मैं मायके जा रही हूँ
सुनो मैं मायके जा रही हूँ… अच्छा ही है मैंने दबे स्वर में कहा ! मगर भाग्यवान के कान बड़े तेज़ हैं सुन ही लिया ; क्या कहे .. अच्छा ही है ?
मैंने भी ताव दिखाते हुए कहा – हाँ अच्छा ही है चली जाओ कुछ दिन मुझे भी चैन मिले ! मेरे इतना बोतले ही बात और बढ़ गई भाग्यवान पूरी तरह फिबर गई। बोली जा रही हूँ संभालो अपना घर और बच्चा !!
रविवार का दिन था, मैं भी पूरे जोश में था कहा जाओ जहाँ जाना है रह लेंगे हम बाप-बेटे। यह वाक्य अभी पूरे भी नहीं हुए थे कि पत्नी कमरे से बाहर…..धड़ाम दरवाजा बंद कर चली गयी।
कुछ ही देर बाद बेटा नींद से जाग गया बोला पापा मम्मी कहाँ है ? मैंने कहा बेटा तेरी मम्मी तो तेरे नाना के यहाँ चली गयी। मेरा बेटा ना ज्यादा बड़ा ना ज्यादा छोटा उम्र मात्र 5 साल पर बड़ा चंचल; मैं मन में यही सोच रहा था कि इसे सम्भालूंगा कैसे ? मन में ख़याल आया कि क्यों न इसको मैं अपनी बहन के यहाँ छोड़ आऊं और जब सुधा मान जायेगी तो फिर मैं बेटे को वापस ले आऊं। यह सोचते ही मैं चल पड़ा बहन के घर जो ज्यादा दूरी पर नहीं रहती थी।
आज का दिन तो निकल गया, बेटा भी बुआ के घर और पत्नी मायके पर।
कुछ देर सोचते ही शाम ढल गयी घड़ी की सुई आगे बढ़ गयी। ट्रिंग….ट्रिंग हाय रे ये तो अलार्म है ; उफ़ क्या सवेरा हो गया !
सुधा सुधा आवाज़ लगायी पर तभी ध्यान आया कि भाग्यवान तो मायके में है भाई।
कौन बनायेगे नाश्ता कौन देगा टिफन और कैसे पहुँचूँगा दफ्तर समय पर। सुधीर महाशय ये क्या कर दिया आपने, पुरुषार्थ दिखाने से पहले कुछ सोच तो लेते। जैसे तैसे हम निकल पड़े दफ्तर की ओर पर मन में था कोतुहल और शोर। ये क्या दफ्तर में सब भौचक्के हो हमें ही देख रहे थे।
मैंने आवाज लगायी… ओ पियून भाई।
आज हमें इतना क्यों निहार रहे हो.. वो चट से जवाब दिया देर से जो पधार रहे हो। मैंने कहा, तुम क्या जानो भाई जब घर में न हो लुगाई समझो शामत बन आयी। हाथ हिला मैंने कहा – कृपया सब लोग बैठ जाईये; बगल बैठे मंसूर मियां बोले पहले आप फरमाईए। हमेशा नौ बजे का पाबंद आज साढ़ेनौ बजे कैसे ? घर में सब खैरियत !
मेरे ईशारे मंसूर भाई समझ गये फिर हम अपने-अपने काम में लग गये। दिन चढ़ आया भूख लग आयी; मियां बोले चल चलते हैं भाई, आज कैंटीन में पूरी सब्जी और हलवा है। हलवा शब्द सुनते ही बीवी की याद आयी… अहा क्या हलवा बनाती थी सुधा।
पूरा हुआ आज का काम दफ्तर छोड़ घर को चले सुधीर राम।
घर का हाल बेहाल, सब अस्त व्यस्त यहाँ वहाँ सामान बिखरा पड़ा था पर मेरा शरीर तो थकान से भरा था।
खाली घर देख मन उदास हुआ, पत्नी और बच्चे के ना होने का दुःखद अहसास हुआ।
पिता का मन डोला तुरंत कॉल कर बहन को बोला जरा बेटे से बात करवाओ। बेटे नें पूछा पापा मम्मी आ गई, मैंने कहा नहीं बेटा। बेटे से थोड़ी बात कर जी हल्का हुआ। सोचा सुधा को भी कॉल लगाऊँ… दिल का तो बुरा हाल था पर दिमाग पुरुषार्थ से भरा था। मैं कॉल करूँगा तो नाक नीचे नहीं हो जायेगी; कमरे में इधर उधर घूमते रात के आठ बज गए। मन तो इस सोच में डूबा था कि आखिर मैं ऐसे कितने दिन गुजारूंगा; सुधा के बिना दफ्तर और घर का काम काज कैसे करूँगा। बेटा तो बहन के यहाँ है वहां से स्कूल चला जाता है पर बहन भी कब तक रखेगी उसे।
मन नें कहा, सुधीर भाई – बहुत दिखाया पुरुषार्थ पर अब समझो बात।
ऐसे ना हो पायेगा गुजारा; नाक नीचे होती है तो हो जाये पर पत्नी और बच्चा घर वापस आये।
यही बात सोच सुधा को फ़ोन लगाया – मैंने बोला हेलो….
हम्म्म …. बोलो ! सुधा नें जोर से आवाज़ लगाई; क्यों पड़ गयी मेरी जरूरत ? हिल गया तुम्हारा पुरुषार्थ ? वो क्या कहा था अच्छा ही है…
मैं मजबूर लाचार सुनता रहा उसकी हर बात। मैंने कहा प्रिये तुम गृह लक्ष्मी हो… गुस्सा त्यागो और मेरे घर पधारो। मैं तो मैं हमारे बेटे का भी बुरा हाल है वो बार बार तुम्हे ही पूछ रहा है।
वह मेरी गलती थी जो तुमसे जुबान लड़ाई।
तुम्हारी महत्ता क्या है अब यह बात समझ आई।
बीवी तो बीवी होती है बोली – समझ गए हो तो पहले मेरे घर आओ और मुझे यहाँ से विदा कर संग ले जाओ।
सुनो खली हाथ ना आना कोई तौफा भी साथ लाना।
मैंने कहा डार्लिंग हर तौफा दूंगा बस तुम पुनः आ जाओ।
अगले दिन मैंने दफ्तर से छुट्टी कि गुहार लगायी जिसमें मैंने सफलता पायी।
ले बेटे को संग पहुँच गया ससुर जी के घर।
दे उपहार पत्नी को मनाया, थोड़ा रिझाया।
सुधा बोली – आ गया मिजाज ठिकाने…बड़ा चले थे पुरुषार्थ दिखाने।
फिर ऐसा किया तो वापस मायके आ जाऊंगी।
चाहे जितना मनाओ या रिझाओ संग लौट कर ना जाऊंगी।