क्या जीवन एक भ्रम है ?
कई प्रश्न ऐसे भी होते हैं जिनका कोई माकूल जवाब नहीं होता।
कुछ ऐसा ही एक प्रश्न है ‘जीवन क्या है ?’ इसका अर्थ क्या है ? इसकी परिभाषा क्या है ?
जब मैं अपने दृष्टिकोण से इसका उत्तर ढूंढता हूँ तो मुझे बस यही बात समझ में आती है कि उत्पत्ति और अंत के बीच जो क्रिया घटती है वही जीवन है।
शायद आप भी मेरे दृष्टिकोण से सहमत हों या न भी हों। किन्तु निश्चित ही जीवन की कोई एक परिभाषा नहीं हो सकती।
अगर जीवन सच में उत्पत्ति और अंत के बीच की क्रिया है तो ये क्रिया है ही क्यों ?
क्रिया का उद्देश्य तो – कुछ पाना है, कहीं पहुँच जाना है, किसी कार्य का पूर्ण हो जाना है। पर हमें अपने जीवन की क्रिया में क्या प्राप्त होता है, हम कहां पहुंचते हैं, हमारा कौन सा कार्य पूर्ण हो जाता है ? है ना उल्झा देने वाला प्रश्न !
जीवन क्रिया की दिशा क्या है ? आरंभ से अंत की ओर या फिर अंत से आरंभ की ओर !
क्या हम जन्म लेने के बाद मृत्यु को प्राप्त करते हैं या मृत्यु प्राप्ति के बाद जन्म लेते हैं !
वैज्ञानिक भाषा में तो इसका कोई भी उत्तर नहीं है, शायद आध्यात्म इसका जवाब दे पाये।
क्या है जीवन ? बिना उद्देश्य, बिना कारण, बिना तर्क हम यूँ ही क्यों बहे चले जाते हैं। यह कितना अजीब है! मानव, जो अपने द्वारा बनाये गये हर उपकरण पर पूरा नियंत्रण रखता है किन्तु वह स्वयं अपने जीवन को नियंत्रित नहीं रख पाता। हमारे द्वारा निर्मित हर कृत्रिम मशीन अथवा वस्तु पर हमारा वश होता है! फिर हमारी उत्पत्ति भी तो मानव द्वारा ही हुई ऐसे में हमारा जीवन वशहीन कैसे हो जाता है।
आज एक मोहल्ले में जन्मा शिशु, कल उसी मोहल्ले का दादाजी या दादीजी है। आज उसके जन्म पे लाखों बधाईयां मिल रही हैं, कल उसकी मृत्यु पे शोक प्रकट होगा। शिशु को जन्म देने वाला कितने गर्वपूर्ण तरीके से उसका पालन पोषण करता है।
शिशु बढ़ता है, पढता है, खेलता है, मित्रता करता है, प्रेम करता है, धन प्राप्त करता है, विवाह करता है, विरासत बनाता है, अपने वजूद पर इतराता है, डंके की चोट से मैं हूँ कहता है…फिर एकदिन वह पूर्णतः नष्ट हो जाता है।
अपने जन्म से मृत्यु बीच शिशु ने – जिनसे प्रेम किया, मित्रता की, विवाह किया, धन जमा किया, विरासत को खड़ा किया, अपने वजूद को पुख्ता किया, दुनियां को आँखें दिखाया, इठलाया-इतराया…उसका यह कठिन परिश्रम सदैव उसका होकर क्यों नहीं रह जाता। किसने उसे प्रेरित किया यह सब करने को, क्या मिला यह सब करके। अगर अंत ही शाश्वत है तो कर्म का अर्थ क्या ?
कितना कठिन परिश्रम करते हैं हम अपने जीवन काल में….पर क्यों ? क्या खुद के लिए ! क्या अपने प्रियजनों के लिए !
जब मेरे और प्रियजनों का भी अंत निश्चित है तो यह कठिन परिश्रम क्यों !! कहीं हम भ्रम में तो नहीं।
अगर भौतिक वस्तुओं का त्याग भी कर दें तो ‘जीवन क्या है ?’ इसका जवाब नहीं मिल पाता।
शायद हमारा जीवन भ्रम ही है जहां सब कुछ किसी स्वप्न की भांति घटित होता जा रहा है, पर वास्तव में हमें कुछ प्राप्त नहीं होता।
कभी न ख़त्म होने वाली अनगिनत ईच्छाएं हमें यूँ जकड़ें रहतीं हैं कि मृत्यु शैया पर पड़ा हमारा शरीर उस वक्त भी ईच्छाओं की गिरफ्त में होता है। जल प्यास बुझा देता है, अन्न भूख मिटा देता है…किन्तु ईच्छा उम्र के साथ अधिक तीव्र गति से बढ़ने लगती है। आखिर इस पर विराम संभव क्यों नहीं ! मानव जीवन की क्रिया में ईच्छा हमारे आगे दौड़ रही है और हम ईच्छा के पीछे उसकी पूर्ति हेतु अनगिनत प्रयासों में लीन हैं। हमारे मन, आत्मा व विचारों में निरंतर एक होड़ है, एक लालसा है शायद उसी की वजह से हमारा जीवन ईच्छाओं में समाया हुआ है।
क्या ईच्छाओं की पूर्ति ही हमारे जीवन का उद्देश्य है, कहीं ईच्छाएं ही हमारे जीवन को क्रियांवित तो नहीं कर रहीं ? मैं फिर एक सवाल पर आकर अटक गया। मैं जब-जब जीवन की पहचान करने की कोशिश करता हूँ, तब-तब मैं सवाल पर आकर अटक जाता हूँ। शायद मैं ये कभी नहीं जान सकता कि जीवन क्या है ? इसका माकूल जवाब तो कोई दिव्यात्मा ही दे सकती है या फिर वो जिसने समूचे ब्रम्हांड को रचा है।
हमारा जीवन छलावा है और हम एक छलावे को जी रहे हैं।
भ्रम में हैं हम सब!! सच में जीवन एक भ्रम है !!
लेखक:
रवि प्रकाश शर्मा
Very interesting post, there are many theories on it.
Yes friend, there are many theories but still no one is able to tell what life is.