इंदु सरकार – हिंदी फिल्म समीक्षा
कलाकार – कृति कुल्हारी , तोता रॉय चौधरी, अनुपम खेर , नील नितिन मुकेश
निर्देशक – मधुर भंडारकर
लेखक – मधुर भंडारकर
संगीत – अनु मलिक
टाइप – ड्रामा
अवधि – 2 घंटा 18 मिनट
सर्टिफिकेट – U/A
फिल्म के निर्देशक मधुर भंडारकर महिला प्रधान फिल्मों के लिए जाने जाते हैं जैसे – पेज 3, फैशन और हिरोइन आदि । मधुर भंडारकर की पिछली फिल्में बड़े परदे पर कुछ खास नहीं कर पाईं थी क्योंकि हिरोइन और कैलेंडर गर्ल दोनों लगभग एक ही जैसी फिल्में थीं जिसे दर्शकों नें सिरे से नकार दिया। इस बार भी उनकी फिल्म का मुख्य किरदार महिला ही है, अपनी कल्पना को उन्होंने इंदिरा गाँधी के राज़ में लगे लगभग 20 महीने के आपातकाल के साथ जोड़ दिया है। फिल्म काल्पनिक है फिर भी आपातकाल की दायें ताज़ा कर जाती है।
इंदु सरकार की कहानी:
फिल्म की कहानी है अनाथ इंदु सरकार (कृति कुल्हारी) की है , जो हकलाती है और अपने ख़याल अपनी व् भावना किसी से व्यक्त नहीं कर पाती इसलिए वो कवियत्री बन जाती है । इंदु की शादी नवीन सरकार (तोता रॉय चौधरी) से होती है , नवीन इंदु को सुनता है समझता है, सपने दिखाता है लेकिन सपनों को पंख लगने से पहले उन पर आपातकाल का ग्रहण लग जाता है । ये ग्रहण भारत को बदलने की कोशिश करता है ; जबरदस्ती नसबंदी शुरु हो जाती है, झुग्गीयों पर बुलडोज़र चलवा दिये जाते हैं, लोग मरने लगते हैं, बच्चे अनाथ हो जाते हैं । लेकिन इंदु का पति नवीन सरकारी अधिकारी है इस वजह से इंदु का जीवन प्रभावित नहीं होता; अनाथ होने का दर्द इंदु समझती है क्योंकि उसने उस जीवन को जीया है । नवीन लाला के मुन्शी की तरह सरकार का काम पूरी निष्ठा से कर रहा है उसे कुछ गलत नज़र नहीं आता । उसके आस – पास (नेता ,अधिकारी) सब खुश हैं इंदु को भी वो समझाता है लेकिन वो अलग रास्ता चुनती है नैतिकता का फिर पति – पत्नी के बीच में जो टकराव शुरू होता है वो इतना बढ़ जाता है कि इंदु आपातकाल के खिलाफ खड़ी हो जाती है । उस समय विपक्ष के नेता नाना जी (अनुपम खेर) हैं । इंदु जीत जाती है या हार जाती है ये देखने के लिए सिनेमा हॉल की कुर्सी तक जाना होगा ।
कलाकारों का अभिनय:
कृति कुल्हारी ने पिंक फिल्म के बाद एक बार फिर ये साबित किया है कि वो एक टिपिकल बॉलीवुड हिरोइन नहीं है जो सुन्दर , लम्बी होती हैं और गजब का डांस करती हैं लेकिन अभिनय से दूर होती हैं । कृति कुल्हारी अलग हैं, उनका अभिनय दमदार है ये बात उन्होंने पिंक के बाद इंदु सरकार में फिर साबित की है । तोता रॉय चौधरी नें उनका अच्छा साथ दिया है, अनुपम खेर जी के लिए ज्यादा सीन नहीं थे जो उनको मिला वो उन्होंने बखूबी किया । नील नितिन मुकेश संजय गाँधी बनें हैं पर विवाद की वजह से किरदार छोटा किया गया है जिसे वो अच्छे निभा ले गये हैं ।
इंदु सरकार फिल्म समीक्षा पर एक नजर:
मधुर भंडारकर कि कलम को अगर राजनीति कि डोर से न बांधा गया होता तो यक़ीनन यह फिल्म और मजबूत बनती । पर हुकूमत चलाने वालों को अपनी छवि धूमिल होती नजर आ रही थी लिहाजा मधुर नें अपनी कलम को थोड़ा कस कर पकड़ लिया । आपातकाल में जो हुआ वो करने से पहले छवि की फ़िक्र नहीं की गयी थी उस ज़माने के हुकमरानों द्वारा ; उनको छवि आज याद आई है । भला हो कोर्ट का कि फिल्म रिलीज़ हुयी लेकिन अगर मधुर कि कलम आज़ाद होती तो परदे पर दृश्य कुछ अलग ही उभर कर आता । राजनीति की वजह से ज्यादा कहानी इंदु और नवीन के इर्द गिर्द होते हुए भी ये एहसास दिला जाती है कि इंदु लड़ाई लड़ रही है एक आज़ादी के बाद दूसरी आज़ादी के लिए। फिल्म थोड़ी और खामियां हैं जैसे अनुपम खेर का किरदार छोटा क्यों रखा गया है ? इसका विस्तार तो संभव था और विपक्ष में नैतिकता कूट – कूट के भरी गयी है जो गले नहीं उतरती । फिर भी अगर आप इंदु सरकार देखने जायेंगे तो निराश वापस नहीं आयेंगे; चलिये टिकट कटा ही लीजीए इंदु की लड़ाई में साथ देने के लिए फिल्म इंदु सरकार के साथ ।