जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी
हमारे देश में जन्म देने वाली माँ और मातृ भूमि का दर्जा स्वर्ग से भी ऊपर बताया गया है, पर आज के बदलते परिवेश में जब देशवासी देश और मातृभूमि त्याग करके विदेशों में बसने लगे हैं तब मातृभूमि का क्या अर्थ रह जाता है ?
व्यक्ति मातृभूमि का त्याग कर सकता है,पर क्या मातृभाषा का त्याग सम्भव है? नहीँ, किसी भी स्तिथि में देश-विदेश कहीं भी मातृभाषा का त्याग करना सम्भव नहीँ है। विदेश में बैठा व्यक्ति भी अपनी मातृभाषा का प्रेमी हो सकता है और वहाँ से भी इसके प्रचार-प्रसार में सहयोग प्रदान कर सकता है।
इन स्तिथियों में यह कहना अनुचित नहीँ होगा कि –
जननी मातृभाषाश्च स्वर्गादपि गरीयसी
आज देश में मातृभाषा के संरक्षण के लिए अलग-अलग आयोजन किये जा रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस(21फ़रवरी),हिंदी दिवस (14सितम्बर) आदि तरह-तरह की कार्यशालाएँ चलाई जा रही हैं, ताकि हम अपनी मातृभाषा को सुरक्षित रख सकें, पर इस सबके बाद भी आज हमारी मातृभाषा लुप्त होती जा रही है। आधुनिकता की आंधी में हम खुद ही अपनी धरोहर को खत्म करते जा रहे हैं।
मातृभाषा की इस लुप्तता से हमारी शिक्षा पद्धिति भी अनछुई नहीँ रह गई है। हर तरफ अंग्रेजी अपनी शाखाएँ फैला चुकी है। हर कक्षा में हर विषय अंग्रेजी में पढ़ाये जाने का आदेश पारित किया जा चुका है। सेंट्रल बोर्ड में हमारी मातृभाषा एक वैकल्पिक प्रश्न पत्र का रूप धारण करके रह गई है। हमारे देश में ज्यादातर घर ऐसे हैं जो की हिंदी से ही ताल्लुक रखते हैं, उन परिवारों में दूर दूर तक अंग्रेजी की जानकारी नही है। ऐसे में क्या विदेशी भाषा में प्रदान शिक्षा बच्चा सहजता से ग्रहण कर उसे सीख पायेगा ? बोलना सीखने से लेकर हर काम में हमेशा हिंदी का ही प्रयोग किया जाता है। पर जब बच्चा विद्यालय में प्रवेश पाता है तो एक नई समस्या का सामना उसे करना पड़ता है और वो है विदेशी भाषा। अचानक से हुआ यह बदलाव बाल मन पर डर और असहजता अंकित कर देता है, जिसके कारण बच्चा शिक्षा प्राप्ति से दूर भागने लगता है। अक्सर इस बात को लेकर बहस होती रहती है की प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में ही मिलनी चाहिए। तमाम बाल मनोवैज्ञानि यह सिद्ध कर चुकें हैं कि, मातृभाषा में प्रदान शिक्षा बालक के उन्मुक्त विकास में ज्यादा कारगार होती है।
अलग-अलग परिवेश से आये बालकों में विषय को ग्रहण करने की क्षमता समान नहीँ होती। अंग्रेजी में पढ़ाये जाने में बच्चों को अधिक कठिनाई का सामना करना पड़ता है, पहले एक समस्या यह की अंग्रेजी सीखें और फिर वह विषय विशेष खुद में एक चुनौती। मातृभाषा में पढ़ाया गया विषय ज्यादा अच्छे से समझ में आता है। उस विषय को पढ़ते समय बच्चों के चेहरे प्रफुल्लित दिखाई देते हैं। हिंदी में होने के कारण बात जल्दी समझ आती है और सारा ध्यान विषय विशेष पर केंद्रित हो जाता है।
भाषा हमारा नये संस्कार में प्रवेश कराती है। लेकिन मातृभाषा की उपेक्षा कर उसे शिक्षा के माध्यम से हटा कर जिस तरह के भाषा संस्कार डाले जा रहे हैं वह बहुत खतरनाक है। बच्चा न ही अंग्रेजी जान पा रहा है न ही अपनी मातृभाषा। मातृभाषा के ज्ञान के बिना हृदय सदा ही द्रवित रहता है।
भारतेन्दु जी लिखते हैं –
निज भाषा उन्नति अहे सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल।।
अंग्रेजी का ज्ञान अर्जित करना गलत नहीँ है। अंग्रेजी सीखना अच्छी बात है और जरूरी भी है, लेकिन अपनी मातृभाषा की कीमत पर कदापि नहीँ। शिक्षा का अधिकार का सवाल मातृभाषा में शिक्षा से जुड़ा है, मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करना हर बच्चे का अधिकार है, पढ़ाई के नाम पर दूसरी भाषा का अकारण बोझ बच्चे पर लाद देना उसके स्वाभाविक विकास में बाधा डालने जैसा ही है।
लेखिका:
शाम्भवी मिश्रा
What is the mother tongue? Hindi is my national language, Bengali is my mother tongue. While I understand for a nation to function efficiently one must be familiar with reading and writing Hindi. English is an international business language. Many people, even from poorer social strata, encourage their children to learn English. In the hope that their employability will improve. In this background, we must make children learn English also along with Hindi and Mother Tongue. But will teaching so many languages not burden our children?
You are very right Sir, I think teaching Hindi, English and 1 Local Language are fine. They can learn a foreign languages too by their own choice in future.