‘वो लड़की’ – हिंदी कहानी
सन 1993, उत्तर प्रदेश के एक छोटे कस्बे से निकलकर आज मैं एक अंजाने शहर की ओर प्रस्थान करने वाला था। उम्र महज 9 साल, गांव का एक साधारण जा जान पड़ने वाला रेलवे स्टेशन जहाँ मैं अपने पिता और माँ के साथ आने वाली ट्रेन की प्रतीक्षा कर रहा था। मिलिट्री में कार्यरत मेरे पिता कुछ सख्त स्वभाव के हैं, किन्तु माँ हमेशा की तरह एक साधारण ग्रहणी महिला। ट्रेन आने की ध्वनि से प्लेटफार्म पर एकत्रित यात्री अफरा-तफरी में अपने सामान व परिवार के साथ खड़े होकर ट्रेन के डब्बों के करीब जाने का प्रयास करने लगते हैं।
आज मैं भी उसी भीड़ का हिस्सा हूँ!! चलो-चलो ऊपर चढ़ों पिता जी ने मुझे पीछे से बोलते हुए कहा।
फिर माँ भी ट्रेन में आ गयी; कुछ छोटे और बड़े बैग को लिए मेरे पिता जी हमारी सीट संख्या को ध्यान से देख रहे थे।
सीट प्राप्ति के उपरांत कुछ बैग नीचे और कुछ बैग को ऊपर वाली बर्थ पर रख दिया गया। बच्चों को खिड़की वाली सीट ज्यादा पसंद आती है अतः मैंने भी अपनी माँ से कहा कि मुझे खिड़की के पास बैठने दो। ट्रेन एकबार पुनः ध्वनि करती है और धीरे-धीरे प्लेटफार्म को छोड़ते हुए आगे निकलती है। मैं यह सब देखकर काफी रोमांचित था, जैसे-जैसे ट्रेन कि गति तेज़ होती वैसे-वैसे बाहर के दृश्य जल्दी-जल्दी विपरीत दिशा में पार होते दिखाई देते।
आखिर ये मन भी कितना अजीब होता है; ट्रेन के बाहर के दृश्य जिनको हम प्रतिदिन देखते हैं किन्तु वे हमें बाहर से उतना नहीं लुभाते जितना ट्रेन के अंदर से लुभाते हैं। तेज़ी से पीछे छूटते खेत खलिहान, नदी के किनारे, मवेशी, कच्चे पक्के मकानों का दृश्य मुझे ऐसे लुभा रहा था जैसे मैंने उसे पहले कभी देखा न हो।
मेरी उम्र महज 9 वर्ष की थी परन्तु मैं आम बच्चों की तरह चंचल बिल्कुल भी नहीं था। ट्रेन को चलते अभी सिर्फ 1 घंटा ही बीता था कि एक छोटा सा स्टेशन आया। चाहे हम ट्रेन में हों या अपने घर में जीवन तो हमेशा ही सफर करता है। मैंने देखा कि कुछ छोटे ग्रामीण लोग विक्रेता की भंति ट्रेन में कुछ बेच रहे थे। अमरुद लेलो, केला लेलो, काले चने, मूम्फ़ली, समोसे और पकोड़े लेलो जैसी आवाज़ों से डब्बे में शोर मच उठा। खैर, शोर इतना बुरा भी नहीं था क्योंकि वे विक्रेता अत्यंत साधारण थे, शायद उनकी आमदनी का जरिया पटरियों पर दौड़ने वाली ट्रेनें ही थीं।
1 पाव अमरुद देदो – मेरी माँ ने यह कहते हुए कुछ अमरुद खरीदे।
फिर अमरुद मेरी तरफ बढ़ाते हुए बोली – लो कुछ खाते रहो।
अमरुद और उसपर लगे काले नमक का स्वाद सच में लाजवाब था। मैंने बाहर के नज़ारों को देखते हुए 2 अमरुद खा लिए। ट्रेन अपनी तेज़ रफ़्तार से गुजरती रहती है। सुबह 7 बजे की निकली ट्रेन में अब 12 बज रहे थे, दिन के भोजन का समय हो चला था। अन्य यात्री घर से लाये अपने-अपने पकवानों का सेवन बड़े चाव से कर रहे थे किन्तु मेरा मन कुछ खाने को नहीं कर रहा था।
माँ ने खाने को पूछा तो मैंने मना कर दिया,
पर फिर मिलिट्री अंदाज़ में पिता जी ने कहा – खा लो 12 बज गये हैं।
3 बजे तो हम शहर पहुँच जायेंगे कब खाओगे ? – पिता जी ने आज्ञा और सवाल भरे शब्दों में यह बात कही।
अब मैं दुबारा मना करने की स्थिति में नहीं था अतः मैंने 2 पूरी और सूखे आलू की सब्जी खा ही लिये।
भोजन के उपरांत अब खिड़की की तरफ देखने का मन नहीं कर रहा था। सोने की मुद्रा में आते हुए मैं माँ के पास ही लेट गया।
चाय…चाय ! कुली, कुली चाहिए… कुली !!
लोगों के कोलाहल और शब्दों के शोर ने मुझे नींद से जगा दिया।
माँ ने सामान को सहेजते हुए कहा – चलो उठो हम शहर आ गये।
हां, सच में हम शहर आ गये थे। प्लेटफार्म पर खड़े लोगों की संख्या साधारण गांव के रेलवे प्लेटफार्म से कहीं ज्यादा थी।
ट्रेन को अलविदा कहने का समय आ गया था। माता-पिता के साथ मैं भी प्लेटफार्म पर उतर गया।
मैं मन में यह सोच रहा था कि आखिर इस शहर का नाम क्या है !
रेलवे स्टेशन से बाहर हम जैसे ही निकले मैंने ऊपर लगे बोर्ड को देखते हुए शहर के नाम को पढ़ना चाहा, जिसपर लिखा था ‘इलाहाबाद’ ।
मिलिट्री का एक जवान हमारी ओर आ रहा था, शायद मेरे पिता जी ने उसे बुलाया हो।
कुछ ही देर में हम सभी आर्मी जीप में बैठ गये। मुझे पता नहीं था कि हम कहां जा रहे हैं, आर्मी जीप सड़क पर अनेकों मोड़ लेते हुए आगे बढ़ती जा रही थी।
समय का अंदाज़ा तो मुझे नहीं था मगर तेज़ चलती हुई जीप अचानक अपनी तफ्तार को धीमा करते हुए एक घर के सामने खड़ी हो जाती है।
हम सभी जीप से उतर जाते हैं और फिर पिता जी एवं जीप चालक मिलिट्री का जवान एक-एक करके सारा सामान निकालते हुए उस घर के एक कमरे में लेकर जाते हैं।
गांव में तो बिजली के हालात बेहद ख़राब थे, किन्तु इस शहर में भी बिजली नहीं थी।
कमरे में अँधेरा था, साफ़ कुछ दिखायी नहीं दे रहा था।
तभी मैंने देखा एक महिला एमर्जेन्सी लाइट लिए हमारे करीब आकर बोली – आज तो दिन में ही लाइट चली गयी भाई साहब।
लीजिये मैं ये एमर्जेन्सी लाइट आपके कमरे में रख देती हूँ ताकि उजाला बना रहे।
माँ और पिता जी, बैग से जरूरी सामान निकालकर उसे कमरे में सजाने लगे। जीप लेकर आया जवान जा चुका था, मैं कमरे के बाहर नए अज़नबी से जान पड़ने वाले घर को इधर-उधर देख रहा था।
कुछ क्षण बीते ही थे कि फिर वही महिला 2 प्याली चाय और कुछ बिस्किट लायी; मगर इसबार उसके साथ एक लड़की भी थी।
हल्के ग़ुलाबी रंग की फ्रॉक पहने ‘वो लड़की’ ठीक मेरी तरह कुछ बड़ी और कुछ छोटी सी थी; हां मगर उसका रंग बेहद गोरा था।
माँ और पिता जी ने चाय की प्याली हाथ में लेते हुए उस महिला से सवाल किया – ये प्यारी बच्ची आपकी है ?
महिला ने जवाब देते हुए कहा – जी भाई साहब मेरी बेटी है।
तभी महिला को मेरा ध्यान आया और उन्होंने मुझे कुछ बिस्किट खाने को दिए।
चाय बिस्किट खाने की क्रिया चल ही रही थी कि अचानक लाइट आ जाती है और कमरे में रौशनी फ़ैल जाती है। माँ सारे कमरे में सफाई और पिता जी सामान लगाने में व्यस्त हो जाते हैं। मेरे लिए शहर भी अंजान था और घर भी, इसलिए मैं बस इधर-उधर घूमते हुए नई जगह से पहचान बनाने की कोशिश कर रहा था ।
गोरे रंग वाली छोटी लड़की अपनी माँ के साथ ऊपर अपने कमरे में चली जाती है। मैं नीचे घर के मुख्य द्वार से कभी बाहर देखता तो कभी अंदर आ जाता। गोर रंग वाली लड़की कुछ देर में फिर नीचे उतर कर आ जाती और फिर ऊपर चली जाती।
खैर, कुछ देर बाद हमारा नया कमरा पूरी तरह से सज जाता है और माँ स्नान के उपरांत रात्रि का भोजन बनाने में लग जाती हैं। सफर की थकान सभी को थी अतः हम सभी जल्द खाना खाकर सो जाते हैं।
अगले दिन सुबह पिता जी आर्मी यूनिट को रवाना हो गये। इधर मैं और माँ कमरे में अकेले, तो कभी बरामदे व आंगन में अकेले बैठे होते। माँ के लिए भी ये किराये का मकान अंजाना था इसलिए वो भी कहीं नहीं जा रही थी।
हमारा यूँ सिमटकर रहना मकान मालिक को शायद ठीक न लगा अतः एक दिन वो नीचे आकर बोली – इसे आप अपने घर जैसा ही समझें, कहीं आने जाने की पाबंदी नहीं है। पुराना जमाना था लोग पैसों से ज्यादा अपनत्व का भाव रखते थे…शायद तभी उनके मुख से ये शब्द निकले।
मकान मालकिन अपने पति और 2 छोटी बेटियों के साथ घर में रहती थीं। उन्हें भी हमसे ढेर सारी बातें करना पसंद आता; धीरे-धीरे माँ और मकान मालकिन की अच्छी दोस्ती हो गयी। रही बात मेरी, तो मैं अब छत से लेकर आंगन तक खेलने को आज़ाद हो चुका था। मेरे साथ खेलने वाला कोई और नहीं बल्कि वो गोरी लड़की ही थी।
गांव से तीसरी कक्षा पास करके मैं शहर में आ गया था। पिता जी मेरा दाखिला चौथी कक्षा में कराने को व्याकुल थे। मेरे लिए स्कूल तलाशे जा ही रहे थे कि एक दिन मकान मालिक ने कहा – भाई साहब अपने बेटे का दाखिला भी मेरी बिटिया के स्कूल में करा दीजिये।
अपना सुझाव जारी रखते हुए वे बोले – स्कूल पास में ही है और बहुत अच्छा है। आप कहें तो मैं बात करूँ! हो जायेगा दाखिला।
मकान मालिक द्वारा दिया गया सुझाव मेरे पिता को भा गया और अगले महीने मेरा दाखिला ‘सरस्वती विद्या मंदिर’ नामक स्कूल के कक्षा पांचवीं में करा दिया गया। स्कूल की दूरी ज्यादा न थी किन्तु फिर भी प्रतिदिन सुबह-सुबह मेरे मकान मालिक मुझे और अपनी बेटी को स्कूल छोड़कर आते। अब मेरा अकेलापन दूर होता जा रहा था; स्कूल के नये दोस्तों के साथ मेरा मन लगने लगा और अंजान सा प्रतीत होने वाला शहर मुझे भाने लगा।
शहर की गलियां, सड़क, नजदीक स्थित माता का मंदिर, उसके पास खड़ा ईमली का पेड़, किराने की दुकान, चौक अथवा चौराहे सब मुझे पहचानने लगे थे। यह बात भी बेहद अजीब रही कि मकान मालिक की बेटी का असल नाम मुझे स्कूल में दाखिला लेने के बाद ही पता चला।
कक्षा चौथी से पांचवीं में आने तक मेरा स्कूल आना-जाना मकान मालिक और उनकी बेटी के साथ ही रहा। सरस्वती विद्या मंदिर एक विशुद्ध हिंदी माध्यम का विद्यालय था; हम दोनों एक स्कूल, एक कक्षा और एक सेक्शन में ही पढ़ते थे। हम कक्षा 4 को सफलतापूर्वक पास करते हुए कक्षा 5 में प्रवेश कर चुके थे। कक्षा पांचवीं में आने के बाद हमें कोई स्कूल छोड़ने नहीं जाता; शायद इसका कारण विद्यालय का बेहद नज़दीक होना और हमारा कुछ समझदार हो जाना, रहा हो।
हां मगर अकेले विद्यालय जाने का अपना ही मजा है क्योंकि रास्ते में बिकने वाले चटपटे खाद्य पदार्थों को चखने से अब कोई रोकने वाला नहीं था। मैं और वो लड़की साथ स्कूल जाते और साथ स्कूल से वापस आते; रास्ते में जो भी कुछ चखने लायक दिखता उसे भी साथ खाते। अब तक हमारी दोस्ती पक्की नहीं हुयी थी मगर पहचान पक्की हो गयी थी। स्कूल में प्रवेश के उपरांत न वो मुझसे बात करती और न मैं उससे बात करता क्योंकि वहां हमारे अलग मित्र हुआ करते थे।
सरस्वती विद्या मंदिर में दंड प्रावधान बेहद अजीब थे जैसे – हर बच्चे को लंच बॉक्स लेकर जाना अनिवार्य था; अगर कोई लड़का अपना लंच बॉक्स लेकर नहीं आया तो उसे लड़कियों के ग्रुप में बैठकर भोजन करना पड़ता। ठीक इसी प्रकार अगर कोई लड़की लंच बॉक्स नहीं लायी तो उसे लड़कों के ग्रुप में बैठकर भोजन करना पड़ता।
इसलिए मैं स्कूल जाने से पहले 1 बार बैग खोलकर देख लेता कि इसमें लंच बॉक्स है या नहीं!! वरना, कहीं मुझे भी किसी लड़की के साथ भोजन करना न पड़े। इसके अतिरिक्त नाख़ून, बाल, साफ़ कपड़े, जूतों पर पॉलिश…इत्यादि का दुरुस्त होना बेहद अनिवार्य था। स्कूल के ये क़ायदे कानून हमें अनुशासन में ढालने हेतु बनाये गये थे।
साथ स्कूल आते व जाते हमें अभी 6 महीने ही बीते थे कि एक दिन पिता जी कहते हैं कि मिलिट्री क्वाटर मिल गया है अब हम आर्मी अपार्टमेंट में रहने चलेंगे। अगले 1 हफ्ते के भीतर मैं फिर एक ऐसी जगह पर आ गया जो मुझे अंजाना लगा।
पिता के साथ रहने वाले जवानों ने ये सलाह दिया कि – बेटे का दाखिला आप आर्मी स्कूल में क्यों नहीं करा देते। मुफ्त में शिक्षा मिलेगी वो भी अंग्रेजी माध्यम से। मगर मेरे पिता जी न माने और मेरा सरस्वती विद्या मंदिर में पढ़ना जारी रखा।
आर्मी अपार्टमेंट से मेरा स्कूल अब बहुत दूर हो गया था मगर मेरी शिक्षा वहां जारी रही। समय निकलने के साथ आर्मी अपार्टमेंट का माहौल मुझे ज्यादा पसंद आ रहा था! चारों तरफ बिखरी हरियाली, पार्क में लगे झूले, फूल पौधे, बड़े खेल के मैदान और अनगिनत बच्चों का साथ।
अपार्टमेंट में रहने वाले अन्य दोस्तों के साथ मिलकर मैंने साईकल चलाना सीख लिया। 6 महीने कब निकले पता नहीं, अब मैं पांचवीं से छठीवीं कक्षा में प्रवेश कर चुका था। छठवीं कक्षा पास करने के उपरांत पिता जी ने मेरे लिए एक छोटी साईकल खरीद दी ताकि उनको रोज सुबह मुझे स्कूल छोड़ने न जाना पड़े। उस ज़माने में साईकल की सवारी करना बड़ा ही रोचक व आनंद दायक था; सबसे बड़ी बात कि साईकल चालक को कोई हेय की दृष्टि से नहीं देखता। कुछ महीनों में ही मैं साईकल चलाने में माहिर हो चला। अपार्टमेंट के साथियों के साथ साईकल पर बैठकर घूमना, क्रिकट खेलना, पिट्ठू, लुक्का चुप्पी, लट्टू, कंचे, गिल्ली डंडा, फुटबॉल, हॉकी…और भी अनेकों प्रकार के खेल खेलना मेरी दिनचर्या का हिस्सा बन चुके थे।
आर्मी अपार्टमेंट के लुभावने माहौल के बीच किराये का मकान मुझे विस्मृत होता जा रहा था। हां मगर ‘वो लड़की’ मुझे स्कूल में रोज मिल जाती और मैं स्कूल ख़तम होने के बाद अपनी साईकल से उसे कुछ दूर घर के नज़दीक छोड़ आता था।
हंसी-ख़ुशी के साथ ज़िन्दगी मुसलसल गुजरती जा रही थी; मैं छठवीं कक्षा भी पास करके 7वीं कक्षा में आ गया। अब मेरे लिए कुछ अंजाना नहीं था, न शहर, न भाषा, न लोग, न भागते दौड़ते पथरीले रास्ते और न ‘वो लड़की’ ।
छोटा सा जान पड़ने वाला ‘सरस्वती विद्या मंदिर’ विद्यालय बच्चों को हुनरमंद बनाने की पूरी क्षमता रखता था। नाना प्रकार की प्रतियोगिताओं का आयोजन प्रतिवर्ष हुआ करता था किन्तु मेरी रूचि केवल ‘चित्रकारी’ में ही रहती। अपने स्कूल में मैं प्रतिवर्ष ‘चित्रकारी’ प्रतियोगिता में अव्वल आता अतः मेरे पास कक्षा 5 और 6 के पुरस्कार रखे हुए थे। इसबार कक्षा 7वीं की सभी प्रतियोगितायें बड़े पैमाने पर आयोजित की जा रही थी इसलिए सभी बच्चों को अपने-अपने क्षेत्र के अनुरूप तैयारी करने को कह दिया गया था। मैंने हमेशा की तरह पुनः इसबार भी चित्रकारी प्रतियोगिता में ही हिस्सा लिया जिसके लिए मैंने तैयारी करना उचित न समझा।
आखिर प्रतियोगिता को वो दिन आ ही गया। आज ऐसा पहली बार हुआ कि स्कूल के विद्यार्थी और अध्यापकगण स्कूल पोशाक से हटकर अन्य वेश भूषा में पधारे थे। इस बार प्रतिभागी हमारे स्कूल के अतिरिक्त अन्य स्कूलों के छात्र भी थे।
मैं अपनी चित्रकारी में लीन था तभी मेरे पास – ‘वो लड़की’ आकर बोली !! तुम ये सब कैसे बना लेते हो ?
कक्षा 4 से लेकर कक्षा 7वीं तक आने में यह पहला ऐसा मौका था जब उसने मुझसे कोई प्रश्न किया हो।
मैंने अभी उसके प्रश्न का जवाब तलाश ही रहा था कि उसने फिर कहा – मुझे भी सीखा दो !
मैंने कुछ न बोलते हुए, पास रखे अतिरिक्त सादे काग़ज़ को उसे देते हुए कहा – लो, बनाओ !
समय कम था, मैं अपने काम में लग गया और वो मेरे पास बैठी सादे काग़ज़ पर उल्टे सीधे, आड़े तिरछे चित्रों को उभारती रही।
मुझे नहीं पता समय कब बीत गया किन्तु जोर से एक घंटी बजी और सभी प्रतिभागियों को अपना कार्य स्थगित करने का निर्देश दिया गया।
मैं अपनी ‘चित्रकारी’ को अंजाम दे चुका था। मेरे निकट बैठी ‘वो लड़की’ कई सादे काग़ज़ों को बिगाड़ चुकी थी।
मैंने अपनी कलाकृति को प्रतियोगिता प्रबंधक के पास जमा करा दिया। अब समय हो चला था घर की ओर प्रस्थान करने का; किन्तु चलने से पूर्व मैं लड़की द्वारा बनाये कुछ अजीब मगर काम के चित्र-काग़ज़ों को अपने बस्ते में रखते हुए बोला – ये तुमने काफी अच्छा बनाया है; इसे मैं रख लेता हूँ।
वो लड़की जानती थी कि मैं उसकी झूठी तारीफ कर रहा हूँ, फिर हमेशा की तरह मैंने उसे घर से कुछ दूर पहले छोड़ दिया और अपनी दिशा की ओर मुड़ गया।
मानवीय जीवन कहने को तो बहुत लंबा होता है किन्तु इसमें व्याप्त अच्छे पलों की संख्या अत्यंत कम होती है। मेरा स्कूली पाठशाला का जीवन आगे बढ़ता हुआ अपने समापन की ओर अग्रसर हो रहा था। मैं 7वीं की परीक्षा पास कर कब आठवीं में आया और कब इसकी परीक्षा का वक़्त आ गया पता ही नहीं चला।
आठवीं कक्षा की परीक्षाएं आरंभ होने वाली थीं !! रविवार के दिन खेल कूद और कुछ देर अध्यन के उपरांत मैं सोया हुआ था, कि करीब शाम 3 बजे कुछ लोग हमारे आर्मी अपार्टमेंट में आते हैं। मैं हल्की नींद में था किन्तु उनके स्वर मेरे कान में प्रवेश कर रहे थे; मुझे अहसास हुआ की ये कुछ जाने पहचाने स्वर लग रहे हैं। मैं बिल्कुल ठीक था, वे शब्द किसी और के नहीं बल्कि मकान मालिक, उनकी पत्नी, छोटी बेटी और ‘वो लड़की’ जिससे मैं रोज विद्यालय में मिलता हूँ, हमसे मिलने आये हुए थे।
एक तरफ घर में माँ उनके लिए चाय पानी और नाश्ते का इंतेज़ाम कर रही थी और दूसरी तरफ मुझे जगाया जा रहा था कि देखो कौन आया है मिलने। मैं गहरी नींद में नहीं था किन्तु मैं अपने बिस्तर से नहीं उठा। जाने किस बात कि नाराज़गी थी मुझे मैं उनसे नहीं मिला। वक़्त करीब 2 घंटे का बीत चला और घर पधारे वे जाने पहचाने मेहमान वहां से चल दिए। उनके जाने के बाद जब मैं बिस्तर से उठा तो माँ और पिता ने मुझे डांटते हुए कहा कि तुमने ठीक नहीं किया, तुम्हें उनसे मिलना चाहिए था।
‘वो लड़की’ भी मेरे इंतज़ार में थी कि मैं कब सोकर उठूं और उससे बातें करूँ। मेरा यह व्यव्हार उसे भी पसंद नहीं आया और अगले दिन स्कूल में उसने मुझसे कोई बात नहीं की।
खैर, आगे चलकर कक्षा आठवीं की परीक्षाओं का समापन होता है। परीक्षा का परिणाम हमेशा की तरह बेहतर था, मैं और ‘वो लड़की’ परीक्षा पास कर उस स्कूल से हमेशा के लिए विदा ले लेते हैं। अगली कक्षा नौवीं अर्थात हाई स्कूल की थी अतः मेरा दाखिला दूसरे बॉयज इंटरमीडिएट कॉलेज में हो जाता है और ‘वो लड़की’ गर्ल्स इंटरमीडिएट कॉलेज में दाखिला ले लेती है।
पिता जी का ट्रांसफर इलाहबाद से दूसरे शहर में हो जाता है किन्तु मेरी शिक्षा को ध्यान में रखते हुए वो मुझे और माँ को इलाहबाद में ही रहने की सलाह देते हैं। समय अपनी पुनरावृत्ति करता हुआ मुझे एकबार फिर उसी मोहल्ले में ला देता है जहां मैं सबसे पहले आया था।
एकबार फिर हम किराये के मकान में आ जाते हैं किन्तु ‘वो लड़की’ के यहाँ न होकर उससे कुछ दूरी पर एक अन्य मकान मालिक के यहाँ हमें कमरा मिल जाता है।
अब मैं और ‘वो लड़की’ दोनों अलग-अलग कॉलेज में हैं और दोनों उम्र में कुछ बड़े हो गए हैं। माँ का उनके यहाँ आना-जाना जारी रहता है किन्तु मैं उनके यहाँ कभी न जाता। अलग कॉलेज होने और उसके यहाँ न रहने की वजह से मेरा उससे मिलना संभव न हो पाता हां किन्तु आते-जाते कहीं रास्ते में मुलाक़ात हो जाती। बस यूँ ही हमारा रास्तों में मिलना जुलना जारी रहा और हम दोनों बीते 2 सालों में 10 की बोर्ड परीक्षा पास कर 11वीं में प्रवेश कर गए; किन्तु मुझे कक्षा दसवीं में उससे कम अंक प्राप्त हुए।
समय भी इंसान की तरह करवटें बदलता रहता है; मैं 11वीं में आकर भी साईकल से ही अपने कॉलेज जाता किन्तु वो लड़की अब स्कूटी चलाने लगी थी। हमारा अभी भी बीच रास्ते में मिलना जारी रहा, कुछ देर मुझसे बातें करने के बाद वो स्कूटी पर सवार होकर झट से निकल जाती और मैं धीरे-धीरे साईकल से अपने घर पहुँचता।
इलाहबाद यूनिवर्सिटी के पास ही मेरी कोचिंग थी, एक दिन हमारी मुलाक़ात यूनिवर्सिटी क्षेत्र में होती है।
मैं उससे हल्के मजाकिया स्वर में कहता हूँ – मुझे भी स्कूटी चलाना सीखा दो !!
उसने हँसते हुए कहा – लो चलाओ, मैंने कब मना किया।
मैं अपनी साईकल अपने कोचिंग के स्टैंड में खड़ा करते हुए स्कूटी पर सवार हो जाता हूँ और ‘वो लड़की’ पीछे बैठकर मुझे स्कूटी चलाने के गुर सिखाती है।
सच में स्कूटी चलाना बेहद सरल था किन्तु ये मेरा पहला एहसास था।
कुछ देर तक उसने मुझे स्कूटी चलाने का प्रशिक्षण दिया फिर बोली – चलो सिविल लाइन घूम कर आते हैं।
मैं स्कूटी पर पीछे बैठ गया और ‘वो लड़की’ एक मझे हुए चालाक की तरह सरपट सिविल लाइन क्षेत्र की ओर निकल पड़ती है।
हमारा यूँ एक साथ कहीं घूमने का पहला अनुभव था। पुरानी तमाम बातों को दोहराते हम सिविल लाइन क्षेत्र से घूमते हुए वापस उसी स्थान पर आये जहाँ मैंने अपनी साईकल को खड़ा किया था। बस मैं अपनी साईकल की ओर चला और वो घर को प्रस्थान कर गयी।
हमारा यूँ एकदिन साथ घूमना कुछ ऐसा रहा कि हम अक्सर ये काम करने लगे। लेकिन देखते ही देखते 12वीं बोर्ड परीक्षा की घड़ी आ गयी और मेरी कोचिंग का भी समापन हो गया। हम दोनों ने परीक्षा को प्राथमिकता देते हुए अब मिलना और साथ घूमना कम कर दिया। बोर्ड परीक्षा के अंत के बाद परीक्षा परिणाम घोषित हुए जिसमें मैं और ‘वो लड़की’ दोनों द्वितीय श्रेणी से पास हुए।
समय बार-बार हमें एक जगह लाकर मिला ही देता, और इसबार फिर एक नई जगह थी जिसका नाम था इलाहबाद यूनिवर्सिटी।
मैंने B.Sc पाठ्यक्रम में दाखिला लिया तो उसने B.A करना उचित समझा मगर हम दोनों इलाहबाद विश्वविद्यालय में थे। उम्र बढ़ चुकी थी, अब हम स्कूल के मासूम बच्चे न होकर दो जवां लड़का और लड़की थे इसलिए…समाज और लोगों का ध्यान भी रखना पड़ता। चूँकि हम एक ही यूनिवर्सिटी में थे इसलिए मिलना जुलना प्रतिदिन जारी रहा।
हम उस दौर में थे जब हिंदुस्तान में कंप्यूटर शिक्षा अपने परवान पर थी। पढ़ाई लिखाई के साथ कंप्यूटर चलाने के गुर को सीखना भी अत्यंत आवश्यक हो गया; किन्तु उसे अपने घर से कंप्यूटर क्लास करने की इज़ाज़त न मिली, बड़ी जो हो गयी थी अब वो।
पर मैंने अपने दोस्तों के साथ कंप्यूटर क्लास को भी करना शुरू कर दिया। मेरे मन में जाने क्या-क्या चल रहा था, एक तरफ B.Sc की पढ़ाई तो दूसरी तरफ कंप्यूटर क्लास !!
मेरा मन यहीं न माना, मैंने आगे फिर कोचिंग करना शुरू कर दिया मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेने हेतु। डॉक्टर बनने का ख्याल भी मेरे मन में आ गया और मैंने उसे भी पढ़ना शुरू कर दिया। मेरी व्यस्थता ज्यादा बढ़ गयी और अब मैं उस लड़की को ज्यादा वक़्त नहीं दे पाता था। अभी मैं B.Sc के दूसरे साल में ही था मैं कि मैंने B.Sc पढ़ने का ख़याल छोड़ते हुए BIT (bachelor of information technology) करने का मन बना लिया।
मैं इलाहबाद यूनिवर्सिटी हमेशा के लिए छोड़ चुका था और कंप्यूटर शिक्षा को आगे बढ़ाते हुए
BIT में दाखिला ले लिया। जब ये बात ‘वो लड़की’ जानी तो उसने मुझे बहुत समझाया कि मैं कम से कम B.Sc तो पूरा कर लूँ; पर मैं उसकी बात न मानी।
डॉक्टरी की पढ़ाई का जोश कुछ महीने में ही ख़त्म हो गया अब मैं पूरी तरह से BIT करने में मग्न था। वर्ष 2005 में मैंने BIT की डिग्री प्राप्त की और वो लड़की M.A कर चुकी थी। यहाँ तक आते-आते अब मेरे लिए नौकरी करना आवश्यक हो गया था क्योंकि पिता जी आर्मी से सेवानिवृत्त हो गए।
वर्ष 2005 में BIT की डिग्री प्राप्त करने के बाद मैं यही सोच रहा था कि मुझे कौन सी नौकरी मिलेगी और कहाँ मिलेगी !! मुझे जानकार लोगों ने और कुछ मेरे मित्रों ने बताया की टेक्निकल नौकरी तो दिल्ली बॉम्बे जैसे शहरों में ही है !! कुछ महीने सोचने समझने के बाद मैंने दिल्ली प्रस्थान को मन बना लिया।
जब मेरे दिल्ली जाने की बात ‘वो लड़की’ जानी, तो एक दिन वो मेरे घर में ही मिलने आयी अपनी माँ के साथ।
मेरी माँ और उसकी माँ आपस में वार्तालाप कर रहे थे और हम दोनों आपस में।
कुछ देर में मैंने उसे कुछ दिखाया –
वही अजीब चित्रकारियां जिसे कई साल पहले उसने मेरे साथ बैठकर स्कूल प्रतियोगिता के दौरान बनाया था।
हां, वही…सरस्वती विद्या मंदिर में हुई चित्रकारी प्रतियोगिता के पन्ने।
‘वो लड़की’ कहती है – तुमने अभी तक ये संभाल के रखा है !!
हां – मैंने उत्तर देते हुए कहा।
वो आगे बोली – पर मैंने तो बहुत बेकार चित्र बनाये थे।
मैंने कहा – हां, बहुत बेकार थे पर मैंने उसे रंगों से सजा दिया।
देखो कितने सुन्दर लग रहे हैं…ठीक तुम्हारी तरह !! उसकी सुंदरता की तारीफ़ मैंने पहली बार उसके सामने की।
कुछ देर बाद, मैं उसे अपने साथ कमरे से बाहर लेकर आया।
मेरे पास उसे देने के लिए कोई तौफा नहीं था।
अपनी चित्रकारियों को दिखाकर मैंने आग्रह करते हुए कहा – इसे तुम रख लो !!
उसने सवाल करते हुए पूछा – क्या तुम अब कभी नहीं आओगे ?
मैंने कहा – नहीं !!
मुझसे मिलने भी नहीं – हल्के स्वर में उसने फिर ये सवाल किया !
मैं उत्तर न दे सका ।
यह छोटी सी मुलाक़ात हमारी अंतिम मुलाक़ात साबित हुई। जनवरी 2006 में, मैं इलाहबाद से दिल्ली आ गया हमेशा के लिए।
विगत 1 दशकों से भी ज्यादा बीत चुके वक़्त में भी ‘वो लड़की’ मेरे लिए बेहद खास है !!! मैं नहीं जानता अब वो कहां है !
कुछ कहानियों का अंत नहीं होता !! ये अंतहीन कहानियां यादों में दब्दील हो जाती हैं।
मेरी और ‘वो लड़की’ की कहानी भी कुछ ऐसी ही रही।
हां, ‘वो लड़की’ अब मेरी यादों में समाहित है सदा के लिए !!
लेखक:
रवि प्रकाश शर्मा
About Author
रवि प्रकाश शर्मा
मैं रवि प्रकाश शर्मा, इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी से ग्रेजुएट। डिजिटल मार्केटिंग में कार्यरत; डिजिटल इंडिया को आगे बढ़ाते हुए हिंदी भाषा को नई ऊंचाई पर ले जाने का संकल्प। हिंदी मेरा पसंदीदा विषय है; जहाँ मैं अपने विचारों को बड़ी सहजता से रखता हूँ। सम्पादकीय, कथा कहानी, हास्य व्यंग, कविता, गीत व् अन्य सामाजिक विषय पर आधारित मेरे लेख जिनको मैं पखेरू पर रख कर आपके समक्ष प्रस्तुत करना चाहता हूँ। मेरे लेख आपको पसंद आयें तो जरूर शेयर कीजिये ताकि हिंदी डिजिटल दुनियां में पिछड़ेपन का शिकार न हो।
Behad saral v bhavpoorna katha
बहुत सुंदर।
शुक्रिया, कृष्ना सर