ज्ञान और भक्ति का अनोखा संगम भ्रमरगीत काव्य परम्परा

विरह, वेदना, वियोग, ज्ञान एवम् भक्ति का अद्भुत संगम है ‘भ्रमर गीत’ । एक ऐसा वृतांत जहाँ ज्ञान चुप्पी साध लेता है, जिसके आगे योग के सारे तर्क विफल हो जाते हैं। शेष कुछ रह जाता है, तो वह है केवल भक्ति सम्पूर्ण समर्पण।

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भ्रमर गीत काव्य परम्परा का मूल श्रीमद् भागवत का भ्रमर गीत हैं; श्रीमद् भागवत के अनुसार भागवान श्री कृष्ण के मथुरा त्याग देने के बाद समस्त नगरी शोक में डूब जाती है। श्री कृष्ण द्वारा भेजे हुए उद्धव ब्रज आते हैं तथा नन्द और यशोदा के सम्मुख श्री कृष्ण के ब्रह्म स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं। उद्धव भगवान श्री कृष्ण के निर्विकार, अज, अनादि, अनंत और सर्वगत रूप का निवेदन करके नन्द और यशोदा आदि को उनके उसी स्वरूप की प्राप्ति के लिए ज्ञान का उपदेश देते हैं। बाद में गोपियाँ उन्हें अपने साथ एकांत में ले जाती हैं, वे अपने प्रिय कृष्ण से सम्बंधित हर बात जानने की अभिलाषा रखतीं हैं, वे बार-बार कृष्ण कृष्ण का स्वर उच्चारित करती हैं। उसी समय एक भ्रमर उड़ता हुआ वहाँ आ जाता है, गोपियाँ भ्रमर के बहाने उद्धव को उपालम्भ देना आरम्भ कर देती हैं। श्रीमद्भागवत में गोपियों द्वारा भ्रमर को सम्बोधन करके उपालम्भ देना ही भ्रमर गीत कहलाता है।

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श्रीमद् भागवत को ही आधार रख कर कई काव्य साधकों ने भ्रमर गीत की रचना की हैं सभी ने अपनी मौलिकता स्थापित करने के लिए थोडा परिवर्तन भी किया है। भ्रमरगीत काव्य परम्परा में ‘सूरदास जी‘ एवम् ‘नन्ददास जी‘ का नाम ही सर्वोपरि है। हिंदी में भ्रमर गीत की रचना करने वालों में प्रथम स्थान सूरदास जी को प्राप्त है वहीँ दूसरा नाम श्री नन्ददास जी का लिया जाता है।

सूरदास जी ने तीन भ्रमर गीत लिखे हैं, इसमें एक तो भावगत का ही अनुवाद कहा जा सकता है। जिसमे केवल ज्ञान और भक्ति की चर्चा चलाई गई है और भक्ति की विजय दिखाई गई है, इसके अतिरिक्त शेष दो कवि की मौलिकता को स्पष्ट दृष्टिगत करवाते हैं। इन दो भ्रमर गीतों में एक तो केवल एक पद का ही है, इसी एक पद में उद्धव का व्रज आना, गोपियों से कृष्ण का सन्देश कहना, उनकी भक्ति का कृष्ण से निवेदन करना, तथा कृष्ण का यह सब सुनकर व्यथित हो जाना इस सम्पूर्ण वृतांत का वर्णन है। इस एक पद वाले और भागवत के अनुवाद वाले भ्रमर गीत में केवल चर्चाएं ही हैं भ्रमारादि का आना कहीं वर्णित नही है। अतः इन दोनों प्रसंगों का नाम यदि कुछ और ही मान लिया जाएँ तो अनुचित नहीं होगा। जिसमे उनकी मौलिकता है उस भ्रमर गीत का आंकलन किया जाएँ तो वह श्रीमद्भागवत से परिवर्तित प्रतीत होता है, सूरदास जी ने अनेक नवीनता को जन्म देकर अपनी मौलिकता का प्रदर्शन भी किया है।

सूरदास जी ने सर्वप्रथम भ्रमर गीत की रचना हिंदी में की, इसे लोकप्रिय बनाने का सारा श्रेय सूरदास जी को जाता है। इनके द्वारा लिखा गया तीसरा भ्रमर गीत वास्तव में महत्वपूर्ण है, जिसके अनुसार उद्धव ब्रज आकर नन्द और यशोदा से मिलते, गोपियाँ मार्ग में ही उनका रथ देख कर संदेह में आ जाती हैं की कृष्ण ब्रज लौट आये और इसी कारण मार्ग में ही उद्धव को रोक लेती हैं। जब उन्हें पता लगता है की उद्धव को कृष्ण ने भेजा है वे कृष्ण के सखा हैं तो कृष्ण की कुशलता पूछती हैं, उनके हर स्वर में कृष्ण ही विराजमान प्रतीत होते हैं। गोपियों के इसी कृष्ण मोह को भंग करने के लिए उद्धव योग एवम् ज्ञान का उपदेश देना आरम्भ करते हैं और गोपियों के उत्तर में सूरदास जी भ्रमर की कल्पना करके गोपियों द्वारा भ्रमर अलिमधुप आदि सम्बोधनों द्वारा उनकी दशा का चित्रण करना आरम्भ कर देते हैं।

सूरदास जी उद्धव और गोपियों के आधार पर एक ओर ज्ञान की नीरसता और भक्ति की सरसता का तुलनात्म व्याख्यान करके भक्ति की श्रेष्ठता प्रतिपादित करते हैं, दूसरी ओर विरह और उपालम्भ-काव्य का एक अनुपम आदर्श स्थापित करते हैं। गोपियाँ कभी अपना सहज लरकाई को प्रेम बताकर उद्धव के समक्ष अपनी विवशता प्रकट करतीं हैं, तो कभी एक हुतोँ सो गयौ स्याम संग को आराधे ईस तथा अब कैसे हुँ निकसत नहिं उधौ तिरछे है जु अड़े द्वारा उद्धव के निराकार ब्रह्म को भजने में असमर्थता प्रगट करती हैं। दूसरी ओर वे ज्ञान मार्ग का उपहास करतीं हैं, उद्धव जी उनके सहज प्रेम को देख चुप हो गए। गोपियों की भावुकता, सहृदयता तथा वाग्वैदग्ध्य के सामने उद्धव का ज्ञान लोप हो गया है; वे निरुत्तर होकर मथुरा लौट आते हैं। वहाँ पहुँचकर वे कृष्ण से ब्रज जाने का आग्रह करते हैं। यहीं भ्रमर गीत का अंत हो जाता है, मानो उद्धव के पूर्ण भक्त हो जाने पर भ्रमर गीत का उद्देश्य ही पूर्ण हो गया।

हिंदी में भ्रमर गीत की रचना करने वालों में दूसरा नाम श्री नन्ददास जी का है। श्री नंददास जी ने भ्रमर गीत की कथा को उद्धव गोपी संवाद ही बना डाला है। वे प्रारम्भ ही उधौ को उपदेश सुनौ ब्रज नागरी से करते हैं। नंददास जी की रचना में कृष्ण उद्धव संवाद ही नही है वह गोपियों से मिलने से पूर्व की सम्पूर्ण कथा को ही छोड़ देते हैं, उसकी चर्चा तक नहीँ करते। उनके उद्धव सीधे गोपियों के बीच उपस्थित होकर कहना आरम्भ कर देते हैं की मैं तो कहि सँदेश नंदलाल को बहुरि मधुपुरी जाऊँ अर्थात तुम्हे कृष्ण का सन्देश देकर वापस चला जाऊँगा। कृष्ण का नाम सुनते ही गोपियों को उनका स्मरण हो आया और वह अचेत हो जाती हैं। उद्धव जल के छीटों द्वारा उन्हें होश में लाते हैं और वे तुम तें नहिं दूरि ग्यान की अखियन देखौ के साथ अपना उपदेश शुरू कर देते हैं। नंददास जी की गोपियाँ कम तार्किक नही हैं, वे उद्धव के आध्यात्मिक तर्कों के उत्तर ठीक उसी प्रकार देना आरम्भ कर देती हैं। गोपियों और उद्धव के मध्य निर्गुण, सगुण, ज्ञान और भक्ति विषयक सुंदर और विस्तृत तर्क वितर्क होते हैं और अंत में उद्धव स्पष्ट पराजय स्वीकार कर लेते हैं। इस तरह की तार्किकता न श्रीमद्भागत में मिलती है न सूरदास जी के भ्रमर गीत में।

नंददास जी के पश्चात् कुछ ऐसी परिपाटी बन गई की कृष्ण काव्य पर रचना करने वाले प्रत्येक कवि के लिए भ्रमर गीत सम्बन्धी कुछ न कुछ रचना करना अनिवार्य सा हो गया। रीतिकाल के से लेकर आधुनिक काल में भारतेंदु जी तक के अनेक पद इसी प्रसंग से सम्बंधित प्राप्त हो जाते हैं। किन्तु कथा के रूप में भ्रमर गीत श्री अयोध्याय सिंह उपाध्याय के प्रिय प्रवास श्री पं0 सत्यनारायण कविरत्न के भ्रमर दूत और जगन्नाथ दास रत्नाकर के उद्धव शतक में ही प्राप्त होता है। कविरत्न जी का भ्रमर दूत राष्ट्रीय भावना से ओत प्रोत है, यह गोपियों का सन्देश नहीँ है इसमें योशोदा रूप भारत माँ श्री कृष्ण के पास सन्देश भेज कर उन्हें बुला रहीं हैं। प्रिय प्रवास का भ्रमर गीत धार्मिकता से परिपूर्ण है, हाँ रत्नाकर जी के उद्धव शतक में सूरदास जी की तरह भाव पक्ष भी देखने को मिलता है और नंददास जी की तरह तार्किकता भी प्राप्त होती है। इसमें यमुना स्नान के समय कमल के पुष्प को देख श्री कृष्ण को राधा जी का स्मरण हो उठता है और वे प्रेम विभोर हो जाते हैं। उनके सखा उद्धव उन्हें ज्ञान देते हैं और तब श्री कृष्ण उनसे ब्रज जाने का आग्रह करते हैं। उद्धव रथ पर चढ़ते हैं और कृष्ण सन्देश कहते कहते कुछ दूर रथ के साथ चलते हैं। उद्धव जब वृंदावन से गुजरते हैं तो वहां का सौंदर्य देख ही उन पर से ज्ञान का आवरण उतरने लगता है।

यहाँ कहा जा सकता है की भ्रमर गीत काव्य परम्परा का उल्लेख तथा विभिन्न भ्रमर गीतों के स्वरूप् की तुलनात्मक विवेचना अपनी पूर्णतः को प्राप्त होती है।

श्री कृष्ण को गोपियों के भक्ति पर अटूट विश्वास था, अतः वे निर्गुण मार्गीय उद्धव के अहंकार निवारण करने हेतु ही उद्धव को गोपियों के पास ज्ञान सन्देश देने के लिए भेजते हैं। उद्धव जब गोपियों के आत्मा की पुकार सुनते हैं तो उनका ज्ञान काफूर हो जाता है। उद्धव की पराजय ज्ञान मार्ग की पराजय है और गोपियों की विजय भक्ति मार्ग की विजय है। भक्ति में तर्क, बुद्धि, ज्ञान किसी भी जरूरत नहीँ, जरूरी है तो केवल इष्ट के प्रति सम्पूर्ण समर्पण की, ऐसा समर्पण जो विश्वास की दृणता से परिपूर्ण हो।

ऐसी ही भक्ति की सीख देता है भ्रमर गीत।।

लेखिका:  
शाम्भवी मिश्रा