रामधारी सिंह दिनकर जीवनी – राष्ट्र कवी रामधारी हिंदी साहित्य का सूरज
रामधारी सिंह दिनकर हिन्दी साहित्य के प्रमुख लेखकों में से एक थे। राष्ट्र कवि दिनकर जी अपनी श्रेष्ट रचनाओं के साथ एक ‘वीर रस’ के कवि माने गये।
बिहार प्रांत के ‘बेगूसराय जिले’ का सिमरिया घाट रामधारी सिंह दिनकर जी की जन्मस्थली है। आपने इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से प्राप्त की। साहित्य के रूप में आपने संस्कृत, बंग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था। प्रसिद्ध काव्य संग्रह उर्वशी के लिए आपको ज्ञानपीठ पुरस्कार ने नवाज़ा गया।
जीवन परिचय:
नाम: रामधारी सिंह
जन्म: 23 सितम्बर 1908
जन्म स्थान: ग्राम सिमरिया, जिला बेगूसराय, बिहार, भारत
पत्नी का नाम: सामवती
पिता का नाम: रवि सिंह
माता का नाम: मनरूप देवी
उपनाम: दिनकर
प्रमुख कृतियों के नाम:
कुरुक्षेत्र, उर्वशी, रेणुका, रश्मिरथी, द्वंदगीत, बापू, धूप छाँह, मिर्च का मज़ा, सूरज का ब्याह
निधन: 24 अप्रैल 1974
दिनकर जी ने पटना विश्वविद्यालय से बी.ए की परीक्षा उत्तीर्ण की और उसके उपरांत वे एक विद्यालय में अध्यापन करने लगे। दिनकर जी का कार्य क्षेत्र यहीं न रुका, सन 1934 से 1947 के बीच बिहार सरकार की सेवा में सब-रजिस्टार और प्रचार विभाग के पदों पर भी कार्य किया। आगे 1950 से लेकर 1952 तक मुजफ्फरपुर कालेज में हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे। दिनकर जी के जीवन की यह गति बरक़रार रही और आगे चलकर ‘भागलपुर विश्वविद्यालय’ के उपकुलपति का पद और उसके बाद भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार का पदभार संभाला।
रामधारी छायावाद के बाद के कवि थे, या यूँ भी कह सकते हैं कि वे छायावाद के गर्भ से निकले हुए कवि थे। रामधारी सिंह दिनकर जी की रचनायें व कृतियां राष्ट्र प्रेम और राष्ट्र भावना से प्रेरित थी। जीवन में जोश भर देने वाली क्रांतिपूर्ण संघर्षमयी ओजस्वी काव्य रचनाओं के कारण आपको राष्ट्र कवि का सम्मान प्राप्त हुआ। काव्य लेखक होने के बावजूद आप भारत की स्वतंत्रता के पश्चात् गद्य लेखन की ओर उन्मुख हो गये।
“सरस्वती की जवानी कविता है और उसका बुढ़ापा दर्शन है” – यह कथन रामधारीसिंह दिनकर जी का है।
स्वतंत्रता पूर्व रामधारीसिंह दिनकर एक विद्रोही कवि के रूप में पहचाने जाते थे किन्तु स्वतंत्रता के बाद वे राष्ट्रकवि के रूप में पहचाने गये। दिनकर कि कविताओं में एक तरफ ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति है तो दूसरी तरफ कोमल श्रृंगारिक भावनायें। रामधारीसिंह की इस विविधता का निचोड़ उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में देखने को मिलता है।
पारिवारिक स्थिति:
रामधारी सिंह दिनकर किसान परिवार से ताल्लुक़ात रखते थे। रामधारी के 2 भाई और थे जिनका नाम बसंत सिंह और सत्य नारायण सिंह था। रामधारी को घर में सभी प्यार से ‘ननुआ’ बुलाते थे। रामधारीसिंह के 2 बेटे और 2 बेटियां हुयीं जिसमें से बड़े बेटे का देहांत हो चुका है। रामधारी का जन्म बिहार के बेगुसराय जिले के सिमरिया ग्राम में हुआ था। सिमरिया, वैसे तो आज यह गांव भारत के अन्य गांवों की तरह काफी शहरी हो गया है किन्तु रामधारी के ज़माने में तो यह बिल्कुल एक साधारण गांव ही हुआ करता था। रामधारी के जन्म के कुछ वर्ष पश्चात् पिता रवि सिंह का देहांत हो गया। घर कि सारी जिम्मेदारी माँ मनरूप देवी के कंधों पर आ गयी। खेती पर आधारित इस साधारण परिवार को कई कठिनाइयों से गुजरना पड़ा। कई बार तो खाने पीने की कमी का भी सामना करना पड़ा, किन्तु माता मनरूप देवी ने हार न मानी। रामधारी अपने दोनों भाईयों के साथ सरकारी पाठशाला में पढ़ते थे। मगर आरंभिक पढ़ाई के उपरांत माता मनरूप देवी अपने तीनों बेटों को आगे पढ़ाने में सक्षम न थीं। अतः माता की विवशता को देखते हुए बड़े भाई और छोटे भाई ने मझले भाई रामधारी को आगे पढ़ने की इज़ाज़त दी और खुद को पढ़ाई को बीच में ही छोड़ दिया।
भला आज के ज़माने में ऐसे भाई कहाँ हैं !! खैर, रामधारी का मन पठन-पाठन में खूब लगता। समय निकलता गया, एक तरफ गांधी जी का आंदोलन अंग्रेज़ों भारत छोड़ो तेज़ी से बढ़ रहा था दूसरी ओर रामधारी की मुश्किलें भी बढ़ रहीं थीं। वजह थी, कि वे जिस सरकारी स्कूल में पढ़ रहे थे उसे अँगरेज़ ही चलाते थे। गाँधी जी के असहयोग आंदोलन के तहत देश के सभी लोग अपने बच्चे का नाम उन सभी सरकारी स्कूलों से कटवा रहे थे जिनका संचालन अंग्रेज़ों द्वारा किया जा रहा था। अतः रामधारी को भी अपना स्कूल छोड़ना पड़ा, आगे चलकर उन्होंने दूसरे विद्यालय में दाखिला लिया जिसका संचालन देश के लोग ही करते थे। जैसे-तैसे स्कूली शिक्षा का समापन हुआ मगर रामधारी आगे पढ़ना चाहते थे। भाई की इच्छा देख फिर अन्य दो भाईयों ने रामधारी को पटना विश्वविद्यालय में पढ़ने हेतु भेजा। रामधारी यह जानते थे कि उनके परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है अतः उनका मन अक्सर व्याकुल रहा करता था। धीरे-धीरे रामधारी अपने व्याकुल मन की व्यथा को काग़ज़ पर उतारने लगे जो आगे चलकर कविताओं का रूप लेने लगी।
पटना विश्वविद्यालय में स्नातक करने के दौरान ही वे लेखन में पारंगत हो चुके थे। आंदोलन और क्रांति की आग रामधारी के अंदर भी व्याप्त थी जिसे उन्होंने शब्दों के माध्यम से बयां किया। रामधारी के शब्दों में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विद्रोह व गुस्सा भरा हुआ था। रामधारी देश के बड़े क्रांतिकारियों से भी सहानुभूति रखते थे अतः उनकी कविता में क्रांतिवीरों का भी उल्लेख देखने को मिलता है। हुंकार, पुकार, ललकार और गर्जना का भाव लिए उनकी कविताएं वीर रस से प्रेरित थी। स्नातक के उपरांत रामधारी ने कई नौकरियां की किन्तु उनका मन कुछ खास न लगा। परिवार को धन की बेहद आवश्यकता थी मगर रामधारी ने अपने मन का कहना मानते हुए स्वयं को देश हित में झोंक दिया। रामधारी की कविताएं देश में आग की तरह फैलने लगी, रामधारी के शब्द हर क्रांतिकारी के शब्द बन चुके थे। अब रामधारी सिमरिया गांव का साधारण बालक नहीं अपितु आसमान में रौशनी बिखेरने वाला दिनकर बन चुका था।
रामधारी से दिनकर:
रामधारी के नाम में दिनकर एक उपनाम है जिसे उन्होंने स्वतः ही लगा लिया था। इसका कारण पूछने पर वह बताते हैं कि मैं बाबू रवि सिंह का पुत्र हूँ इसलिए मैंने अपने पिता को दिनकर के रूप में स्वीकार कर अपने नाम के साथ जोड़ लिया।
रामधारी द्वारा रचित प्रसिद्ध काव्य संग्रह:
रेणुका | वर्ष 1935 |
हुंकार | वर्ष 1938 |
रसवन्ती | वर्ष 1939 |
द्वन्द्वगीत | वर्ष 1940 |
कुरुक्षेत्र | वर्ष 1946 |
धूपछाँह | वर्ष 1946 |
सामधेनी | वर्ष 1947 |
बापू | वर्ष 1947 |
इतिहास के आँसू | वर्ष 1951 |
धूप और धुआँ | वर्ष 1951 |
रश्मिरथी | वर्ष 1954 |
नीम के पत्ते | वर्ष 1954 |
दिल्ली | वर्ष 1954 |
नील कुसुम | वर्ष 1955 |
नये सुभाषित | वर्ष 1957 |
सीपी और शंख | वर्ष 1957 |
परशुराम की प्रतीक्षा | वर्ष 1963 |
हारे को हरि नाम | वर्ष 1970 |
काव्य संग्रह के अतिरिक्त एक खंडकाव्य भी रामधारी सिंह दिनकर जी ने सन 1961 में लिखा था जिसका नाम है ‘उर्वशी’ । उर्वशी खंडकाव्य को क्रमशः प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ और पंचम अंकों में बाँटा गया है। लोकभारती द्वारा प्रकाशित यह खंडकाव्य कविताओं पर आधारित है।
रामधारी जी ने अपनी कलम से अनेकों रचनायें लिखीं हैं जिसमें बाल कविताएँ और प्रतिनिधि रचनाएँ भी शामिल हैं। हर एक का विवरण देना यहाँ संभव नहीं है किन्तु चक्रवाल, सपनों का धुआँ, रश्मिमाला एवं अमृत-मंथन जैसे अन्य नाम भी देखने को मिलते हैं। प्रतिनिधि रचनाओं में शामिल – परंपरा, कृष्ण की चेतावनी, बालिका से वधू, आशा का दीपक, चांद एक दिन, कलम या कि तलवार आदि भी प्रमुखता से लिए जाते हैं।
सम्मान:
- 1959 में साहित्य अकादमी: संस्कृति के चार अध्याय के लिये।
- पद्म विभूषण: 1959 में, भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद द्वारा।
- साहित्य-चूड़ामणि: 1968 में, राजस्थान विद्यापीठ द्वारा।
- ज्ञानपीठ सम्मान: 1972 में, काव्य रचना उर्वशी के लिये।
- राज्यसभा के सदस्य: 1952 में वे राज्यसभा के लिए चुने गये और लगातार तीन बार राज्यसभा के सदस्य रहे।
विशेष:
द्वापर युग में घटित महाभारत की ऐतिहासिक घटना पर आधारित काव्य “कुरुक्षेत्र” को विश्व के 100 श्रेष्ठतम काव्यों में 74वाँ स्थान प्राप्त है।
मरणोपरान्त:
- रामधारीसिंह दिनकर जी कि 13वीं पुण्यतिथि पर 30 सितंबर सन 1987 में तत्कालीन राष्ट्रपति जैल सिंह ने उन्हें श्रद्धांजलि दी।
- दिनकर जी कि स्मृति में सन 1999 में डाक टिकट जारी किया गया।
आज 2019 में रामधारी सिंह को गुजरे 55 वर्ष हो चले हैं किन्तु उनकी कविताएं और उनका जोश व श्रृंगार आजतक बरक़रार है। सच में दिनकर आज भी भारतवर्ष के आसमान में सूरज की भांति चमक रहे हैं और अपनी किरणों से भारतीय पीढ़ी का मार्गदर्शन कर रहे हैं।
राष्ट्रकवि ‘दिनकर’ को शत शत नमन।
लेखक:
रवि प्रकाश शर्मा