Nari Jagat Ki Janani – नारी जगत की जननी है Women in India
” नारी जगत की जननी ” ये पंक्ति नारी के सम्मान में कही जाती है। हिन्दू पुराणों में, ग्रंथो में और हिन्दू धर्म में नारी को पूज्यनीय माना गया है। परंतु आज इसी समाज में नारी प्रतिदिन उपेछित होती जा रही है , उत्पीड़न का शिकार होती जा रही है तो क्या हम ” नारी जगत की जननी ” को सच में साकार कर रहे हैं ? ये एक प्रश्न चिन्ह बन के रह गया है ; आज मैं इसी बिंदु पे बात करना चाहूंगा।
निचे दिए गए चित्र को अगर आप ध्यान से देखें तो ये निश्चित ही नारी के प्रति सम्मान को नहीं दर्शाता; इसमें हमारे हिंदुस्तानी समाज का नजरिया स्पष्ट दिखाई देता है। एक गर्भवती महिला जिसे अपनी गर्भावस्था में भी दूसरे कि ख़ुशी और अपना भरण पोषण करने के लिए काम करना पड़ता है ; अपने गर्भ कि पीड़ा को भुलाकर उसे दूसरे कि खुशियों में शरीख होना पड़ता है।
मैं क्या कहूं – इसे उसकी बाध्यता कहूं या फिर समाज की उपेच्छा ; खास बात ये है कि उसके आस – पास समृद्ध महिलाओ का जमवाड़ा भी स्पष्ट दिखाई दे रहा है पर वो समृद्ध महिलायें भी एक गरीब महिला कि व्यथा को नहीं समझ पा रहीं हैं।
इस प्रकार के कई दृश्य हमें हमारे समाज में नित रोज देखनें को मिलते हैं पर हम चुप और खामोश रह कर सब कुछ देखते रहते हैं, बजाय कि इसको रोकने और लोगों को जागरूक करनें का प्रयास करें। ये दृश्य है किसी अमीर साहब कि शादी का जरा देखिये उनकी शादी में ये कैसी नुमाइश दिखाई जा रही है पर किसी को क्या फर्क पड़ता है आखिर उन्होनें इस गर्भवती महिला को पैसे जो दिए हैं इस काम के या फिर उसके ठेकेदार को। एक अमीर का दिल कितना छोटा होता है ये हम साफ़ देख सकते हैं। बारात के नाच गानें में साहब और अन्य साहिबायें इसकदर मशगूल हैं कि वो एक महिला कि लाचारी भी नहीं देख पा रहे हैं। बारात के बाजों और गानों का शोर उस महिला के गर्भ में पल रहे बच्चे के मष्तिष्क पे कितना असर डाल रहा होगा इस बात का अंदाज़ा स्वयं उस महिला को भी नहीं होगा तो फिर मैं बाकी वहां मौजूद लोगों को क्या कहूं वो तो अंधे हो चुके हैं।
हम अपनी ख़ुशी में इतना मशगूल क्यों हो जाते हैं की किसी का दुःख नहीं देख पाते , ये उन साहब और वहां मौजूद तमाम लोगों का कर्तव्य था कि उस महिला को इस गृड़ित कार्य करने से रोकते। अरे उनके लिए तो ख़ुशी का दिन था अपनी ख़ुशी से उस महिला की मदद कर देते उसका मेहनताना देकर कहते कि बहन ये बोझ मत उठा। कितने उदासीन हो चुके हैं हम, लाखों खर्च कर देते हैं हम अपनी शादियों में पर किसी मजबूर कि जरूरत को पूरा करने का दम नहीं रखते।
यहाँ मैं इस महिला के पति को भी दोषी मानत हूं जो इसे इस हाल में भी कार्य करने को बाध्य करता है। पर वो तो गरीब है होगी कोई उसकी भी मजबूरी जो उसे कमजोर बना दी होगी कि अपनी पत्नी को इस अवस्था में भी वो कार्य करने से रोक ना पाया हो। यहीं तो हमारे समाज का दायित्व बनता है कि वो आगे आये और मदद करे। हमारी एक छोटी सहायता किसी को परम सुख प्रदान कर सकती है तो क्यों न हम मददगार बनें, किसी के सहायक बनें और अपनी खुशिओं के साथ – साथ दूसरे के दामन में भी खुशियां फैलायें।
मेरा ये लेख मेरी अपनी सोच है बस समाज को जागरूक करने का एक प्रयास है। आप आज़ाद हैं और अपना फैसला खुद ले सकते हैं।