वरना कॉर्पोरेट का रिंग मास्टर एक दिन आपको अधमरा और लाचार बनाकर कॉर्पोरेट सर्कस के पंडाल से हमेशा के लिए बाहर फेंक देगा। अपना Mindset अर्थात मानसिकता हाथी की तरह न बनायें जिसने नायलॉन की रस्सी को लोहे की ज़ंज़ीर समझकर तोड़ना छोड़ दिया।

लेखक:
रवि प्रकाश शर्मा

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