मजदूरों को मिले जीवन परामर्श
मजदूरों को मिले जीवन परामर्श
कोरोना महामारी (कोविड-19) के तहत देश 25 मार्च 2020 से लॉकडाउन में है।
लॉकडाउन जनहित को ध्यान में रखकर जारी किया गया ताकि स्वस्थ लोगों की जान Covid-19 नाम की बिमारी से बचाई जा सके। चूँकि कोरोना एक संक्रामक रोग है जो एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में ट्रांसफर हो जाता है, ऐसे में भारत सरकार के पास पूर्ण लॉकडाउन के सिवाय अन्य कोई रास्ता नहीं बचा था।
भारत एक सघन आबादी वाला विशाल देश है। देश के लोग एक राज्य से दूसरे राज्य में लाखों की तादात में रहते हैं। विशेषकर उत्तर प्रदेश एवं बिहार राज्य के लोग देश के अन्य राज्यों में ज्यादातर पाये जाते हैं। सच कहूं तो उत्तर प्रदेश और बिहार भारत के 2 ऐसे राज्य हैं जो सस्ते एवं महंगे हर प्रकार के लेबर मुहैया कराते हैं।
कोरोना महामारी के बीच लगाया गया लॉकडाउन सस्ते लेबरों के लिए पहाड़ बनकर टूटा है।
सस्ते लेबर से मेरा अभिप्राय है दिहाड़ी मजदूर, जो रोजाना काम करते हैं और खाते हैं। 4 लाख, 5 लाख, 10 लाख जैसी भारी तादात में ये मजदूर यूपी-बिहार स्थित दूर अपना गांव छोड़कर जीविका की तलाश में दिल्ली, महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों में आते हैं।
25 मार्च को देश लॉकडाउन में जाता है और मात्र दो हफ्ते के बाद ही मजदूरों का पलायन शुरू हो जाता है।
इतनी जल्दी मजदूरों का अपने घर की ओर पलायन कर देना मुझे हैरत में डाल देता है। मैं सोचने पर विवश हो उठता हूँ कि आखिर 2 हफ्ते में ही मजदूर घर की ओर क्यों रवाना हो जाना चाहते हैं !! 15 अप्रैल के बाद से तो स्थिति और भयावह हो जाती है, अलग-अलग राज्यों में कार्य के लिए गए लाखों मजदूर घर प्रस्थान को लेकर व्याकुल हो उठते हैं और ‘लॉकडाउन‘ के संपूर्ण प्रयासों पर पानी फेर देते हैं।
मैं इस पूरे घटनाक्रम के राजनीतिक कारणों में नहीं जाना चाहता।
मैं केवल व्यक्ति तक ही केंद्रित रहना चाहता हूँ। अपने पिता, माता, भाई, पत्नी एवं बच्चों के साथ घर वापसी करते मजदूर मात्र 2 से 3 हफ्ते में ही क्यों बेचैन हो उठे ! कई सालों तक दूसरे राज्यों में कार्यरत मजदूर परिवार आखिर 2 सप्ताह में पलायन पर क्यों उतारू हो गये !
मैं देख रहा हूँ सोशल मीडिया पर लोग डिजिटल आँसू बहा रहे हैं मजदूरों के लिए।
पर मैं हर विषय को करुणा, दया व भावना के रूप में नहीं लेता। जीवन के कुछ अपने मूल सिद्धांत होते हैं जिन्हें अगर आप नज़रअंदाज़ करके चलेंगे तो अंजाम बुरा ही होगा।
मैं मजदूरों की मौजदा स्थिति पर भावुक नहीं हूँ, ना ही मुझे उनके प्रति कोई दया है। मेरी बातें सुनकर आप मुझसे नफरत कर सकते हैं किन्तु मजदूरों के प्रति आप भी दयालु नहीं हैं। हां मेरे और आप में अंतर केवल यही है की आप उनकी सूखी रोटी के टुकड़े, पैरों के छाले, बिलखती आँखें, और उनके मासूम बच्चों की HD Photography करके फेसबुक पर शेयर कर रहे हैं। किन्तु मेरा इसमें कोई रुझान नहीं; कहा न मुझे मजदूरों से कोई प्रेम नहीं। आप भी केवल दया का नाटक सोशल मीडिया पर कर रहे हैं और आनंद पूर्वक अपने घर में पकवान एवं फिल्मों का लुफ्त उठा रहे हैं।
मैंने देखा, कुछ सोशल वर्कर टाइप के लोग मजदूर परिवारों को खाना बाँट रहे हैं। मैं इस प्रकार की गतिविधियों का सम्मान करता हूँ पर फिर भी मुझे मजदूरों पर कोई तरस नहीं आता।
- क्या आप मुझे ये बता सकते हैं, ऐसे कितने मजदूर हैं जिनको आप बचपन में देखते थे और वे आज भी मजदूर ही हैं ?
- क्या आप मुझे बता सकते हैं, ऐसे कितने मजदूर हैं जिनके पिता भी मजदूर थे ?
- क्या आप मुझे बता सकते हैं, ऐसे कितने मजदूर हैं जिनके बेटे भी आज मजदूर हैं ?
- मजदूर का पिता मजदूर
- मजदूर का भाई मजदूर
- मजदूर की बहन मजदूर
- मजदूर का जीजा मजदूर
- मजदूर का साला मजदूर
- मजदूर का बेटा मजदूर
- मजदूर की पत्नी मजदूर
अगर आप मजदूर परिवारों में झाँक कर देखें तो इनकी यही स्थिति है। पीढ़ी दर पीढ़ी केवल मजदूरी का पेशा अपनाते जा रहे हैं वो भी तब, जब ये कई सालों तक या एक पूरी पीढ़ी गुजर जाने तक दूसरे बड़े राज्यों कार्य करते हैं।
भारत में मजदूर सल्तनत का यूँ पीढ़ी-दर-पीढ़ी मजदूर बने रहना मुझे इनके प्रति ‘खीज‘ पैदा करता है।
सरकरी तंत्र की खामियां कुछ हो सकती हैं किन्तु पीढ़ी-दर-पीढ़ी इनका मजदूर बने रहना इनका अपने जीवन के प्रति जागरूकता को उजागर करता है। क्या ये कुछ सीखते नहीं अपनी मजदूर पीढ़ी से ? क्या ये अतीत में झाँक कर भी नहीं देखते की हमने अब तक क्या पाया और क्या खोया ? क्यों ये कभी अपने हालात में परिवर्तन लाने की कोशिश नहीं करते।
हक़ीकत ये है की अधिकांश मजदूरों ने इसे अपनी नियति माल ली है।
उन्हें लगता है जब मजदूरी का काम आसानी से मिल ही जा रहा है और रोज 400, 500 रुपये आ ही जा रहे हैं तो दिक्कत क्या है !
मुरारी प्रसाद गुप्ता: जिन्होंने ठेला खींचकर, पीठ पर बोरियां ढ़ोकर अपने बेटे संतोष कुमार गुप्ता को आईएएस बनाया।
नारायण जैसवाल: रिक्शा चलाते थे किन्तु अपने बेटे गोविन्द जैसवाल को पढ़ाकर आईएएस बनाया।
ऊपर लिखे दोनों ही नाम मजदूरों के ही हैं। इन्हें आप अपवाद मानने की गलती ना करें क्योंकि नाम कई हैं जिनका मैं उल्लेख नहीं कर सकता। देश में 98% मजदूरों ने यह स्वीकार लिया है की मजदूरी करना उनकी नियति है। उनका अपने जीवन के प्रति कोई उद्देश्य नहीं, न अपने बच्चों के प्रति कोई कर्तव्य है।
यक़ीनन आईएएस, पीसीएस एक बड़ा लक्ष्य है; हो सकता है यह किस्मत की बात हो।
पर क्या दसवीं-बारहवीं पढ़ाना भी बड़ा लक्ष्य है ? क्या मजदूर 10वीं-12वीं भी नहीं पढ़ा सकते अपने बेटे बेटी को ? मेरा तो मानना है कि साधारण ग्रेजुएशन भी अत्यंत सरलता से ये पूरा करा सकते हैं।
‘मजदूर’ टाइटल के पीछे छुपने से काम नहीं चलेगा।
देश के हर मजदूर को अपने बच्चों एवं स्वयं के प्रति जागरूक होना ही पड़ेगा। नहीं बन सकता हर कोई आईएएस, मैं जानता हूँ पर कोई कार मैकेनिक तो बन सकता है, कोई मोटर मैकेनिक तो बन सकता है। सेना पुलिस जवान आदि में भर्ती के प्रयास तो कर सकता है। छोटी-मोटी टेक्निकल कंप्यूटर स्किल सीखकर किसी ऑफिस में तो बैठ सकता है। अनेकों ऐसे कार्य हैं जिनसे जुड़कर मजदूर तबका अपने आने वाली पीढ़ी को ग़ुरबत से बाहर निकाल सकता है मगर वे ऐसा नहीं करेंगे।
बात करते हैं पैसों की:
एक दिन की दिहाड़ी 400 रुपये, महीने के हो गए 12000
400 रुपये का 10% हो गए कुल 40 रुपये।
क्या मजदूर प्रतिदिन अपनी कमाई से 40 रूपया भी नहीं बचा सकता ! अरे 400 रुपये प्रतिदिन तो हमारे और आपके जैसे परिवार के लोग खर्च नहीं करते। अतः, 40 रुपये प्रतिदिन बचत के हिसाब से हो गया 1200 महीना।
अगर मजदूर महीने का 1200 रूपया बचा ले तो कुल 14400 रुपये की सालाना बचत होगी।
यह बेहद सामान्य राशि है इसे बचाने में कोई कठिनाई नहीं। अगर मजदूर इस राशि को 15 साल के लिए PPF में जमा करे तो पंद्रह साल बाद यह छोटी राशि कुल 216,000 की हो जाएगी जिसपर 7.1% से ब्याज भी मिलेगा जिसकी रक़म होगी 174,547, यदि एक साधारण मजदूर अपने जीवन में बचत अनुशासन का पालन करे तो उसके पास कुल 390,547 जैसा विशाल रक़म जमा होगा 15 साल में।
ऊपर दिया आंकड़ा केवल 1 व्यक्ति का है। यदि मजदूर की पत्नी एवं पुत्र की राशि को भी इस बचत में शामिल करें तो कुल प्राप्त रूपया उनको मजदूरी के दलदल से हमेशा के लिए बाहर निकाल देगा वो भी मात्र 15 साल के अंदर।
सामान्य परिवार के बच्चे तो 24 बरस की अवस्था तक शिक्षा ही ग्रहण करते हैं किन्तु मजदूर का बच्चा लगभग 17-18 वर्ष की उम्र से पैसे कमाने लग जाता है। अतः 33 वर्ष में आकर वह 390,547 जैसी रक़म का मालिक बन सकता है।
यह कैलकुलेशन मैंने पीपीएफ के आधार पर किया है किन्तु आप जानते हैं बचत एवं निवेश के अन्य कई बड़े तरीके मौजूद हैं। देश में सरकार द्वारा गरीबी रेखा के नीचे जीने वाले लोगों के लिए बेहतर बचत स्कीम होती है एवं अनेक सुविधायें भी।
जीवन परामर्श:
देश में उपस्थित मजदूर समाज अपने ही जीवन के प्रति उदासीन है।
न तो कोई उसे जीवन के सन्दर्भ में परामर्श देता है, और यदि कभी किसी ने दे भी दिया तो ये स्वीकार नहीं करते। फिर भी मेरा मानना है मजदूर परिवार को Life Counseling की बहुत आवश्यकता है। छोटे मजदूरों के पैसे अनियंत्रित रूप से बर्बाद हो जाते हैं किन्तु मजदूरों को जीवन परामर्श की योजना देकर उनके पैसों को बड़ा बनाया जा सकता है जो उनके तो काम आयेगा ही एवं सरकार के अर्थतंत्र को भी मजबूत बनायेगा। अभी भी मजदूर परिवार बैंक और बचत जैसे जरूरी विषय से मीलों दूर हैं। जनधन योजना को इसी लक्ष्य के साथ उतारा गया मगर समस्या यह है की बात मजदूरों को समझाया कैसे जाय !
कोई तो हो जो इन मजदूरों को उनके कठिन परिश्रम से प्राप्त हुए पैसों का सही इस्तेमाल समझाए।
मैंने ऊपर जो PPF का आंकड़ा बताया है उसी आंकड़े के अनुसार ये अपने पैसों को बर्बाद कर डालते हैं। मदिरा, पान, तंबाकू, बीड़ी का सेवन करने में दिन के 40 रुपये से ज्यादा खर्च होते हैं। अतः ये कहना गलत नहीं होगा की 400 रुपये प्रतिदिन कमाने वाला एक दिहाड़ी मजदूर 15 साल बाद 4 लाख से ज्यादा की रक़म बर्बाद कर चुका होता है।
मुझे लगता है इनके लिए बचत एक अनिवार्य विषय बनाया जाना चाहिए सरकार द्वारा।
सालों, पीढ़ी-दर-पीढ़ी मजदूरी करने के बावजूद इनके पास कोई बचत राशि नहीं होती। अतः 2 हफ्ते का लॉकडाउन भी इनके लिए पहाड़ सी मुसीबत बन जाता है और ये दूसरे के आगे हाँथ फ़ैलाने लग जाते हैं एवं घर वापसी की ओर निकल पड़ते हैं; जहाँ जाकर भी इनको कुछ प्राप्त नहीं होने वाला।
इन्हें जरूरत है जीवन परामर्श की, आय किये पैसों को बचाने की, अपने बच्चों को शिक्षित कर मजदूरी के दलदल से बाहर निकालने की। जब तक समाज इनकी वैचारिक मदद नहीं करेगा तब तक ये मजदूर यूँ ही हाथ फैलाते नज़र आयेंगे। इन्हें आपके द्वारा दिए जाने वाले खाने की आवश्यकता नहीं, आप बस इनकी वैचारिक मदद करें। मजदूर कमजोर नहीं होते, वे तो अपने हाथ से लोहे और पत्थर को तोड़ डालते हैं। उनमें शारीरिक जान बहुत है मगर वैचारिक जान नहीं।
मुसीबत की इस घड़ी में फ़िलहाल उनको मदद की आवश्यकता है किन्तु सबसे अधिक मदद की आवश्यकता उनको तब होगी जब पुनः उनका जीवन पटरी पर लौट आयेगा। एक जिम्मेदार नागरिक की तरह आप इनको जीवन परामर्श दें। नहीं तो, आज इनकी गोद में बैठा नन्हा बच्चा कल बड़ा होकर पुनः अपने बच्चे को गोद में लेकर पलायन करता नज़र आयेगा।
कुतर्क:
मैं जब इस प्रकार की बातें करता हूँ तो मुझसे कुछ लोग कुतर्क पर उतारू हो जाते हैं।
कोई कहता है क्या नशा-पान करने का अधिकार केवल पैसे वाले को ही है ? क्या रोज मांस खाने का अधिकार केवल पैसे वाले को ही है ?
मैं उनको उत्तर देता हूँ, जी बिल्कुल नहीं।
मगर याद रखें, पलायन केवल मजदूर का ही होगा पैसे वाले का नहीं।
नशा-पान तो किसी के लिए भी अच्छा नहीं है चाहे वह राजा हो या रंक। पर यदि किसी को नशा करना ही है तो करे मगर अपने जीवन के प्रति उदासीन ना रहे। आप हर वक़्त बेचारा बनकर नहीं रह सकते, आपको मजबूती से जीवन की नाव को मजधार से निकालना होगा जैसा कुछ लोगों ने किया भी है।
मैं फिर कहता हूँ,
मैं मजदूरों की वर्तमान स्थिति देखकर तनिक भी व्यथित नहीं। इस स्थिति को उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है आज से नहीं बल्कि पिछली कई पीढ़ियों से। उन्हें इस श्रंखला को तोड़ना होगा, खुद को मजदूर नामक शब्द से ऊपर उठाना होगा। यकीन मानिये यह तनिक भी मुश्किल कार्य नहीं बस उन्हें उचित ‘जीवन परामर्श‘ मिले।
प्रेरणा एवं मार्गदर्शन की आवश्यकता तो पढ़े से पढ़े व्यक्ति को होती ऐसे में मजदूर का भी पूरा हक़ बनता है कि कोई उसके जीवन का मार्गदर्शन करे ताकि वो आज से अगले 15 साल बाद अपने नाम से जुड़े मजदूर शब्द को हमेशा के लिए मिटा सके।
लेखक:
रवि प्रकाश शर्मा