निमकी – हिंदी कहानी
सन 1949-50,
गांव के किसान ‘मंगत राम‘ अपनी बेटी ‘निमकी‘ का ब्याह दूर एक दूसरे गांव के किसान पुत्र ‘हरिओम‘ से कर रहे थे।
यह वो दौर था जब भारत में बाल विवाह का होना एक सामान्य बात हुआ करती थी। घर में ब्याह के लोक गीतों का कार्यक्रम जारी था; बूढ़ी व जवान महिलाएं ढोलक की थाप देकर गीत गाने में मगन थीं। मंगत राम घर की साज सज्जा, हलवाई पकवान व्यवस्था एवं मेहमानों के ठहराव की व्यवस्था देखने में बेहद ही व्यस्त नज़र आ रहे थे।
गांव के लाला श्याम लाल, द्वार पर आकर मंगत राम को बुलाते हैं और एक कोने में ले जाकर कहते हैं – ई ले, मंगतवा…500 रुपिया !
अच्छा एक बात बता, निमकी 14 बरस की है; तू ओकर बियाह काहे कर रहा है रे पागल। अरे कम से कम 16 बरस के हो जाय देते। …खैर तोर मर्जी जो करे का है कर; मगर ई ध्यान रख की हम पईसा पूरा सूद समेत वापस लेंगे।
मंगत राम, श्याम लाल को कहता है – अब का करें लाला जी।
आप त जानत हैं, निमकी के माई अब है नहीं !! समय से बिटिया अपने घरे चलि जाय त अच्छा।
आप चिंता न करें हम पईसा आपका समय से दई देबे।
रात्रि विवाह संपन्न होने के बाद भोर में निमकी डोली बैठ विदा हो चली, पति हरिओम संग।
निमकी ने डोली में ही पाँचवीं कक्षा की किताबें एवं स्कूल का बस्ता रख रखा था।
कायदे से तो निमकी को 14 वर्ष की आयु में नौवीं कक्षा में होना चाहिए था; मगर पिता मंगत राम ने यह सोचकर उसे आगे नहीं पढ़ने दिया कि ज्यादा पढ़ लेगी तो इसका विवाह होगा या नहीं। …कहीं न कहीं निमकी कि पढ़ने की आस अधूरी ही रह गयी थी। तभी तो डोली में किताबें और स्कूल बस्ता हाथ से दबाये बैठी थी। भला कोई दुल्हन ससुराल ‘स्कूल बस्ता’ लेकर जाती है क्या !!
डोली में बैठी निमकी का वजन इतना हल्का था की कँहार मानो डोली को लेकर सरपट दौड़ते जा रहे हों।
14 वर्षीया बाल कन्या का वजन भी आखिर कितना हो सकता है; वह भी तब, जब वो उस उम्र में ब्याही जा रही हो। …निमकी का चिंतन अभी ख़त्म नहीं हुआ था, मन अभी बाबू मंगत राम, अपने खेत खलिहान व अपने घर के आँगन में ही खोया हुआ था कि अचानक एक गीत सुनाई देता है –
निमिया तले डोली रखी दे मुसाफिर,
…सावन की आई बहार रे।
निमिया तले डोली रखी दे मुसाफिर..
निमिया अर्थात नीम का पेड़, यक़ीनन निमकी की डोली ससुराल के द्वार पर आ खड़ी थी।
सास, ननद व परिवार के अन्य महिला सदस्यों के अतिरिक्त आस-पड़ोस की ग्रामीण महिलाओं द्वारा यह लोकगीत गाया जा रहा था।
द्वार पर खड़ा जवान नीम का पेड़ भी निमकी के स्वागत को आतुर तेज़ी से अपनी डालियों को हिला रहा था।
बाबू मंगत राम के आँगन को छोड़, निमकी पति हरिओम के आँगन में दाखिल हो रही थी।
खपड़ैल के ओसारे में अपना घोसला बनाये गौरईया भी चुपके से निमकी को ताक रही थी; वहीं द्वार की गईया भी निमकी के सम्मान में बान दे रही थी।
बेशक निमकी का मन अभी अपने मायके में खोया हो किन्तु…ससुराल के पेड़, पशु एवं पंछी निमकी के आगमन से हर्षित दिखाई जान पड़ रहे थे।
धीरे धीरे, संध्या रात्रि में तब्दील हो जाती है।
निमकी अपने पति हरिओम को मायके से लायी किताबें दिखाते हुए, संकोचवश पूछती है – मैं बारवीं तक पढ़ लूँ, …तो तुम्हें बुरा तो नहीं लगेगा !!
निमकी के इस प्रश्न में परिपक्वता नहीं थी; …शायद उसकी उम्र का तकाज़ा था, आखिर चौदह वर्ष की बाल कन्या ही तो थी वो।
हरिओम, ..एक शालीन किसान पुत्र था !
अपनी पत्नी को क्या जवाब दे, कुछ सोचते हुए बोला – मेरे हिस्से की भी तू पढ़ ले।
मैं तो कभी पाठशाला नहीं गया, बापू कहते हैं तू पढ़कर शहर चला जायेगा। और अम्मा शहर जाने के नाम से रोने लगती !
निमकी…पढ़ ले, कल को मैं ना रहूं तो भी तू अकेली जी लेगी।
हरिओम के जवाब में “कल को मैं ना रहूं” वाली बात निमकी को न भायी, उसने कहा – ऐसा क्यों कहते हो ..कल को मैं..!!
..यूँ ही कह दिया, हरिओम ने उत्तर देते हुए निमकी से अनगिनत बातें की।
हरिओम 16 वर्षीय बालक था; जो प्रायः बिमार भी रहता था।
निमकी पति को अपने विचारों के अनुरूप पाकर बेहद खुश थी।
शादी को पांच महीने बीत चले थे,
पति और ससुर निमकी को काफी जानते मानते थे; मगर ननद और सास अक्सर निमकी पर बिना वजह हुक्म चलाते रहते।
भारी भरकम ग्रामीण संयुक्त परिवार जिसमें ससुर के दो अन्य बड़े भाई भी परिवार सहित शामिल थे। निमकी के ऊपर केवल अपने परिवार की ज़िम्मेदारी नहीं बल्कि अन्य दो ससुर के परिवार का भी जिम्मा रहता था। एक बाल कन्या के लिए सभी को समान रूप से प्रसन्न रखना और उनकी आज्ञा का पालन करना बेहद जटिल कार्य था, जिसे निमकी ईमानदारी से निभा रही थी।
शादी का छठवां महीना, निमकी रोज की तरह व्यस्त दिनचर्या में लगी थी।
दोहपहरी ढलकर संध्या की ओर बढ़ चली थी, …तभी हरिओम खेत से अचानक लौट आया।
न किसी से बात की न बोला, बस घर में रखी एक खाट पर लेट गया।
निमकी ख़ुशी ख़ुशी उसके पास गयी मगर हरिओम तेज़ ‘ज्वर’ से पीड़ित नज़र आ रहा था।
सास को यह बात निमकी ने बताई तो उन्होंने कहा – हो जाता है इसे, ..घबरा मत मैं काढ़ा बनाकर दे देती हूँ; ..पिलाती रहना, रात भरे में ठीक हो जायेगा।
अजीब रात थी ये, एक दम ख़ामोश।
कहीं कोई आवाज़ नहीं, द्वार पर नीम का पेड़ भी सर झुकाये चुप चाप खड़ा था।
गहरा सन्नाटा..गर कहीं कुछ खनकता भी था वो वह निमकी के हाँथों में काँच की चूड़ियां थीं। ..शायद जाग रही थी वो !
इससे पहले की भास्कर अपनी आँखें खोले। ..निमकी जाग उठी।
कमरे में लेटे हरिओम का माथा छुआ तो वह अब बिल्कुल भी गरम नहीं था। माथा किसी मृत शरीर की भांति ‘शीतल’ जान पड़ता था।
बाल कन्या क्या समझे, ..धीरे धीरे घर के बड़े सदस्य हरिओम के करीब आकर उसके ललाट को छूते फिर ख़ामोश हो जाते।
किन्तु पत्नी, माँ और पिता कैसे खामोश रहते ! अतः क्षण भर में रोने की आवाज़ गूंजने लगी।
“निमकी..पढ़ ले, कल को मैं ना रहूं तो भी तू अकेली जी लेगी” ..यह वाक्य कहने वाला हरिओम अब नहीं रहा।
विवाह के मात्र 6 माह में ही निमकी बाल ‘वधू’ से बाल ‘विधवा’ हो गयी।
जीवन का शंघर्ष यहीं थम जाता तो अच्छा था, ..पर ऐसा निमकी के भाग्य में कहाँ।
अगले तीन वर्षों में ननद का ब्याह तो हो गया, मगर चौथे बरस ससुर का निधन भी हो गया।
हां, एक बात अच्छी रही “निमकी” जो पाँचवीं कक्षा तक पढ़ी थी उसे गांव के प्राइमरी पाठशाला में अध्यापिका की सरकारी नौकरी मिल गयी।
14 वर्ष की बाल वधू, करीब 15 वर्ष की बाल विधवा और 20 वर्ष की अध्यापिका के सफर तक आते आते निमकी का जीवन एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति के समान बेहद धीर-गंभीर हो चला था। बेहद कम बोलती, बेहद कम हंसती; पिता मंगत राम की संपत्ति एवं पति हरिओम की संपत्ति होने के बावजूद निमकी का जीवन सूना था। घर में यदि कोई उसके दुःख को पहचानता तो बस वो नीम का पेड़ जो निमकी के साथ बड़ा होता जा रहा था।
नौकरी के अभी 2 वर्ष बीते ही थे कि –
एक रात बूढ़ी सास ने निमकी को अपने पास बिठा लिया और काँपते मुँह से बोली –
..तू तो बड़ी बहादुर निकली !
आई थी तो, ये…पिद्दी सी। ..हरिओम कहता था माँ निमकी को पढ़ा दे।
मैंने उसकी ना सुनी और तुझे भी दुःख दिया, पर तू तो छोड़कर ना गयी मुझे। ..सब चले गए हरिओम और उसके बाबू जी भी।
सास ने जीवन में शायद पहली बार इतने प्यार से निमकी से बात की।
वह आगे कहतीं हैं – मेरी शादी में, मेरे बाबू ने मुझे ढेर सारे गहने दिए थे।
चार भाईयों के बाद मैं पाँचवीं बेटी हुई थी ना; इसलिए मुझसे बहुत प्यार करते थे वो। बड़े..धूम धाम से बरात निकाली मेरी।
उनके शब्द अब लड़खड़ा रहे थे..फिर आगे कहा –
निमकिया, ये मेरी कान की बालियाँ निकाल ले।
मेरा बिछुआ, अँगूठी, नथनी, कमरबंद, माँगटीका और पायजेब सब मैंने तेरे लिए रख दिए हैं।
निमकी..मैं अब जीयूँगी नहीं ! यूँ ही बैठी रह तू मेरे पास।
कहते हैं असल ज़िन्दगी तो 20 वर्ष के बाद शुरू होती है।
पर निमकी ने मात्र 23 वर्ष में ही अपना संपूर्ण जीवन जी लिया था।
कहीं कुछ बचा था, तो वह थी उसकी “आयु” ..निमकी के पास केवल आयु बची थी ज़िन्दगी नहीं !
अब वो न पत्नी थी, न माँ, न बहु। अब वो केवल “निमकी” थी; पिता मंगत राम की निमकी।
हां .. गांव के बच्चे अब उसे मास्टरनी दीदी भी कहने लगे थे।
सन 1997, निमकी अध्यापिका के पद से सेवा निवृत हो गयी।
शाम का वक्त था, ..निमकी द्वार पर बैठी बच्चों टॉफियाँ और बिस्कुट बाँट रही थी।
तभी उसे देख एक व्यक्ति आवाज़ मारता है – अरे ..अभागिन, अब तो सांस लेले।
निमकी बात सुन मुस्कुराई और पहली बार जोर से बोलकर जवाब दिया –
..अब तो ‘राम जी’ के पास जाकर ही सांस आयेगी, धूमन भईया।
धूमन कोई और नहीं, बल्कि वही कँहार था जो डोली में बिठाकर निमकी को ससुराल तक लाया था। धूमन जब भी निमकी को देखता तो उसे अभागिन ही कहता था। भला और कहे भी तो क्या …अभागिन ही तो थी वो।
निमकी ने अपने पिता के घर में कोई हिस्सा नहीं लिया।
खेत का भी हिस्सा अपने ताऊ जी को दान कर दिया, क्योंकि पिता मंगत राम के बाद वही उससे मिलने आते थे।
ससुर और पति का खेत-मकान का हिस्सा भी ससुराल परिवार को दे दिया। …कुछ बचे थे तो केवल सास एवं पिता के दिए हुए गहने।
अपने सभी गहनों को, ससुराल में हुई बेटियों की शादी में वह दान करती चली गयी।
फिर कुछ गहने घर में आयी नई दुल्हनों को भी दे दिए..
निमकी अब बूढ़ी हो चली थी, पूरे गांव में निमकी एक आदर्श महिला थी।
घर के बच्चों के लिए बुढ़िया दादी, गांव के बच्चों के लिए बुढ़िया मास्टरनी और अन्य जवां युवकों के लिए ‘आजी’।
किसी ज़माने में हरिओम की मौत का जिम्मेदार निमकी को माना जाता था। सास तो अक्सर कहती रही की तू इस घर में आकर मेरे जवान बेटे को खा गयी। तेरी काली परछाईं ने हमारे परिवार का नाश कर दिया।
निमकी ने इतना सब कुछ क्यों सहा ?
पति हरिओम तो 6 महीने के बाद ही चल बसा, निमकी चाहती तो वापस अपने मायके चली जाती।
आखिर जरूरत क्या थी सास ननद के ताने सुनने की !! क्या जरूरत थी ‘काली परछाईं’ और ‘डायन’ जैसे शब्द सुनने की।
सन 2014,
76 वर्ष की आयु में निमकी देह त्याग बैकुंठ जा पहुँची।
बैकुंठ मैंने इसलिए कहा क्योंकि मुझे पूरा विश्वास है कि वह बैकुंठ ही गयी होगी।
..राम जी को मानती थी, तो क्या राम जी उस अभागिन को बैकुंठ न बुलाते !!
फिर कष्ट भी तो बहुत झेले थे उसने, मरने के बाद तो आराम पाने का अधिकार था उसका।
कथा समाप्त
लेखक:
रवि प्रकाश शर्मा
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रवि प्रकाश शर्मा
मैं रवि प्रकाश शर्मा, इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी से ग्रेजुएट। डिजिटल मार्केटिंग में कार्यरत; डिजिटल इंडिया को आगे बढ़ाते हुए हिंदी भाषा को नई ऊंचाई पर ले जाने का संकल्प। हिंदी मेरा पसंदीदा विषय है; जहाँ मैं अपने विचारों को बड़ी सहजता से रखता हूँ। सम्पादकीय, कथा कहानी, हास्य व्यंग, कविता, गीत व् अन्य सामाजिक विषय पर आधारित मेरे लेख जिनको मैं पखेरू पर रख कर आपके समक्ष प्रस्तुत करना चाहता हूँ। मेरे लेख आपको पसंद आयें तो जरूर शेयर कीजिये ताकि हिंदी डिजिटल दुनियां में पिछड़ेपन का शिकार न हो।