लिप्सटिक अंडर माई बुर्का Lipstick Under My Burkha – Censor Board और विवाद, क्या जरूरी है फिल्मों को सेंसर करना

यह कोई पहला मामला नहीं है कि ‘Central Board of Film Certification‘ नें किसी फिल्म के प्रदर्शन को रोका हो। हम अक्सर फिल्म निर्माताओं और Censor Board के बीच होने वाले विवाद को देखते और सुनते आयें हैं। Central Board of Film Certification कोई व्यक्तिगत संस्था नहीं है ये एक सरकारी संस्था है जिसके पास अपने अधिकार हैं । Cinematograph Act, 1952 और Cinematograph Rules, 1983 के तहत बहुत सारे दिशा निर्देश दिये गये हैं कि किस तरह की film को प्रदर्शित किया जाना चाहिए।

Film Directors को अक्सर यह आरोप लगाते सुना जाता है कि Censor Board अपनी मनमानी करता है या उसकी अपनी एक निजी विचारधारा है उसके तहत वो फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाता है। फिल्म निर्माताओं का यह भी कहना है कि उन्हें पूरी आज़ादी मिलनी चाहिए और Censor Board कि विचारधारा उनपर नहीं थोपी जानी चाहिए। एक तरह से देखा जाए तो सेंसर बोर्ड और भारतीय फिल्म निर्माताओं का आपसी सम्बन्ध हंस और लोमड़ी जैसा ही है।

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प्रसिद्ध फिल्म निर्माता प्रकाश झा और CBFC के Chairperson पहलाज निहलानी जी के बीच फिल्म “Lipstick Under My Burkha” को लेकर ताजा विवाद उभर कर सामने आया है – प्रकाश झा जी के साथ पूरा Bollywood खड़ा है तो वही Pahlaj Nihalani जी भी अपने अधिकार को लेकर अड़े हुए हैं।

यहाँ मैं थोड़ा हट के एक बात कहना चाहूँगा – कि अक्सर Censor Board और Film Director के बीच की लड़ाई जब होती है तो Bollywood जगत से जुड़े सारे लोग एकजुट हो जाते हैं; और यही Bollywood के लोग (actors, directors & producers) फिर आपस में लड़ते और कीचड़ उछालते देखे जाते हैं जब इनकी फिल्में एकसाथ प्रदर्शित होती हैं। कोई आरोप लगाता है कि उसने हमसे ज्यादा सिनेमरघर हथिया लिया, कोई कहता है उसने जान बूझ कर हमारी ही date पर फिल्म release कर दी फिर ये एक-एक कर अदालत का दरवाजा खटखटानें निकल पड़ते हैं।

बॉलीवुड अपने द्वारा होनें वाली लड़ाईयों में एकजुटता का परिचय नहीं देता परंतु जब बात Censor Board की आती है तो ये ऐसे बर्ताव करते हैं जैसे कि ये आपस में कितना अच्छा व्यव्हार रखते हों – कुल बात ये है कि अपने पे आये तो इकट्ठा हो जाओ और वर्ना आपस में लड़ते रहो।

Pahlaj Nihalani जी कि दलीलों को अगर हम ध्यान से सुनें तो उनकी बात को भी झुठलाया नहीं जा सकता : “संस्था केवल फिल्म को प्रमाणपत्र देने के लिए जिम्मेदार नहीं है , ये संस्था भारतीय संस्कृति एवं परम्परा के प्रति भी जवाबदेह है। ” यह बात उन्होंने Prakash Jha कि मौजूदा फिल्म Lipstick Under My Burkha को लेकर कहा।

उधर Prakash Jha जी का कहना है कि: “फिल्म उद्योग तब तक इन समस्याओं का सामना करता रहेगा जबतक कुछ लोगों को फिल्म को सेंसर करनें की आज़ादी रहेगी।”

हालांकि मैं इस विषय में अपना judgement देना नहीं चाहूँगा क्योंकि यह काम हमारी अदालतों का है – मेरा केवल अभिप्रायः यह है कि Film content को दिखाने की सम्पूर्ण आज़ादी का वास्तविक अर्थ क्या है ? क्या वास्तव में हमारे फिल्मकारों को देश की परंपरा व संस्कृति के प्रति कोई जिम्मेदारी है ही नहीं ?

मेरा यह लेख किसी को सही या गलत साबित करने का प्रयास नहीं है बल्कि एक नजरिया है या यूँ कहें की एक समीक्षा है :

लिप्सटिक अंडर माई बुर्का, चूँकि ये फिल्म अभी प्रदर्शित नहीं हुयी है तो इस विषय में ज्यादा बात नहीं की जा सकती कि फिल्म वास्तव में इतनी बुरी है की उसको प्रमाणित ना किया जाये। हालांकि इसके ट्रेलर online available हैं जिनको देख कर कुछ बातें तो कही जा सकतीं है।

अभिव्यक्ति की आज़ादी चाहे मौखिक रूप से हो या फिर किसी चित्र व चलचित्र के माध्यम से, सभी रूपों में इसकी सीमा तय होनी चाहिए वर्ना ये विवाद पैदा करता ही रहेगा ;क्योंकि अभिव्यक्ति की आज़ादी सिर्फ एक व्यक्ति के लिये नहीं हो सकती ; अभिव्यक्ति की आज़ादी सबके ऊपर लागू होती है यानि कि मैं भी आज़ाद और आप भी आज़ाद फिर दोषी कौन ? आप या मैं ? अर्थात मूल विषय नष्ट हो जाता है और केवल बच जाता है आज़ादी का राग

हमारे भारतीय फिल्म निर्माताओं-निर्देशकों का सेंसर बोर्ड के साथ बढ़ता गतिरोध का एक पहलु ये भी दर्शाता है कि हमारे निर्माता Central Board of Film Certification के साथ समन्वय नहीं स्थापित कर पा रहे हैं। हमारे फिल्म निर्माता खुद को मॉडर्न, बौद्धिक और उदारवादी कहलाने की चाहत में विषय कि नैतिकता को भी झुठलाना चाहते हैं। हमारे निर्माता यह चाहते हैं कि उनकी किसी भी प्रकार की फिल्म को प्रमाणित कर दिया जाए बजाय कि उसमें किसी तरह कि कांट-छांट हो। आखिर उनकी ये मांग क्यों है कि केवल उन्हें certificate ही चाहिये , अगर केवल certificate ही चाहिए तो फिर सरकार को censor board की संस्था को बंद कर देना चाहिये। फिल्म निर्माता फिल्म बनाएं और अपने को खुद प्रमाणित करें फिर अपनी फिल्में release करें।

हक़ीक़त यह है कि हमारे फिल्म निर्माता western culture और Hollywood में बनने वाली फिल्मों से इसकदर प्रभावित होते जा रहे हैं कि वो उनके अनुरूप की फिल्मों को हमारे यहाँ भी दिखाना चाहते हैं मगर वे भूल जाते हैं कि वहाँ के कानून अलग हैं , वहाँ की society में खुलापन तो जगजाहिर है और वहाँ ये सब जायज़ भी है कि आप परदे में नग्नता को दिखा सकें (शायद वहाँ के फ़िल्मी कानून उनको इजाजत देते हों). खैर हमारे फिल्म निर्माता ये समझें कि जिस आज़ादी और खुलेपन की मांग वो कर रहे हैं उसमें देश की परंपरा भी बरकरार रहे उसके साथ खिलवाड़ न हो क्योंकि फिर भारतीय cinema अपनी मूल पहचान खोकर केवल विदेशी फिल्मों का अनुसरण करता रह जायेगा।

विगत कुछ वर्षों से हमारी हिन्दी फिल्मों में – गाली गलौच, नग्नता, अश्लील मजाक, फूहड़ दृश्य … इत्यादि को फिल्मानें का एक चलन बन गया है जिसे ये फ़िल्मकार आज़ादी से परिभाषित करते हैं। खैर अब तो ये आजादी भी इनको कम लगनें लगी है क्योंकि अब ये इससे और ज्यादा खुलेपन की मांग कर रहे हैं जिसकी वजह से Censor Board के साथ आपसी टकराव और गहराता ही जा रहा है।

फिल्मकारों को अगर वास्तव में देश की सभ्यता से कोई लेना देना नहीं है तो वो इसे खुलेआम स्वीकार भी करें। महज पैसा कमानें के चक्कर में नग्नता की मांग को रखना इनकी फिल्म निर्माण क्षमता की कमी को भी दिखाता है। हिंदुस्तान एक बहुत बड़ा देश है जहाँ पर इतने गहरे सामाजिक विषय हैं जिनको परदे पर उतारा जा सकता है जहाँ किसी भी प्रकार की अश्लीलता और नग्नता कि कोई आवश्यकता भी नहीं हैं पर उसके बावजूद निर्माताओं कि रूचि केवल अनैतिक तत्वों को दिखानें में है जिसके माध्यम से दर्शकों को बटोरा जा सके और अपनी झोली पैसों से भरी जा सके। सही विषयों के चुनने का आभाव, गहरे विचार का आभाव, सामाजिक दृश्कोंण का आभाव, निर्माण क्षमता का आभाव जिसे ये निर्माता स्वीकार नहीं करना चाहते और उससे निपटनें के चक्कर में ये सिर्फ फूहड़ता का सहारा लेना चाहते हैं।

यह वही देश है जहाँ फिल्में सिल्वर जुबली और गोल्डन जुबली हुई हैं जरा उनको उठाकर देखें की उन फिल्मों में ऐसा क्या था। अंतर बस इतना है कि हमारे पुरानें फिल्म निर्माताओं का भारतीय समाज और इसके असल ढांचे की जानकारी उनको अच्छी थी उसके विपरीत आज के निर्माताओं में इसका घोर आभाव देखनें को मिलता है। इन तमाम बातों के साथ मैं बस इतना ही कहूँगा की हां सच में – भारतीय censor board को समय के अनुरूप थोड़ा modern होना चाहिये पर यदि कोई नैतिकता कि लक्ष्मण रेखा को लाँघने की मांग को रखे तो उसे रोकने की कोशिश भी होनी चाहिये।