ऑर्गेनिक ज़िन्दगी

श्री ‘कोरोना वायरस’ और सरकारी ‘लॉक डाउन’ के बीच फ़िलहाल मेरा समय बीत रहा है।
सच कहूं तो लॉक डाउन मेरे जीवनशैली के अनुरूप है यानि मैं ज्यादा घुमक्कड़ प्रवृत्ति का नहीं हूँ। सामान्यतः मेरा मन बाहर कहीं तफ़रीश करने को करता ही नहीं, फिर वो चाहे शनिवार या रविवार की छुट्टी का दिन ही क्यों न हो।

भाई…अपने चरण घर के बाहर तभी निकलते हैं जब घर में आपातकाल की स्थिति आ जाय; अर्थात राशन, दूध, सब्जी, चीनी, चायपत्ती आदि की कमी ही मुझे चौथे माले से नीचे उतरने को मजबूर कर सकती है…या फिर बेटा मुझे धकियाने लगे और कहे कि पापा बाहर घुमाने ले चलो।

वैसे शर्मा जी को ऑर्गेनिक ज़िन्दगी बहुत पसंद है पर क्या करें यहां दिल्ली में कुछ भी ऑर्गेनिक नहीं मिलता…तो भला आप ही बताइये ज़िन्दगी ऑर्गेनिक कैसे मिलेगी ! दावे से कहता हूँ आपको ऑर्गेनिक ज़िन्दगी का मतलब नहीं समझ आया होगा। बोलिये सही कह रहा हूँ ना…?

ऑर्गेनिक फार्मिंग, ऑर्गेनिक फूड के बाद ऑर्गेनिक ज़िन्दगी कौन सी बला है ! बेवक़ूफ़ न बनाइये शर्मा जी, अरे ज़िन्दगी में भी आर्गेनिक और इन-ऑर्गेनिक जैसी कोई चीज होती है क्या ?…जी बिल्कुल ज़िन्दगी भी ऑर्गेनिक होती है। भला उ कईसे ? तनिक समझाइये तो…

हम्म, समझाते हैं…!

तो भईया, अब हम आपको लिए चलते हैं 15 साल पीछे…थोड़ा सा और 20 साल पीछे।

इलाहाबाद के, गुजरे जमाने के ख्यातिप्राप्त शायर अकबर इलाहाबादी ने कहा है ” कुछ इलाहाबाद में सामां नहीं बहबूद के, यां धरा क्या है ब-जुज़ अकबर के और अमरूद के “। यक़ीनन उनकी यह शायरी केवल एक व्यंग के रूप में थी अतः आप उनकी शायरी से ये न समझें की इलाहबाद में अमरुद के अलावा कुछ नहीं।

जी क्या कहें, प्रयागराज उर्फ़ इलाहबाद भारत का सबसे आर्गेनिक शहर है..या यूँ कहें कि था कभी।
दूसरे शब्द में प्रयागराज को ‘कॉस्मोपॉलिटन सिटी’ कहना भी गलत नहीं होगा। यह एक विशुद्ध रूप से ऑर्गेनिक शहर है, अब जब शहर ही ऑर्गेनिक है तो ज़िन्दगी इन-ऑर्गेनिक कईसे होगी। प्रयागराज अपने लोगों के लिए जाना जाता है; कम्युनिस्ट लोगों की भाषा में कहूं तो अपने ‘सेक्युलर नेचर’ के लिए जाना जाता है। ऑर्गेनिक ज़िन्दगी जीने का अर्थ है बेहद नेचुरल हो जाना। यानि, बिना मिलावट का इंसान…जैसा अंदर वैसा ही बाहर।

अब देखिये ना,
श्री हरिवंश राय बच्चन जी इलाहाबद यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी के प्रोफेसर थे..मगर हिंदी कवि के रूप में जाने गये।
फ़िराक़ गोरखपुरी साहब इलाहाबद यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी के प्रोफेसर थे..मगर उर्दू शायर के रूप में जाने गये।

कभी इलाहबाद यूनिवर्सिटी में सफ़ेद कुर्ता-धोती पहने, हाँथ में कलावा बांधे और माथे पर केसरिया तिलक लगाये जब एक इंग्लिश प्रोफेसर इमैक्युलेट अंग्रेज़ी बोलता था तो उसके आगे हॉवर्ड यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर भी फीका पड़ जाता था। यह एक ऐसा शहर था जहां धोती में अंग्रेजी प्रोफेसर और सूट में कवि मिल जाता था।

मेरा मानना है कि विकास भी क्रमबद्ध होना चाहिए ताकि किसी शहर की ऑर्गेनिक व्यवस्था भंग न हो।
वो दिन याद आता है जब अचानक ही पीठ पर कोई मित्र हाँथ रखकर पूछ देता – अउर रजा का हाल है।
…कहीं राह खड़े देख कोई दूर से टोक देता – कस में इहां कईसे।

सदियां गुजर गयीं हैं इन अल्फाजों को सुने, …ऑर्गेनिक ज़िन्दगी का एक आनंद अब मर चुका है।
यह किस्सा केवल इलाहबाद का ही नहीं अपितु बनारस, लखनऊ, गोरखपुर जैसे तमाम कल्चरल शहरों का है।

फिल्म अभिनेता गोविंदा के मामा “लच्छू महाराज” प्रसिद्ध तबला वादक थे लेकिन मजाल है वो ज़रा भी फॉर्मल हों; अरे उ जब भी बोलिहें केवल बनारसिये भाषा में बोलिहें।

ऑर्गेनिक ज़िन्दगी में एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति पर सामाजिक अधिकार होता है।
बेशक उससे आपका कोई पारिवारिक या मैत्रिक रिश्ता हो या ना हो किन्तु सामाजिक रिश्ता तो होता ही है। तभी तो हीरा हलवाई मुझे देखते ही बोल पड़ता है…अरे भईया कहां थे आप – कहिये का खिलायें आपको ? रसगुल्ला या समोसा।

विकास की धड़धड़ाती ट्रेन, उड़ता हुआ जहाज, सरपट दौड़ती बसों ने ऑर्गेनिक ज़िन्दगी को तबाह कर दिया है। इलाहबादी वकील दिल्ली के सुप्रीमकोर्ट आ गया, इलाहबादी लेखक बंबई की मायानगरी चला गया, अंग्रेजी प्रोफेसर अब धोती कुर्ता में शर्मिंदगी महसूस करता है, इंग्लिश का जानकार अब हिंदी और उर्दू से घृणा करता है।

कोई कहता है तुम बिल्कुल भी प्रोफ़ेशनल नहीं हो।
…कोई हिदायत देता है कि यार थोड़ा फॉर्मल हो जाओ।
चारों तरफ साला सूट बूट, कोट टाई, झकास फैशन में और एक ही भाषा-बोली में बात करता हुआ इंसान घूम रहा है। अइसा लगता है मानो हम लैब में निर्मित मानवों के बीच खड़े हों। हर कोई एक ही जइसा है, कसम से कोई ऑर्गेनिक लगता ही नहीं है।

ऑर्गेनिक ज़िन्दगी अब दम तोड़ती नज़र आ रही है।
छोटा शहर भी बड़े शहर की भांति एकदम लल्लन टॉप होता जा रहा है।
‘अउर रजा’ का स्थान ‘ओ-हाय’ ने ले लिया है। हर छोटा शहर दिल्ली, बंबई, बंगलोर की तरह बनता जा रहा है। मने वही सब – सुपर मार्केट, बिगबाज़ार, शॉपिंग कॉम्प्लेक्स, मैक-डी, डॉमिनोज़, पिवीआर, मॉल और कोने-कोने में बईठा ससुरा प्रॉपर्टी दलाल।

सवाल है आखिर क्यों ??
अबे काहें हो रहा है ई सब !
अरे…दिल्ली, बंबई से माथा ख़राब होता है तो इंसान गांव और छोटे शहर की ओर भागता है ताकि कुछ दिन कार का हॉर्न, जगमगाते शोरूम की रौशनी, ओ-हाय, यो-मैन, ड्यूड और कूल टाइप के नौटंकीबाज़ों से राहत मिल सके।

पर ई का, गांव और छोटे शहर से ऑर्गनिक ज़िन्दगी ख़त्म होत जा रही है।
विविध भारती वाला आकाशवाणी की जगह रेडियो मिर्ची कर्करा रहा है। …बगल में बईठे पिंकुआ को हम बोले की अबे पिटारा, जयमाला, छायागीत कुछ लगाओ। उ कह रहा है पगला गए हैं का आप !!! भईया…उ सब हम न सुनते।

कुछ महीने पहले मैं अपने पैतृक निवास ‘बलिया’ गया था।

अब शिवानंद को ही ले लीजिये,
उससे मेरा कोई रिश्ता नहीं। उम्र में भी मुझसे वो 20 साल बड़ा है और बेहद गरीब परिवार से है।
जब भी अपने पैतृक निवास ‘बलिया’ शहर जाता, तो शिवानंद मुझे देखकर बहुत खुश होता और मुझसे भोजपुरी भाषा में पूछता – ” कहिया के आसन आईल बा ? ” जिसका हिंदी अर्थ है – कब आना हुआ आपका ? अर्थात वो मुझसे सवाल करता की आप कब आये।

शिवानंद और मेरे बीच उम्र का फासला बड़ा था, फिर भी वो मुझसे दोस्त की तरह व्यव्हार करता। किन्तु मैं शिवानंद से खुद को कभी जोड़ नहीं पाया; बस उसके सवाल का उत्तर दे देता था मैं। विगत वर्ष 2019 अक्टूबर में मैं पुनः अपने बलिया शहर गया तो शिवानंद से मेरी मुलाक़ात नहीं हुई। जिज्ञासावश मैंने अपने पिता से प्रश्न किया कि शिवानंद अब नहीं आता है क्या ? उन्होंने उत्तर दिया उसका ‘देहांत’ हो गया।

नवंबर माह में मैं जब दिल्ली की ओर आ रहा था तो ट्रेन में बैठे मेरे मन में यही विचार उमड़ रहा था कि आखिर मैं शिवानंद से खुद को जोड़ क्यों नहीं पाया ? क्या वो ग़रीब और गंवार था इसलिए ? या शायद कुछ और…!

मुझे शिवानंद की मृत्यु का कोई ग़म नहीं था क्योंकि वो मेरा कुछ नहीं लगता था,..किन्तु ऑर्गेनिक ज़िन्दगी का एक लुफ़्त यहां भी कम हो गया।
शिवानंद का वही पुराना सवाल – कहिया के आसान आईल बा !! यक़ीन मानिये अब कोई भी बलिया में मुझसे ये प्रश्न नहीं करता है, पर ये प्रश्न उस अनजान शिवानंद की याद मुझे दिला जाता है।

…काश मैंने शिवानंद से खुद को कभी जोड़ने का प्रयास किया होता। क्या पता वो प्रश्न के उपरांत मुझसे कुछ और भी कहना चाहता हो।

लेखक:
रवि प्रकाश शर्मा