भ्रष्टाचार का स्वभाव- एक कष्टकारक रोग समान

भ्रष्टाचार क्या है?

मनुष्य एक सामाजिक सभ्य और बुद्धिमान प्राणी है उसे अपने समाज में कई प्रकार के लिखित, अलिखित नियमों अनुशासनों और समझौतों का उचित पालन और निर्वाह करना होता है। उस से अपेक्षा होती है कि वह अपने आचरण को संतुलित और नियंत्रित रखें। इसके विपरीत कुछ भी करने पर वह भ्रष्ट होने लगता है, और उसके आचरण को भ्रष्ट-आचार, भ्रष्टाचार कहा जाता है । मन कर्म वचन से मान्य परंपराओं अथवा नियमों के विरुद्ध किया गया कोई भी छोटा या बड़ा, आधा-पूरा कार्य भ्रष्टाचार के दायरे में आता है।

भ्रष्टाचार का स्वभाव

भ्रष्टाचार का अर्थ रिश्वत लेना मात्र नहीं है इसके कई रंग रूप है यथा – मिलावट करना, समय में ड्यूटी पर ना जाना, जमाखोरी, कालाबाजारी, वस्तुएँ ऊँचे दाम पर बेचना, दूसरों का अधिकार हनन, कार्य के प्रति लापरवाही इत्यादि। भ्रष्टाचार समाज में निंदा और तिरस्कार का पात्र बनता है । उसका बल, बुद्धि, वैभव नष्ट हो जाता है। ऐसा भ्रष्ट व्यक्ति जब समाज की मूल इकाई होता है तो समाज और राष्ट्र के गौरव को नष्ट करता है। उसकी आने वाली पीढ़ियाँ उसके नक्शे कदम पर चलकर नाटकीय जीवन का पालन करती हैं। व्यक्ति का यह कर्म उसे धीरे-धीरे अपवित्रता के माया जाल में उलझा देता है। भ्रष्टाचारी स्वयं एक रोगी बनकर समाज और देश को नाश के रास्ते पर धकेल देता है। अतः शासन और प्रशासन की नींव कमजोर पड़ जाती है, और व्यक्ति समाज तथा देश की प्रगति की सभी आशा व सम्भावना धूमिल पड़ जाती है।

क्योंकि-

खलों को कहीं भी नहीं स्वर्ग है,
भलों के लिए तो यहीं स्वर्ग है,
सुनो स्वर्ग क्या है – सदाचार है।

यह भ्रष्टाचार के दुष्परिणामों की पराकाष्ठा है कि आजकल व्यक्ति भ्रष्ट आचरण से दुखी नहीं हुआ करता, बल्कि भ्रष्ट आचरण के ना होने पर वह आश्चर्यचकित हो जाता है यह भी भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा है कि मनुष्य के जीवन में सदाचार का कोई अवसर नहीं आ पाता और हम जीवन में मानवीय मूल्यों का ठीक प्रकार से आनंद भी नहीं उठा पाते। इन्हीं सब के चलते दुनिया के सामने देश का नाम खराब होता है और दुनिया वाले कहते हैं, धीरे-धीरे बेच दिया घर का सब सामान फिर भी कहते शान से मेरा देश महान।

भ्रष्टाचार से दूर रहने के अनगिनत लाभ हैं जैसे कि जीवन में समस्त गुणों, ऐश्वर्य , समृद्धि और वैभव की आधारशिला सदाचार है। यदि हम सदाचारी हैं तो संसार की समस्त विभूतियाँ, बल, बुद्धि हमारे चरणों में लोटने लगतीं हैं। सदाचारी व्यक्ति समाज और शासन और देश के लिए वरदान सिद्ध होता है। सदाचारी व्यक्ति ज्ञान के प्रकाश के वातावरण में विचरण करते हुए स्वयं के साथ-साथ अपने परिवार, अपने कार्यस्थान, अपने समूह, अपने मित्रों के लिए स्वर्ग का निर्माण करता है।

अंततः भ्रष्टाचार के निवारण के लिए सहज मानवीय चेतना को पूर्ण रूप से जगाने, नैतिकता और मानवीय मूल्यों की रक्षा कर आवश्यकताओं को सीमित रखना ज़रूरी है। अन्य उपायों के अंतर्गत शिक्षा सुशासन का होना आवश्यक है। भ्रष्टाचार को हरा कर ही हम अपने देश को विकास और प्रगति पथ पर अग्रसर कर सकेंगे।

लेखक:
वैदेही शर्मा