भारत में डॉक्टरों का आभाव क्यों ?

भारत एक ऐसा अधूरा देश है जो आज़ादी के 73 वर्षों बाद भी पूरा देश नहीं बन पाया।
सच कहूं तो मैं भारत की आज़ादी को आज़ादी मानता ही नहीं, क्योंकि यह आज़ादी न होकर केवल ‘पॉवर हैंडओवर’ था। अर्थात, अमीर अंग्रेज़ों ने भारत की बागडोर एक अमीर भारतीय के हाँथ में सौंप दी बिना यह जाने की देश की आम जनता चाहती क्या है। ..जवाहर लाल नेहरू भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के रूप में मनोनीत किये गए न कि लोकतांत्रिक ढंग से चुने गए। कहने को संसद भवन में वोटिंग हुई थी मगर उसकी पारदर्शिता क्या रही होगी सोचने की बात है।

गुजरे 73 वर्षों के सफर में देश की जनता को मिला क्या ? यह आज भी एक सवाल है !

बदत्तर शिक्षा, – बदत्तर स्वास्थ, – रोजगार बदहाली के अतिरिक्त बिजली पानी सड़क जैसी अनेकों मूल व्यवस्थायें चरमराई हुईं हैं।
ज़मीन पर आज भी गिनती के कारखाने, फैक्ट्रियां, उद्योग एवं कंपनियां हैं जो भारत जैसे विशाल आबादी वाले देश का भरण-पोषण करने के लिए पर्याप्त नहीं।

हां यह सच है कि देश में प्रति व्यक्ति आय में बढ़ोतरी हुई है किन्तु उसी अनुपात में मुद्रास्फीति की दरों में भी इजाफा हुआ है। अर्थात, आय बढ़ने के साथ साथ खर्चे भी बढ़े हैं। पखेरू पर आज का विषय भारत में व्याप्त चिकित्सकों के आभाव को लेकर है। बेशक विगत 73 सालों में बदलाव हुए हैं किन्तु वे सभी बदलाव जन साधारण को लाभ पहुँचाने के लिए अपर्याप्त हैं।

भारत जैसे विशाल देश में चिकित्सकों का अभाव क्यों है ?

वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनिज़शन (WHO) के वर्ष 2019 की रिपोर्ट की चर्चा करें तो भारत में 1445 मरीज पर मात्र 1 डॉक्टर है। यह 1445:1 का अनुपात हमारी आंखें खोलने के लिए पर्याप्त है। सच में ग़ज़ब की तरक्की की है हमने 73 वर्षों में। यह आँकड़े तो सरकारी व किसी निजी ऑर्गनिज़शन के हैं यदि ज़मीन पर आँखें गड़ा कर देखें तो वास्तविकता इससे भी भयावह मिलेगी।

चिकित्सकों की बेहद कम संख्या होने की वजह से मरीज की सामान्य बिमारियां भी ठीक नहीं हो पाती और वह सामान्य बिमारी कुछ सालों में ला-इलाज बिमारी बनकर मरीज की जान ले लेती है और उसका पैसा भी खा जाती है। गांव की दुर्गति तो ये है की कोसों दूर तक किसी डॉक्टर का पता ठिकाना ही नहीं होता । WHO यह भी कहता है कि भारत में सालाना 45000 महिलाओं की मृत्यु तो केवल बच्चा पैदा करने के दौरान हो जाती है। इन मौतों में गांव का आंकड़ा ही ज्यादा देखने को मिलेगा क्योंकि वहां प्रसूति डॉक्टरों का आभाव है।

MBBS Physician Doctor और Gynaecologist भी हमें 73 सालों में पर्याप्त नहीं मिल पाये ..आखिर क्यों ?
सामान्य “एमबीबीएस फीजिशयन” और “गाइनकॉलजस्ट” भी हम अपने विशाल आबादी वाले देश में नहीं पैदा कर पा रहे हैं ! देश में सालाना MBA एवं B.Tech के छात्र कूड़े कचरे की भांति निकल रहे हैं किन्तु जिसकी जरूरत है उनका अभाव ज्यों का त्यों बना हुआ है।

मेडिकल ब्लैक मार्केटिंग के बढ़ने का सबसे बड़ा कारण है देश में एमबीबीएस फीजिशयन का घोर आभाव, और इस आभाव को जानबूझकर बनाया गया है। देश में Medical Colleges, Medical Institutions की कमी है, ..क्यों ! क्या वे बनाये नहीं जा सकते ? असल बात ये है की मेडिकल कॉलेज की संख्या बढ़ायेंगे तो ब्लैक मार्केटिंग होगी कैसे।

अतः देश में डॉक्टरों की संख्या व अस्पतालों की संख्या को जानबूझकर नियत रखा गया है ताकि मरीजों की फसल उगती रहे और चिकित्सा व्यापारी उसे काटते रहें। न हम डॉक्टरों की संख्या बढ़ा पा रहे हैं, न सरकारी अस्पतालों की और ना ही प्राइवेट अस्पतालों की। आखिर चिकित्सा के क्षेत्र में भारतीय सरकारों का उद्देश्य क्या है !

शिक्षा व्यवस्था एवं परीक्षा प्रणाली:

भारतीय शिक्षा व्यवस्था तो शायद दुनियां की सबसे ख़राब व्यवस्थाओं में से एक हो।
हमारी शिक्षा में कोई उद्देश्य नहीं दिखता, बच्चा बस एक क्लास से दूसरी क्लास में जाता है किन्तु उसे पता ही नहीं चलता की शिक्षा से उसे क्या वैल्यू मिल रही है ! 12वीं पढ़ा हुआ बच्चा भी भ्रमित रहता है कि उसे जीवन में आगे करना क्या है, वो जान ही नहीं पाता कि वह बना किस काम के लिए है। बच्चे का उद्देश्य 12वीं पास हो जाने तक भी अज्ञात रहता है, फिर वो देखता है की दुनियां किस तरफ जा रही है। देखते ही देखते वो भेड़चाल का हिस्सा बनकर रह जाता है।

जब जीवन का एक बड़ा हिस्सा बर्बाद हो जाता है तब बच्चे को ऐसा लगता है कि उसे डॉक्टर होना चाहिए था, शायद उसे बायो टेक्नोलॉजी में होना चाहिए था, या शायद कुछ और। अक्सर ऐसा प्रतीत होता है कि आज हम जिस प्रोफेशन में हैं शायद उसमें हमें होना ही नहीं चाहिए था। भारतीय शिक्षा व्यवस्था भ्रमित करने वाली है बजाय की वह बच्चों को उसकी क़ाबलियत से पहचान करवा सके।

परीक्षायें क्यों होती हैं ? या यूँ कहें की परीक्षाओं का मक़सद क्या होना चाहिए।
यदि आप डॉक्टर बनना चाहते हैं तो आपको 12वीं बायोलॉजी से उत्तीर्ण होने के बाद NEET के Entrance Test से गुजरना होगा। इसमें कोई बुराई नहीं किन्तु मुझे लगता है एमबीबीएस चिकित्सक एवं प्रसूति विशेषज्ञ की जरूरत देश को ज्यादा है ताकि वे छोटे शहर और गांव स्तर पर रहकर जन साधारण को अपनी सेवा दे सकें। आज भी ‘दाईयाँ’ ग्रामीण महिलाओं की प्रसूति संभाल रही हैं और झोलाछाप डॉक्टर रोजमर्रा से जुड़ी बिमारियों का औना-पौना इलाज कर रहे हैं। इस व्यवस्था को दुरुस्त किया जा सकता है एमबीबीएस चिकित्सक एवं महिला प्रसूति विशेषज्ञ की ज्यादा बहाली करके।

अतः NEET Entrance परीक्षा को वर्गीकृत करके MBBS को सरल बनाना चाहिए ताकि ज्यादा डॉक्टर निकलें।
जिन बच्चों को Surgery, Neurology अथवा अन्य Specialization की ओर जाना है उनका अलग वर्गीकरण किया जाना चाहिए। कहने का अर्थ ये है की सरकार MBBS Physician एवं Gynecology के लिए परीक्षा का अलग वर्ग बना सकती है ठीक BDS, BAMS और BHMS की तरह।

अगर देश में एमबीबीएस चिकित्सक एवं प्रसूति विशेषज्ञ ज्यादा होंगे तो सामान्य बिमारियों का इलाज तो गांव एवं छोटे शहर तक ही हो जायेगा वह भी पढ़े लिखे सर्टिफाइड डॉक्टर द्वारा। एमबीबीएस चिकित्सक की संख्या ज्यादा होने से देश में फैला मेडिकल ब्लैक मार्केटिंग का जाल भी ध्वस्त हो जायेगा। अधिक डॉक्टर होने से डॉक्टरों के बीच प्रतिस्पर्धा भी उत्पन्न होगी और वे मुँह मांगी फीस लेने से भी बचेंगे।

मरीज और डॉक्टर अनुपात:

भारत जैसे सघन आबादी वाले देश के लिए करीब हर 1500 मरीज पर केवल 1 चिकित्सक का होना सच में बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। कम मेडिकल कॉलेज एवं छोटे मेडिकल इंस्टीटूशन की कमी की वजह से डॉक्टर बनने की इच्छा रखने वाले बच्चे भी हज़ारों प्रयत्न करने के बाद असफल हो जाते हैं। वहीं जिनके पास पैसा है वे अपने बच्चों के लिए सीट खरीद लेते हैं किसी प्राइवेट मेडिकल कॉलेज में।

अतः जो बच्चे 50 लाख, 80 लाख और करोड़ रुपये देकर डॉक्टर बन रहे हैं उनका उद्देश्य जन सेवा नहीं अपितु धन और मेवा प्राप्त करना ही है। ऐसे डॉक्टरों की नज़र में मरीज एक वस्तु है जिससे ज्यादा से ज्यादा पैसा बनाया जा सकता है।

  • नामी प्राइवेट अस्पतालों में तो डॉक्टर मरे हुए मरीज को वेंटिलेटर पर रखकर बिल बना रहे हैं।
  • कोई अनावश्यक हार्ट सर्जरी करके पैसा बना रहा है।
  • कोई बिना कारण ही मरीज के अनगिनत टेस्ट व जाँच करवा रहा है।
  • जहां आसानी से नार्मल डिलीवरी हो सकती है वहां भी डॉक्टर पेट चीर के ऑपरेशन कर दे रहा है।

असल में यह कुव्यवस्था तब तक चलती रहेगी जब तक डॉक्टरों के बीच प्रतिस्पर्धा नहीं होगी। डॉक्टर यह भली भाँति जनता है की मरीज के पास ऑप्शन क्या है, आखिर वह मेरे से ईलाज ना करवा कर और कहाँ करायेगा !!

अंत में,

इस कुव्यवस्था के लिए लोग भी जिम्मेदार हैं क्योंकि आज तक देश में वे आंदोलन नहीं हुए जो जनता अपने हित के लिए करे। देश की जनता भी राजनीतिक दलों की ग़ुलाम बन बैठी है इसे अपना हक़ मांगना नहीं आता।

चिकित्सा क्षेत्र का यह गोरखधंधा तब तक चलेगा जब तक डॉक्टरों की कमी होगी।
डॉक्टर की कमी तब पूर्ण होगी जब आप मांग करेंगे।

धन्यवाद

लेखक:
रवि प्रकाश शर्मा