भारत में औरत की आज़ादी
आज मैं जिस मुद्दे पर आप से बात करने जा रही हूँ। वह मुद्दा बेहद अहम है, खासकर हमारे देश भारत में। चंद रोज़ पहले इंटरनेट पर एक तस्वीर वायरल हुई, उस तस्वीर ने मुझे और शायद बहुत से लोगों को सोचने पर मजबूर कर दिया; उस तस्वीर में खासतौर से तुलना की गई थी। जिसके एक हिस्से पर विदेश की एक महिला थी और दूसरे हिस्से पर भारत की एक महिला दर्शाया गया। विदेशी महिला corporate dress में अपने दफ्तर के लिए घर से निकल रही थी और उसके आसपास खड़े सभी मर्द अपने रोज़मर्रा के काम में व्यस्त थे किसी के पास इतना वक्त नहीं था कि वह नजरें उठाकर भी उस महिला को देख सकें और देखें भी क्यों ? दूसरी ओर एक भारतीय महिला की तस्वीर थी या यूँ कहें कि एक मुस्लिम महिला की तस्वीर थी जो कि बुरखा पहनी हुई थी और शायद बाज़ार से कुछ लेकर आ रही थी और उसके आस-पास खड़े सभी मर्द बड़ी दिलचस्पी से उसे घूर रहे थे। इस बात से एक तथ्य साफ ज़ाहिर हो गया कि फर्क यदि कहीं है तो वह है सिर्फ मानसिकता में।
ऐसा नहीं है कि मैं इस मुद्दे के सकारात्मक हिस्से को नहीं जानती। मैं जानती हूं कि भारत में ऐसे कई क्षेत्र हैं जिनमें महिला सशक्तिकरण का साफ दृश्य हमें देखने को मिलता है। यह बात सच है कि महिलाएँ आगे बढ़ रही हैं और पुरजोर तरीके से आगे बढ़ रही है, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि नारी का यह सिर्फ एक तबका है जबकि भारत में महिलाओं का दूसरा तबका घरों की चार दीवारों में सीमित रहने को मजबूर है। उन महिलाओं की जिंदगी में आजादी अब तक नहीं पहुंच पायी है तो “महिलाओं की आजादी (freedom of women’s)” शब्द का मुकम्मल होना महज एक ख्वाब ही है।
तो चलिए अब ज़मीनी हकीक़त की बात कर लेते हैं, सवाल यह नहीं कि ऐसा होता है सवाल यह है कि ऐसा क्यों होता है ? शायद कुछ लोग इस बात को यह कहकर दर-किनार कर सकते हैं कि महिलाएँ पुरुषों के मुकाबले में कमजोर होती हैं। पर महिलाओं के पास भी – दो आँख, दो कान, दो हाथ, दो पैर, एक दिल और एक मुस्कान तो है ही, फिर कोई ये बताये की फर्क कहाँ है ? उनके लिए शायद फर्क शरीर के उस अहम हिस्से में है। तो फिर यह याद रखें जन्म देने वाली भी स्त्री ही है, फिर क्यों उनको एक दायरा बनाकर उसके अंदर रहने के लिए हिदायत दी जाती है। मैं यह नहीं कहूंगी कि इस मुद्दे में सिर्फ पुरुष वर्ग ही ज़िंम्मेदार है। जी नहीं बिल्कुल नहीं, इस मुद्दे में दो अलग इकाईयां और भी हैं। पहली वो – जो दायरों को सहर्ष स्वीकार कर लेती हैं चलिए सहर्ष नहीं तो परिस्थितिवश ही सही लेकिन स्वीकार कर ही लेती है। दूसरी वो – जो औरत होकर भी एक औरत की स्थिति को समझने में नाकाम होती हैं और कहीं ना कहीं इस परिस्थिति को जन्म देने में सहयोग भी कर देती हैं।
एक जिंदगी है यदि उसमें भी सीमाएँ निर्धारित कर दी जाएंगी तो बेबाक होकर जीना क्या हम महिलाएं मरने के बाद सिखेंगी ? जैसा की मैंने पहले भी कहा कि फर्क है तो सिर्फ मानसिकता का, इसे बदल दीजिए बस सब अपने आप ही बदल जाएगा।
अंत में मैं बस इतना लिखना चाहूंगी कि –
” औरत की आज़ादी मानसिकता में कैद है
रुकावट के लिए हमें खेद है ! “
लेखिका:
वैदेही शर्मा