वामपंथ बनाम वामपंथ
” 5 सितंबर को रात 8:30 बजे एक और वामपंथी पत्रकार गौरी लंकेश की गोली मारकर हत्या कर दी गयी। यह घटना उस वक़्त हुई जब गौरी बंगलुरु स्थित राजराजेश्वरी नगर अपने घर का दरवाजा खोल रही थीं तभी कुछ अज्ञात लोगों नें उनपर गोलियां बरसायीं। गोलियां गौरी लंकेश के सिर में जा लगीं और उनकी तत्काल मृत्यु हो गयी।”
गौरी लंकेश की हत्या के बाद एक बार पुनः वामपंथ और दक्षिणपंथ की राजनीति गरमा गयी है। वैसे आपको बता दूँ कि गौरी लंकेश की हत्या कोई पहला मामला नहीं है जिसमें किसी वामपंथी पत्रकार को मारा गया हो। इसके पहले नरेंद्र दाबोलकर को 20 अगस्त 2013, गोविन्द पानसरे को 20 फ़रवरी 2015 और एम.एम कलबर्गी को 30 अगस्त 2015 को इसी प्रकार मारा गया था। चारों हत्याओं का राज अभी तक नहीं खुल पाया है; फ़िलहाल यह एक गुत्थी है।
जैसा कि हमसभी जानते हैं, वामपंथी हर हत्या को आर.एस.एस, विश्वहिंदू परिषद् और भाजपा से जोड़ देते हैं। पर अभी तक इनके किसी भी पत्रकार की हत्या का जिम्मेदार संघ या संघ से जुड़े अन्य हिन्दू संगठनों को नहीं पाया गया है। देश में अब अपने पतन की ओर अग्रसर ये वामपंथी संगठन 21वीं सदी में आकर भी अपनी राजनीति को नया रूप नहीं दे पाए। फ़िलहाल इनकी तादात दक्षिण भारत में है जहाँ केरला प्रमुख रूप से आता है। हत्याओं पर नजर डालें तो केरल में अनगिनत आर.एस.एस कार्यकर्ताओं की भी हत्याएं हुयीं पर ये उन हत्याओं का जिकर करने से बचते हैं।
18वीं शताब्दी में जन्मी वामपंथी विचारधारा खुद को समयानुसार बदल नहीं पायी अतः दिन प्रतिदिन इनका प्रभुत्व कम होता चला गया। वामपंथी विचारधारा के कभी समर्थक रहे कुछ नेताओं अथवा पत्रकारों नें भी स्वयं को इनसे अलग कर लिया। हिन्दुस्तान में वामपंथ की ज़मीन रखने वाली Communist Party of India (CPI) भी समय के साथ साथ कमजोर होती चली गयी। किसी ज़माने में वेस्ट बंगाल में अपना दम रखने वाली कम्युनिस्ट पार्टी वहां से भी अपनी ज़मीन खोती चली गयी। आज आलम ये है कि Communist Party of India की लोकसभा में कुल 1 सीट है और राजयसभा में भी कुल 1 सीट है। ये तो रही इनके राजनीतिक अस्तित्व की बात पर आखिर वामपंथी समाजवादी विचारधारा रखते हुए भी कभी आगे क्यों नहीं बढ़ पाये ?
- विश्व की बदलती राजनीति को न समझ पाना
- मजदूर संगठन, गरीब अमीर, जाती धर्म की आलोचना जैसे शब्दों से ऊपर न उठ पाना
- बढ़ती पूंजीवादी व्यवस्था में पुराने पड़ते इनके मुद्दे
- अपने वैचारिक मानकों में समयानुसार बदलाव न लाना
- हर वक़्त अधिकार अधिकार का घिसा पिटा राग
- भारत जैसे भिन्नताओं वाले देश में समानता जैसी बातें करना
- इनकी अगुआई करने वाला राष्ट्रिय स्तर पर कोई नेता न होना
- वामपंथियों में टूट और वैचारिक मतभेद
- अपने ऊपर वामपंथी कहलाने का ठप्पा लगवा लेना जो अब हास्य माना जाता है
- समाज के पिछड़े मापदंड़ों से खुद को ऊपर न उठा पाना
- अपने आपको केवल विरोधी और आलोचक की पहचान बना लेना
- हिन्दू धर्म का विरोध करना और इस्लामिक संगठनों को दुलारना
- हिन्दू मान्यताओं का निरंतर उपहास करना और इस्लामिक मान्यताओं पर चुप्पी
- अपने विचारों को ज़मीनी रूप दे पाने में विफल
- रूढ़ वामपंथी (माओवादी) के साथ आपसी संबंध
- दक्षिणपंथियों की राजनीतिक स्तर पर कोई काट न खोज पाना
उपरोक्त दर्शाये गए बिंदु गौर फरमाने योग्य हैं क्योंकि वे वामपंथ की असलियत बयां करते हैं। हिन्दुस्तान अब सांप और बन्दर का नाच दिखाने वाला देश नहीं रह गया, धोती-कुर्ता का त्याग कर यह देश भी अब सूट-बूट में रहना सीख गया है। मेरा इशारा भारत के बदलते परिवेश की तरफ है जहाँ बेशक बदलाव तो आये हैं मगर सामाजिक वर्गीकरण और भी गहरा गया है। दुनियां आधुनिकता के घोड़े पर सवार होकर कभी न पूरी होने वाली रेस लगा रही है ऐसे में मार्क्सवादी विचारधारा का बहुत पीछे छूट जाना स्वाभाविक है।
वामपंथी जो कभी देश की राजनीति में आगे रहे पर अपने कृत्य की वजह से लगातार जमींदोज़ होते चले गए। मार्कसवादी विचारधारा और Communist Party of India (Marxist) के सबसे प्रसिद्ध नेता रहे ज्योतिरिन्द्रा बसु (ज्योति बसु) जो सन 1977 से लेकर वर्ष 2000 तक वेस्ट बंगाल के मुख्यमंत्री रहे। पूरे 23 वर्षों तक मुख्यमंत्री पद पर रहने के बावजूद वे बंगाल को अपनी वामपंथ (मार्कसवादी) विचारधारा के अनुरूप नहीं ढाल पाए। वेस्ट बंगाल जैसे बड़े राज्य में ज्योति बसु के रहते कोई इंडस्ट्रियल ग्रोथ नहीं हो पाई। यूनियन बाजी व् हड़तालों का लगातार होना आगे चलकर राज्य के पिछड़ेपन का कारण बना। अपने 23 वर्ष के विशाल कार्यकाल में और केंद्र में कांग्रेस का सपोर्ट होने के बावजूद ये वामपंथी अपनी ही विचारधारा के शिकार हो गए। जिसका नतीजा ये है कि आज भी बंगाल की बर्बादी का श्रेय जयोति बसु को ही जाता है।
“बाड़ी दीघे चाकरी कॉरबो” का नारा देने वाले वहां के मूल बंगाली आज वेस्ट बंगाल से बाहर निकलने को मजबूर हैं। क्योंकि बंगाल में स्थापित कई छोटी फैक्टरियां, कारखाने मार्क्सवादियों की बली चढ़ गयीं जिसका अंजाम यह हुआ कि वहां रहने वाले बंगला निवासियों को अन्य राज्यों में जाकर नौकरी करनी पड़ी। वामपंथ की विफल होती राजनीति नें दक्षिणपंथ को अपने पांव ज़माने में सहायता की। सन 1925 में कम्युनिस्ट पार्टी की पहली मीटिंग का केंद्र रहा कानपुर यह दर्शाता है कि वे उत्तर भारत में भी जा चुके थे। पर आज जो स्थिति है उसे देख यह कहा जा सकता है कि उत्तर भारत में अब वामपंथ के अवशेष खोजने से भी नहीं मिलेंगे।
मैं वामपंथ विचारधारा का पूर्णरूप से विरोधी नहीं पर मैं उनका पूर्णरूप से समर्थन भी नहीं करता। युग बदल गया है, भारत के साथ अन्य देशों के हालात भी बदल गए हैं पूरी दुनियां सिर्फ खरीद-फरोख्त के आधार पर टिकी हुई है। सम्पूर्ण विश्व अपने-अपने देश को लेकर गोलबंद होता चला जा रहा है; कोई पैसे की धौंस देता है तो कोई मिलिट्री पॉवर की। कहने को अमेरिका दुनिया का सबसे बड़ा डेमोक्रेटिक देश है पर उसने अपनी प्रभुता को संरछित करने के चक्कर में जाने कितने मुल्कों को मिट्टी में मिला दिया। अमेरिका की Democratic Party वामपंथ की अगुआई करती है तो दूसरी तरफ Republican Party दक्षिणपंथ की; यह भी सच है कि अमेरिका में Democratic Party नें ही अधिकतम शासन किया पर उसका नतीजा क्या ? दुनियां के तमाम मुस्लिम मुल्कों में अस्थिरता इसी Democratic Party नें पैदा किये; भारत समेत अन्य देशों में झगड़े और विवाद इसी Democratic Party नें उत्पन्न किये जो वहां उपस्थित वामपंथ की हकीकत बयां करता है। कहने का अर्थ यही है कि राष्ट्रवाद के बिना राष्ट्र का विकास नहीं हो सकता और राष्ट्रवाद के बिना राष्ट्र मजबूत नहीं हो सकता। अमेरिका नें अपने राष्ट्र वर्चस्व को कायम रखने के लिए वो सबकुछ किया जिसकी इजाजत वामपंथ नहीं देता।
जहां एक ओर विश्व के सभी देश संगठित होकर खुद को मजबूत बनाने में लगे हैं ऐसे में भारत पीछे क्यों रहे ? आज देश की सड़कों व् यूनिवर्सिटीज में आज़ादी आज़ादी का नारा देने वाले वामपंथी स्वयं कभी अंग्रेज़ों के पिटठू बने घूमते फिरते थे। एक बात तो यह भी उभर का आती है कि 1962 में हुए इंडिया चाइना वार में ये वामपंथी देश के साथ नहीं थे, इनका मानना था की इंडिया ही चाइना पर वार कर रहा है न की चाइना इंडिया पे।
लाल बहादुर शास्त्री के कार्यकाल में गृहमंत्री थे गुलजारी लाल नंदा जिन्होंने भी एक खास मौके पर Communist Party की काफी आलोचना की। 1 जनवरी सन 1963 को गुलजारी लाल नंदा नें रेडियो पर आकर देश के नाम एक सन्देश जारी किया जो कि वामपंथ विचारधारा के खिलाफ थी। उन्होंने नें वामपंथियों पर निशाना साधते हुए कहा – “ये भारतीय हैं पर इनको न भारत के प्रति प्रेम है और न सरोकार है” गुलजारी लाल नंदा कांग्रेस के होते हुए भी न सिर्फ वामपंथियों की आलोचना की बल्कि तकरीबन 1200 वामपंथियों को जेल में बंद कर दिया।
बातें बहुत सारी हैं कई अनबुझे तथ्य हैं जो आज किसी को ज्ञात नहीं । किन्तु वामपंथ दक्षिणपंथ की मार नहीं मारा वो मारा तो केवल अपने निरंतर विरोधी स्वभाव से। विरोध किसी दल का हो तो बुरा नहीं किसी राजनीतिक व्यक्ति और उसके कृत्य का हो तो बुरा नहीं पर देश में रह कर देश का विरोध व् उसकी धार्मिक मान्यताओं का विरोध स्वयं के वजूद पर भी संशा पैदा कर देता है वही वामपंथ के साथ हुआ और हो रहा है।
लेखक:
रवि प्रकाश शर्मा