India Election – Campaign Expenses, The Game of Money and Power

कहते हैं कि “परिवर्तन ही संसार का नियम है” सच में बहुत कुछ बदल गया है। भारत का अतीत और भारत का वर्तमान दोनों में ही ज़मीन आसमान का अंतर स्पष्ठ दिखायी देता है। परंतु एक ऐसी चीज है जिसके बदलाव से भारतीय राजनीति, उसके मूल एवं सिद्धान्त भी काफी बदल गये जिससे आज देश की जनता भी काफी हद तक प्रभावित है। मेरा इशारा Indian Election में खर्च किये जाने वाले भारी भरकम रकम की तरफ है।

अगर हम थोड़ा Indian Politics के अतीत में झाँक कर देखें तो तब से लेकर आज तक होने वाले आम ‘लोकसभा’ और ‘विधानसभा’ के चुनाव प्रचार प्रसार में बहुत बड़ा परिवर्तन आ चुका है। वर्तमान समय में होने वाले Election की भव्यता को देखकर ये आकलन किया जा सकता है कि किस प्रकार जनता के पैसों से जनता को मुर्ख बनानें का कारोबार किया जा रहा है। भारत में प्रथम लोकसभा इलेक्शन सन 1952 में हुआ था, निर्वाचन आयोग के अनुसार 1952 से लेकर 2009 के लोक सभा चुनाव तक इसकी कुल लागत में 20 गुना की बढ़ोतरी हुई थी। 1952 में प्रति निर्वाचक 60 पैसे कि लागत थी जो 2009 में आकर प्रति निर्वाचक 12 रुपये हो चुकी थी। पूर्ण रूप से व्यय को ध्यान रखते हुए अगर हम बात करें तो 1952 के लोक सभा Election में कुल 10.45 करोड़ रुपयों का खर्च आया था, जबकि इसके मुकाबले 2009 के Lok Sabha Election में 1,483 करोड़ की भरी भरकम राशि सरकार द्वारा खर्च की गई थी।

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2009 का लोक सभा इलेक्शन अब तक का सबसे खर्चीला Election था पर ये आंकड़ा भी पिछले 2014 के Election में पार हो गया। Election Commission द्वारा प्राप्त आंकड़ों के अनुसार 2014 के Lok Sabha इलेक्शन को अब तक सबसे महंगे इलेक्शन के तौर पे देखा जाता है जिसमें कुल 3,426 करोड़ की लागत आयी थी जो विगत 2009 के आम चुनाव के मुक़ाबले 131% प्रतिशत अधिक थी।

ये भारी भरकम चुनावी आंकड़े बता रहे हैं कि किस प्रकार सरकारी खजाने का दुरूपयोग किया जा रहा है जिसमें मासूम जनता की गाढ़ी कमाई भी हिस्सा है। चुनाव प्रचार-प्रसार में हर राजनीतिक दल अपनी पूरी ताकत लगाये बैठा है, ये मानकर कि वो ही सत्ता में आयेगा जिसकी वजह से धन का दुरूपयोग हो रहा है; Election Commission भी यहाँ बेसहारा और बेजान सा दिखाई पड़ता है। उपयुक्त सभी आंकड़े तो सिर्फ इलेक्शन कॉमिशन द्वारा प्रस्तुत किये गये हैं पर इन खर्चो के आलावा और भी खर्च हैं जिनका कोई हिसाब ही नहीं है। आखिर क्या जरूरत है इनते पैसे को बर्बाद करने की ; काश इन पैसों को जन कल्याण में लगाया जाता तो भारत सामाजिक, आर्थिक रूप से और मजबूत होता। राजनीतिक दलों को केवल सत्ता का लोभ दिखाई देता है उन्हें देश की जनता एवं विकास से क्या लेना देना।

चुनाव प्रचार का आलम ये है कि राजनीतिक पार्टियों नें कोई भी माध्यम नहीं छोड़ा है – टी वी, रेडियो, मोबाइल, इन्टरनेट, बैनर, होर्डिंग, अखबार एवं अन्य कई माध्यमों का उपयोग किया जा रहा है जिसके लिए सारी राजनीतिक पार्टियों नें प्रचार से जुड़े विशेषज्ञों की टीम भी बना रखी है जो इस काम के मोटे पैसे लेते हैं। खर्चीले मंच, हेलीकाप्टर, जांच दल, सुरक्षा एजेंसी, फ़िल्मी कलाकार व पुलिस इत्यादि पर होने वाले व्यय कि कोई सीमा नहीं है। दिनों-दिन बढ़ती चुनावी भव्यता जिसके कारण ईमानदार और स्वच्छ चरित्र के प्रत्याशी Election में हिस्सा नहीं ले पा रहे हैं क्योंकि उनके पास उतना पैसा ही नहीं है कि वो अपने प्रचार में इतना अत्यधिक व्यय कर पाएं। चुनाव में बढ़ते हुये पैसों का बोल-बाला बेईमान लोगों को System में आने का पूरा मौका दे रहा है जहाँ वो आकर अपनी काली कमाई को भी सफ़ेद कर रहे हैं।

मौजूदा हालातों को देखकर यही कहा जा सकता है की राजनिति में सिद्धान्त अब नहीं रहे या जो सिद्धान्तवादी है वो राजनिति में नहीं आना चाहते। हर पार्टी में ज्यादातर ऐसे ही प्रत्याशी हैं जिनके ऊपर गंभीर अपराधिक आरोप हैं, जो किसी न किसी जुर्म में जेल की हवा भी खा चुके हैं। ईमानदार लोगों का राजनीति में ना आना भविष्य के लिए और देश हित में सही नहीं है अगर ऐसे ही चलता रहा तो सबकुछ पूंजीपतियों के अधीन होकर रह जायेगा और देश की आम जनता उनकी ग़ुलामी करती रहेगी।