भ्रष्ट होते सरकारी विभाग व् गैरजिम्मेदाराना अफसरशाही पर अंकुश जरूरी
भारत और भ्रष्ट्राचार एक दूसरे के पर्याय बन चुके हैं। देश में बढ़ रहा भ्रष्टाचार एक नैतिक स्वीकृति बनती जा रही है जिसे आम लोगों के साथ-साथ सरकारी अफसर भी अब इसे कार्यालय संचालन का एक हिस्सा मान चुके हैं। सरकारी दफ्तरों व् सरकारी अस्पतालों का ध्यान जैसे ही हम करते हैं, तो केवल उनके ध्यान मात्र से ही एक अजीब सी सुस्ती, गैरजिम्मेदारी, लचरता, अस्त-व्यस्त पड़ी व्यवस्था का चित्रण हमारे मन-मनष्तिष्क में होने लगता है। अनायास ही मुख से निकल पड़ता है ….. ओह्ह सरकारी काम है….!! यह “ओह्ह” वाक्य सरकारी व्यवस्था का हाल हौले से बता जाता है। बड़े-बड़े पहलवानों का पसीना केवल सरकारी दफ्तरों , अस्पतालों के नाम से ही छूट जाता है फिर वे ऐसा कोई बहाना बनाते हैं की उन्हें उन जगहों पर ना जाना पड़े या फिर तभी जाते हैं जब मजबूरी से भी बड़ी मजबूरी सामने न आ जाय।
सरकारी बैंक – अरे पूरा दिन ख़तम हो जायेगा, बहुत धीरे काम करते हैं सरकारी बैंक वाले।
सरकारी पोस्ट ऑफिस – 10 बजे का टाइम है…11:30 हो गया बाबू अभी कुर्सी पर नहीं बैठे हैं।
सरकारी दफ्तर व् विभाग – पांडेय जी, मिश्रा जी, बड़े बाबू , सिग्नेचर, मोहर..वो वहां हैं, अरे उधर गए..आ गए .. आ गए लंच हो गया, जी 2 बजे आईये।
सरकारी अस्पताल – डॉक्टर साहब कै बजे आते हैं ? 10 बजे का टाइम है वैसे देखिये कब तक आते हैं। पर्ची बनवा लीजिये – साहेब वहां काउंटर पर कोई नहीं है। ऊपर चले जाइये OPD में महेस जी होंगे – बैठिये महेस चाय पिने गए हैं। साहब डेढ़ घंटा हो गया हमारा नंबर कब आएगा – बगल में एक भाई बोला जब सारे जुगाड़ वाले चले जायेंगे तब आयेगा तुम्हारा नंबर।
ऊपर व्यक्त किये गये कथनों से यह साफ़ दिख रहा है कि किस प्रकार सरकारी ऑफिस के कामकाज का माहौल है जिसे प्रतिदिन एक साधारण नागरिक झेलता है मगर फिर भी देश व् राज्य की सरकारें इस फैली हुयी सरकारी दुर्व्यवस्था को ‘उम्मदा’ घोषित करने में कोई कसर नहीं छोड़तीं। सरकारी कार्यालयों, अस्पतालों में कार्यरत कर्मचारी भी खुद को चौधरी मान बैठते हैं ; न उन्हें बात करने की तमीज , न काम को जिम्मेदारी पूर्वक करने की चाहत , ना ही वहां मौजूद व्यक्ति की पीड़ा का अहसास और ना उसके समय की कीमत….उनके लिए कुछ भी मायने नहीं रखता। पर अगर आप 200 – 500 जेब से ढीला करने का दम रखते हैं तो आप उन्हें अपनी उंगलियों पर नचा सकते हैं।
‘शिष्टाचार’ ‘नेकी’ ‘ईमानदारी’ ‘जिम्मेदारी’ ‘भलाई’ ‘दया’ जैसे शब्द समाज से विलुप्त होने के कगार पर हैं वो दिन दूर नहीं जब किताबों में इनके मायने समझाए जायेंगे क्योंकि तब तक यह शब्द क्या होता है इसका अर्थ क्या है यह जान पाना आसान नहीं होगा। भारत का यह विशाल सामाजिक तंत्र धीरे-धीरे कब भ्रष्ट तंत्र में तब्दील हो गया इसका किसी को पता ही नहीं चला। पर इसकी शुरुआत की बात करें तो लोकतंत्र का सबसे बड़ा मंदिर “संसद भवन” वहां से निकली यह भ्रष्टाचार की नदी बहते-बहते पूरे देश को अपने भ्रष्ट पानी का स्वाद चखा गई। आज हमारे भारतवर्ष में सभी अपने आप को सबसे बड़ा भ्रष्ट साबित करने में लगे हैं। नेतागणों द्वारा होने वाले घोटाले अपने पुराने कीर्तिमान को ध्वस्त करते हुए आगे बढ़ते जा रहे हैं तो वहीँ हमारा पुलिसिया महकमा जुर्म करने में सहायक होता जा रहा है। नेता और पुलिस से छलांग लगा कर देश उद्योगपतियों को देखें तो उनके पेट कभी भरने का नाम नहीं ले रहा है बल्कि वो घटोत्कच के पेट की भांति और विकराल होता जा रहा है। अपने इंटरव्यू के दौरान देश प्रेम, समाज प्रेम, सेवाभक्ति व् ईमान की बातें करने वाले IAS, IPS और PCS बने अधिकारी देश में फैले भ्रष्टतंत्र की हिफाजत करने में लग जाते हैं ताकि थोड़ी बहुत दक्षिणा उनको भी प्राप्त हो सके। शिक्षा पर नजर डालें तो देश में रूबी राय जैसी विद्यार्थियों का बोल बाला है वजह क्या तो सिर्फ पैसा; ज्ञान का मंदिर कहा जाने वाला विद्यालय भी अपने आपको ‘ज्ञान’ और ‘मंदिर’ जैसे शब्दों से अलग कर चुका है अब वहां केवल ‘कागजी लक्ष्मी’ का वास है। सरकारी बैंक , सरकारी दफ्तर आराम करने की जगह बन गई है; अगर सरकार नें काम करवाने की चेष्टा भी की तो हड़ताल ठोंक देंगे मजाल है कोई कुछ बोले। सरकारी अस्पतालों को तो दलाल चला रहे हैं; जाओ अपने नाम की पर्ची कटवाओ, XRAY बाहर से कराओ , CT-SCAN कम में करवा देंगे पर उसके लिए आपको फिर अस्पताल से बाहर जाना होगा। क्या कहा बाहर कराने के पैसे नहीं है तो एक काम करो 15 दिन बाद की पर्ची बनवाओ आज डॉक्टर साहब के पास टाइम नहीं है।
गोरखपुर के बाबा राघव दास (BRD) मेडिकल कॉलेज में दिनांक 12 अगस्त 2017 को घटी भयावह घटना सरकारी अस्पताल में फैले भ्रष्टतंत्र के वजूद को पक्का करती हैं। कमीशन खोरी, दलाली के चक्कर में बच्चों की भी बलि दे दी गयी उससे बड़ी बात ये की राज सिंघासन पर विराजमान भ्रष्टाचार को नैतिकता मान बैठे नेता जी यह कहते हैं की अगस्त के महीने में तो बच्चे मरते ही हैं ; वहीं भ्रष्टाचार के मुखिया फरमाते हैं कि बच्चों के मरने का कारण ऑक्सिज़न सिलेंडर की कमी नहीं बल्कि गन्दगी है…ये हुयी न सोने पर सुहागा वाली बात। भाई ऐसा है, मंत्री जी यह कहना चाहते हैं कि अगर अस्पताल में ऑक्सिज़न सिलेंडर की कमी है तो उसके लिए मरीज जिम्मेदार हैं और अस्पताल में गन्दगी है तो भी उसके लिए मरीज जिम्मेदार हैं। नेतागणों और सरकारी अफसरों की कोई गलती नहीं है क्योंकि हर साल अगस्त में बच्चे मरते ही हैं। अस्पताल में फैली गन्दगी का हिसाब हम जनमानस को स्वच्छ भारत अभियान से माँगना चाहिए कि कहाँ जा रहा है स्वच्छता टेक्स में दिया जाने वाला पैसा ??
गैरजिम्मेदाराना जवाबदेही देश में व्याप्त भ्रष्टतंत्र को और उजागर करते हैं। भारत वह देश हैं जिसनें इतिहास में भी कई त्रासदियां झेलीं हैं और आज वर्तमान दौर 21वीं शताब्दी में भी यह देश पुराने हालात से ही गुजर रहा है। भ्रष्टतंत्र अब इस देश से ख़तम नहीं हो सकता, ना ही इसमें कमी आएगी, ना इसपर लगाम कसी जा सकती है और ना ही इसे आगे बढ़ने से रोका जा सकता है।
अंकुश लगाने का जहाँ तक प्रश्न है तो सरकारी नौकरी को प्राइवेट नौकरी की तरह ही कठिन बनाना होगा, नौकरशाहों की जवाबदेही भी प्राइवेट की तरह तय करनी होगी, गैरजिम्मेदाराना व् आपराधिक हरकतों पर केवल बर्खास्तगी से कुछ न होगा इनकी नौकरी भी प्राइवेट कर्मचारियों की तरह हमेशा के लिए जानी चाहिए। सरकारी नौकरी को Safe Life मान कर चलने वाले बाबुओं को किसी बात का भय नहीं है लिहाजा वे मानवीय सवेदनाओं को ताक पर रख टेबल के नीचे और टेबल के ऊपर दोनों तरफ से पैसा बनाने में जुटे हैं।
अगर समय रहते ही देश में तेजी से फ़ैल रहे भ्रष्टतंत्र पर अंकुश न कैसा गया तो ‘शिष्टाचार’ ‘नेकी’ ‘ईमानदारी’ ‘जिम्मेदारी’ ‘भलाई’ जैसे शब्दों को भी Father’s Day, Mother’s Day जैसी खास तारीख के अंतर्गत याद किया जायेगा।