ददरी मेला बलिया – पूर्ण जानकारी
ददरी मेला क्या है ? क्यों लगता है ? और कब लगता है जैसे प्रश्नों का जवाब देने से पूर्व कुछ ‘बलिया’ के बारे में भी जान लेते हैं। बलिया नाम सुनकर आप शायद यह जरूर सोचते होंगे कि ये नाम आखिर पड़ा कैसे ! जानकारी के लिए आपको बता दूँ कि राक्षस राज ‘बलि’ जिन्हें ‘राजा बलि’ के नाम से भी संबोधित किया जाता है के नाम पर ‘बलिया’ का नाम पड़ा। राक्षस राज, राजा बलि ने बलिया को अपनी राजधानी बनाया था।
ऐतिहासिक, धार्मिक और राजनीतिक तीनों ही दृष्टिकोण से बलिया क्या है आईये जानते हैं:
इतिहास की अगर हम बात करें तो बलिया देश का वह प्रथम जिला व स्थान है जिसे सर्वप्रथम अंग्रेज़ों से आज़ादी प्राप्त हुयी। सन 1942 के आंदोलन में बलिया के निवासियों ने स्थानीय अंग्रेजी सरकार की नींद उड़ा दी और अंग्रेजी हुकूमत को उखाड़ फेंका। इतिहास के अनुसार चित्तू पांडेय के नेतृत्व में कुछ दिनों तक बलिया की स्थानीय सरकार भी चली किन्तु अंग्रेज़ पुनः अपनी सत्ता कायम करने में सफल रहे। इसी लिहाज़ से ये कहा जाता है की बलिया देश का प्रथम आज़ाद होने वाला शहर है किन्तु ये आज़ादी दीर्घकालिक नहीं क्षणिक थी।
जमदग्नि, वाल्मीकि, भृगु, दुर्वासा आदि प्रसिद्ध महर्षियों का संबंध भी बलिया से है। इस तरह ये कहना गलत नहीं होगा कि बलिया एक प्राचीन स्थान है। महर्षि भृगु का आश्रम तो अभी भी बलिया में मौजूद है और बलिया के स्थानीय लोग बलिया को बाबा भृगु की धरती के नाम से पुकारते हैं।
राजनीतिक दृष्टि से देखें तो बलिया ने एक प्रधानमंत्री भी दिया है और एक महान स्वतंत्रता सेनानी भी। श्री चंद्रशेखर सिंह भारत के पूर्व प्रधानमंत्री और स्वतंत्रता सेनानी जयप्रकाश नारायण दोनों ही बलिया के मूल निवासी थे। अन्य प्रमुख नेताओ में स्व. गौरी शंकर भइया, काशीनाथ मिश्र, मैनेजर सिंह जैसे नाम शामिल हैं। इसके अतिरिक्त बलिया वीर कुँवर सिंह का ननिहाल भी है।
बलिया पहले ग़ाज़ीपुर जिले का हिस्सा हुआ करता था किन्तु 1 नवम्बर सन् 1879 को अंग्रेज़ों ने गाजीपुर से बलिया को अलग कर दिया गया। कहा जाता है कि बलिया निवासी अंग्रेज़ों के साथ नहीं रहना चाहते थे जिसकी वजह से बलिया में बार-बार विद्रोह की आवाज़ें उठती रहीं। विद्रोह और लगातार अशांति से तंग आकर अंग्रेज़ों ने बलिया को ग़ाज़ीपुर से अलग कर दिया।
फ़ाहियान चीनी बौद्ध भिक्षु का ददरी मेले से संबंध:
फ़ाहियान नाम का एक चीनी बौद्ध भिक्षु, जो एक लेखक व यात्री भी था, उसने 399 ईसवी से लेकर 412 ईसवी तक भारत समेत अन्य राष्ट्रों जैसे श्रीलंका, आधुनिक नेपाल में भ्रमण किया। फ़ाहियान मध्य एशिया से होते हुए 402 ईसवी में वह उत्तर भारत में आ पहुँचा। चीनी यात्री फ़ाहियान का उद्देश्य तो केवल ‘बौद्ध ग्रन्थ’ एकत्रित करके उन्हें वापस अपने देश चीन ले जाना था। अपनी एक किताब में फ़ाहियान ने ददरी मेले का भी जिक्र किया है। अपनी उत्तर भारत यात्रा के दौरान फ़ाहियान बौद्ध भिक्षु ने गांधार, तक्षशिला, उच्छ, मथुरा, वाराणसी, गया आदि का परिदर्शन किया था। यह संभव है की उसने उस दौरान बलिया की भी यात्रा की हो और ददरी मेले से वाकिफ हुआ हो।
हिंदी साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का ददरी मेले से संबंध:
हिंदी में आधुनिकता के पहले रचनाकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने भी ददरी मेले का उल्लेख किया है। आधुनिक हिंदी साहित्य के पितामह कहलाने वाले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म 1 सितंबर, 1850 को काशी के प्रतिष्ठित वैश्य परिवार में हुआ था। काव्य लेखन की कला भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी को विरासत में मिली थी क्योंकि पिता श्री गोपालचंद्र भी एक अच्छे कवि थे।
“भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है” नामक निबंध के रचयिता भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ही हैं। यह निबंध ग़ुलाम भारत की बदहाली को मार्मिकता से दर्शाता है इस निबंध को भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने पहली बार बलिया के ददरी मेले के मंच पर सन 1888 में पेश किया था।
कैसे पड़ा ददरी मेले का नाम ?
महर्षि भृगु के शिष्य दर्दर मुनि के नाम पर ददरी मेले का नाम पड़ा।
बलिया का ददरी मेला:
ददरी मेला हर साल कार्तिक पूर्णिमा के स्नान से आरंभ जाता है और ददरी मेला 2 चरणों में बंटा होता है।
पहला चरण कार्तिक पूर्णिमा की शुरुआत से दस दिन पहले आरंभ होता है। मेले का प्रथम चरण लगभग 15 दिनों का होता है जिसके दौरान यह मेला केवल पशु अर्थात मवेशियों के क्रय विक्रय के लिए चलता है। आयोजन के हिसाब से यह भारत का दूसरा सबसे बड़ा पशु मेला भी कहलाता है। पूरे भारत से गाय, भैंस, घोड़े, बकरियां, हाथी, ऊंट, बैल समेत अन्य जानवरों की उत्कृष्ट नस्लें ददरी मेले में देखने को मिलती हैं।
दूसरा चरण कार्तिक पूर्णिमा के स्नान से ही आरंभ होता है जो आम जनता के विशेषकर होता है। ददरी मेले का द्वितीय चरण स्त्री, पुरुष, नौजवां, बूढ़े सभी लोगों के लिए अत्यंत लुभावना होता है क्योंकि इसमें अनेकों सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। मेले का विशेष आकर्षण प्रसिद्ध मीना बाजार होता है व तमाम वस्तुओं की बड़ी दुकानें भी देखने मिलती हैं। हर प्रकार के छोटे बड़े झूले, गीत संगीत, खेल तमाशों के कलाकार, मौत का कुआँ, गुण की जलेबियां, चाट पापडियां, खाजा व खजुली की दुकानें, खिलौने, आभूषण, घरेलु साज सज्जा के सामान, खाद्य सामग्री, फल व सब्जियां, पेड़ पौधों की नर्सरी, हर प्रकार के वस्त्र और सर्कस का खेल इस मेले को आकर्षण से भर देता है।
कब लगता है ददरी मेला ?
जैसा हम पहले ही बता चुके हैं की बलिया का ददरी मेला 2 चरणों में बंटा होता है। पहला चरण पशु मेले के नाम से जाना जाता है, जिसकी शुरुआत कार्तिक पूर्णिमा के स्नान से 10 दिन पूर्व हो जाता है। दूसरा चरण मीना बाजार मेले का होता है जिसकी शुरुआत कार्तिक पूर्णिमा के स्नान के बाद ही होता है। अतः ये हम कह सकते हैं की साल में जिस महीने व तिथि में कार्तिक पूर्णिमा आ रहा हो उसके उपरांत ददरी मेला आरंभ माना जाता है।
अमूमन तौर पे कार्तिक पूर्णिमा प्रत्येक वर्ष के नवंबर माह में ही आता है। यदि आप ददरी मेला घूमने के इच्छुक हैं तो नवंबर माह में कार्तिक पूर्णिमा स्नान के बाद बलिया पधारें। अगर आप पशु मेला देखना चाहते हैं या किसी मवेशी का क्रय विक्रय करना चाहते हैं तो कार्तिकी पूर्णिमा से पहले जायें।
कैसे पहुंचें बलिया ?
मित्रों ट्रेन व सड़क मार्ग द्वारा आप बलिया आसानी से पहुँच सकते हैं किन्तु हवाई मार्ग वालों के लिए पटना या वाराणसी एयरपोर्ट उतरना ज्यादा ठीक होगा। हालांकि अगर आप चाहें तो दिल्ली से सीधा गोरखपुर की फ्लाइट ले सकते हैं और फिर वहां से बस आदि की सेवा लेकर सड़क मार्ग द्वारा बलिया पहुंचा सकते हैं। वैसे बेहतर यही होगा की आप वाराणसी एयरपोर्ट आएं और फिर वाराणसी सिटी में आकर ट्रेन, बस या कैब सेवा के माध्यम से बलिया पहुँचें।
केवल ट्रेन से आने वाले लोगों के लिए डायरेक्ट बलिया तक आने वाली रेल गाड़ियां हैं। दिल्ली से राजधानी, स्वतंत्रता सेनानी, सदभावना जैसी ट्रेनें उपलब्ध हैं। बलिया के अतिरिक्त बलिया जनपद के निम्न स्थानों बेलथारा रोड, रसरा और सुरैमनपुर में रेलवे स्टेशन हैं जहाँ कुछ ट्रेनों का आना जाना है। बिहार के बक्सर रेलवे स्टेशन पर उतरकर भी बलिया आया जा सकता है जहां से सड़क मार्ग द्वारा जीप व कार सेवा बड़ी आसानी से प्राप्त कर सकते हैं।
केवल सड़क मार्ग द्वारा आने वाले लोगों के लिए वाराणसी, पटना और गोरखपुर का रास्ता ज्यादा बेहतर होगा। ये मार्ग बलिया से अच्छी तरह जुड़ें हुए हैं और इनपर अपनी गाड़ी के साथ-साथ आप अन्य दूसरी प्राइवेट गाड़ियों बसों की सेवा प्राप्त कर सकते हैं।
समय और बदलाव:
साथियों बदलते ज़माने और तकनीकि की दुनियां हमारे लोकल खेल तमाशों को पछाड़ती जा रही है जिसकी छाप ददरी मेले में भी देखने को मिलती है। कभी अपनी विशालता के लिए मशहूर यह बलिया का ददरी मेला आज काफी हद तक सिकुड़ गया है। जादूगर , सर्कस वाला , मौत का कुआँ , सांप सपेरे , नाग नागिन का खेल आदि जैसे मनोरंजक तमाशे अब उतने लुभावने नहीं लगते जैसे कभी हुआ करते थे। ददरी मेले में भीड़ तो आज भी होती है किन्तु लोगों में उत्साह पहले जैसा नहीं वो शायद इसलिए की आजकल हर दिन मेला हमें अपने समान्य बाजार में ही देखने को मिल जाता है।
किसी ज़माने में मेला एक उत्सव की भांति होता था जिसका पूरे साल इंतज़ार रहता था। दादा , दादी के साथ बच्चे व परिवार की महिलाओं का झुण्ड मेले में अत्यंत अनूठा सामाजिक उत्साह पैदा करता था जिसकी आज कमी सी है। मेला केवल भीड़ से नहीं मेला समाज प्रेम व भाईचारे से बनता है। खैर, यह तो कहना होगा की ददरी मेले की गाथा युगों पुरानी है अतः इसे देखना जरूर बनता है। अगर आप कभी ददरी मेले में नहीं गए तो एकबार अवश्य जायें है किन्तु कुछ विशेष तलाशने की कोशिश ना करें बस इसके इतिहास का हिस्सा बनें। ईश्वर करे की यह आने वाले कई युगों तक चलता रहे और बलिया का ददरी मेला सदा जीवित रहे भले उसका स्वरूप आधुनिक ही क्यों न हो।
लेखक:
रवि प्रकाश शर्मा