भोजपुरिया – गीत संगीत का अश्लील व्यापार
“सार लोगन अईसन गाना बजावतारन-लो की सुनतो लाज़ लागता“
का जी पंडी जी, काहें खिसियात बानी रउआ ? अब ई-कुल नाया जमाना के गीत हउवे; बजावे दीं लइकन के।
अरे…त, हम का माना करतानी !! बजावा लो, बिगारऽलो अपना बोली आ समाज के।
भारत, नेपाल, मॉरीशस, सूरीनाम, गुयाना, त्रिनिदाद और टोबैगो में बोले जाने वाली भोजपुरी भाषा आज अपने आत्म सम्मान की वहीं तलाश कर रही है जहां से उसका उदय हुआ था। वर्तमान भोजपुरी गीतों के फूहड़ बोल से नाराजगी केवल ‘पंडी जी’ को ही नहीं वरन हर उस व्यक्ति को है जो आज अपने आप को पढ़ा लिखा और आदर्शवादी मानता है।
पंडी जी आगे कहतानी…अब का कहल जाओ !
फिलिम ‘गंगा मइया तोहें पियरी चढ़इबों’ सन 1963 में आईल। जेमे सिनेमा जगत के सम्माननीय लोग काम कइलन। लता मंगेशकर, ऊषा मंगेशकर, मोहम्मद रफ़ी, सुमन कल्याणपुर जइसन गायक इ फिलिम में गीत गईलन, अउर गीत लिखलन ओ ज़माना के प्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र जी। मने कुल 56 साल हो गईल फिलिम देखले, लेकिन आज ले एहकर गीत हमरा ना भुलाइल।
बंधुओं, बात तो पंडी जी एकदम ठीक कह रहे हैं।
1963 से लेकर आज 2020 आने तक हम भोजपुरिया लोगों ने सिनेमा के मंच पर अपनी भाषा को गंदगी और फूहड़ता का पर्याय बना दिया है। मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं की गन्दगी , अश्लीलता , फूहड़ता का अर्थ भोजपुरी गीत संगीत को माना जाने लगा है। अगर थोड़ा मैं कठोर शब्दों में कहूं तो भोजपुरी फिल्म एंड म्यूजिक इंडस्ट्री अब सॉफ्ट पॉर्न एडल्ट इंडस्ट्री में परिवर्तित हो चुकी है।
1970-1980 के दशक में भोजपुरी फ़िल्मी गीतों के बोल जरा देखें तो –
क़) – कहवा गइल लरिकइयां हो, तनि हमके बता द (फिल्म – भैया दूज)
ख) – गोरकी पतरकी रे मारे गुलेलवा जियरा उड़ी उड़ी जाय (फिल्म – बलम परदेसिया)
ग) – एतना बता द, ए दूल्हा गंगा पार के (फिल्म – दूल्हा गंगा पार के)
घ) – ए डॉक्टर बाबू बतायीं दवाई (फिल्म – पिया के गांव)
भोजपुरिया फ़िल्मी गीतों से हटकर बात की जाय तो सबसे बड़ा नाम जो सामने आता है वो है महेंद्र मिसिर (मिश्रा) जी का जिन्हें पूरबी गीतों का रचयिता कहा जाता है। 16 मार्च 1886 में जन्में महेंद्र मिसिर केवल भोजपुरी गीतों के लिए ही नहीं अपितु नाट्य लेखन के लिए भी जाने जाते थे। 26 अक्टूबर सन 1946 में अपनी मृत्यु से पूर्व महेंद्र मिसिर जी ने अपनी लेखनी की बदौलत ‘भोजपुरी साहित्य’ को एक बड़े मक़ाम पर लाकर खड़ा कर दिया। महेंद्र मिसिर जी की लेखनी की धार तत्कालीन अंग्रेजी हुकूमत पर भी करारा प्रहार करती थी जिसकी वजह से उन्हें कुछ वक़्त कारावास में भी गुजारने पड़े।
भोजपुरी लोकगीत की मशहूर गायिका शारदा सिन्हा जी ने महेंद्र मिसिर जी की रचनाओं का गायन किया है जिसमें से यह एक खासा प्रसिद्ध है –
हमनी के रहब जानी , दुनू हो परानी
अंगना में कीच-काच , दुअरा पर पानी
खाला ऊँचा गोर पड़ी , चढ़ल बा जवानी
देश-विदेश जालऽ , टूटही पलानी
केकरा पर छोड़के जालऽ , टूटही पलानी
कहत महेंदर मिसिर , सुनऽ दिलजानी
केकरा से आग मांगब , केकरा से पानी
महेंद्र मिसिर जी के अतीत से निकलते हुए अगर हम वर्तमान भोजपुरी गीत संगीत की दुनियां में झांकें तो यह दुनियां न तो पूर्णतः मॉडर्न बन पायी और ना ही अपनी धरोहर को बरकरार रख पायी। हां ये जरूर है की कुछ गिने चुने हिरगुन गीतकार ही भोजपुरिया भाषा को सम्मान दे पाये।
कभी अपने साहित्यिक बोल के लिए जाना जाने वाला भोजपुरी गीत संगीत आज निम्नस्तर पर आकर खड़ा है –
क) – चूस गईल देवरवा
ख) – राते दिया बुता के
ग़) – धीरे धीरे डालाS
निःसंदेह, यह विचारणीय प्रश्न है की 1963 से लेकर आज 2020 तक आते आते भोजपुरी गीतकारों ने भोजपुरी को आखिर क्या दिया ? यह प्रश्न तब और भी गहरा जाता है जब हम अन्य क्षेत्रीय गीतों की तुलना भोजपुरी गीतों से करते हैं तो। पंजाबी , बंगला , मराठी , तमिल , कन्नड़ , हरयाणवी आदि गीतों ने भारत में खासी लोकप्रियता हासिल कर ली है किन्तु भोजपुरी गीत बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश से बाहर निकल पाने में असमर्थ है। पंजाबी और हरयाणवी गीत तो हिंदी फिल्मों में भी प्रवेश पा चुके मगर भोजपुरी आज भी चौखट पर खड़ी मोहताज़ नज़र आती है।
मित्रों हालिया प्रदर्शित फिल्म ‘सुपर 30’ बिहार की पृष्टभूमि पर आधारित है किन्तु उस फिल्म में चार चाँद लग जाता अगर कोई एक भोजपुरी गीत भी उसमें होता। आखिर भारतीय बॉलीवुड सिनेमा भी भोजपुरी गीतों को फिल्मों में शामिल करने से क्यों कतराता है ? जबकि पंजाबी और हरयाणवी से उसे कोई परहेज नहीं। यह भी हमें ज्ञात है की बॉलीवुड के अधिकांश गीत लेखक, संवाद लेखक, कथा व कहानी लेखक बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश से ही आते हैं। पर इसके बावजूद भी शायद ही कभी कोई भोजपुरी गीत हमें बॉलीवुड सिनेमा में सुनने को मिले। इसकी वजह कुछ और नहीं बल्कि इसकी वजह है भोजपुरी गीतों की फूहड़ छवि जिसे सुनने वाला असभ्य और अनपढ़ माना जाता है।
भोजपुरी का कोई निजी एल्बम हो या भोजपुरी फिल्म गीत सभी का स्तर दोयम दर्जे का है। क्या कोई इस बात पर विश्वास करेगा की कभी भोजपुरी गीत गाने वालों लोगों में – मोहम्मद रफ़ी , लता मंगेशकर , उषा मंगेशकर , उदित नारायण , अलका याग्निक , शब्बीर कुमार जैसे अनेक गायकों के नाम शामिल रहे होंगे। निजी भोजपुरी एल्बम बनाने वाले संगीतकारों ने तो शब्दों की मर्यादा को पार कर लिया है। खासकर होली के त्यौहार पर बनने वाले भोजपुरी एल्बम तो गाली , सेक्स , अश्लीलता , चुम्मा चाटी के शब्दों में पिरोये होते हैं। आज 21वीं सदी में आकर भी भोजपुरी गीतों के बोल “साली और भौजी” तक ही सिमित हैं वो भी फूहड़ तरीके से। इन गीतों को सुनकर ऐसा लगता है जैसे ये गीत के बोल न होकर साली और भौजी के जिस्म को परोसने और उनमें कामुकता तलाशने की बात कह रहे हों।
इतिहास के अनुरूप भोजपुरी शब्द का निर्माण बिहार के प्राचीन जिला ‘भोजपुर’ के नाम से हुआ। भोजपुर ज़िले का नामकरण वहां के “राजा भोज” ने किया था। आंकड़ों की बात करें तो आज सम्पूर्ण भारत में करीब 4.5 करोड़ लोग भोजपुरी भाषा से परिचित होंगे। किन्तु पढ़ा लिखा तबका, बुद्धिजीवी विचार वाला व्यक्ति और सामाजिक व्यक्ति भोजपुरी गीत संगीत के नाम पर दूरी बनाते ही दिखाई देता है। इससे पहले की ये दूरी समय के साथ और अधिक बढ़ती जाय और भोजपुरी गीत संगीत मात्र अश्लीलता के नाम से जाना पहचाना जाय इसके बचाव हेतु समाज को खड़ा होना पड़ेगा। उन सभी लोगों को खड़ा होना पड़ेगा जो भोजपुरी जैसी मर्यादित भाषा को निर्वस्त्र होते नहीं देखना चाहते।
पंडी जी की नाराज़गी अभी जारी है….!!
साला, बहरा कहीं जा त लोग कहेला की भोजपुरी बोले वाला मूरुख होवेला।
मये…नेता पारेता अउर अधिकारी बिहार-ए के, तबो भोजपुरी के कउनों मान नईखे।
….गीत गावता लो – चलाऽ साली रहरिया में।
शायद पंडित जी शांत नहीं होंगे, मगर बात उनकी विचारणीय है।
आशा करता हूँ आप भी इस विषय में सोच रहे होंगे।
लेखक:
रवि प्रकाश शर्मा