मेरे स्कूल का 15 अगस्त – हास्य व्यंग
15 अगस्त 1947 को भारत आज़ाद हुआ। शायद ये बात आपको पहले से पता न हो इसलिए बता दिया !!
आज़ादी का जश्न तो शायद हमारे स्वतंत्रता सेनानियों को नसीब न हुआ हो, पर हम प्रतिवर्ष आज़ादी का जश्न मनाकर एक डेढ़ किलो लड्डू तो डकार ही जाते हैं। भारत की आज़ादी का अगर फायदा सबसे ज्यादा किसी को हुआ है तो वे हैं स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले विद्यार्थी। भाई फायदे की बात ये है की एक तो स्कूल से छुट्टी मिल जाती है , दूसरा अगर कहीं स्कूल खुलता भी है तो मात्र ध्वजारोहण और लड्डू सेवन के लिए।
आइये थोड़ा अपना कीमती समय बर्बाद करते हैं “स्वतंत्रता दिवस” मनाने में। मेरी शिक्षा तो इलाहाबाद में हुयी है इसलिए मैं अपने इलाहाबाद के स्कूल चलता हूँ। हो सकता है मेरी कहानी कुछ आपके स्कूल से भी मिले, यह एक व्यंगात्मक लेख है जिसमें मनोरजनं भरपूर है बोर होने का कोई चांस नहीं है।
देखा बे, इसबार 15 अगस्त, रविवार के दिन नहीं पड़ा अब मज़ा आईगा।
यह बात कक्षा 8वीं के जग्गू दादा ‘विजय प्रताप’ ने सबसे सीधे लड़के सुशील गुप्ता से कही। बात यूँ है की, विजय प्रताप आठवीं कक्षा के सबसे नालायक विद्द्यार्थी हैं। ये दुष्टता , उदंडता , बदमाशी जैसे कार्यों के लिए अध्यापक और अध्यापिकाओं द्वारा अक्सर याद किये जाते हैं। कक्षा 8वीं के विद्द्यार्थी के अलावा स्कूल के समस्त बच्चे जग्गू दादा विजय प्रताप को मुर्गा आसन, बेंच पर खड़ा हो आसन, हाथ उपरकर आसन, कान पकड़ आसन, उठक बैठक आसन जैसी कई योग मुद्राओं प्रायः देखा करते हैं, परंतु क्या मजाल की दादा की दादागिरी में कोई गिरावट आयी हो, उनके एक हुकुम पर कक्षा के शरीफ बच्चे उनको अपना टिफिन खिला देते , अपनी बोतल का पानी पिला देते यहाँ तक की दादा को राजश्री कुट्खा खिलने वालों की भी कमी न थी। रही बात लड़कियों की तो वो सभी दादा के विषय ज्ञान पर फ़िदा थीं जैसे – दादा कभी भी 7 से ज्यादा का पहाड़ा नहीं जानते थे, अंग्रेजी के ट्रांसलेशन में वे एक ही सेन्टेन्स में सारे टेन्स का इस्तेमाल कर लिया करते, इतिहास की अगर हम बात करें तो दादा की तारीख कभी भी इतिहास की तारीख से मेल नहीं खाती, अब आप फिजिक्स , केमिस्ट्री और बायोलॉजी की उम्मीद दादा से ना करें तो अच्छा।
खैर चलिए,
15 अगस्त का दिन आ चुका है, स्कूल का नाटक मंच तैयार है। कक्षा आठ की प्रस्तुति के लिए सभी पात्र कुछ इस प्रकार हैं –
जग्गू दादा विजय प्रताप – भगत सिंह की भूमिका में हैं।
बात बात पर झूठ बोलने वाला अहमद नदीम – महात्मा गाँधी बना हुआ है।
महीने में 1 हफ्ता बीमार रहने वाला नीरज चंद्रा – चंद्रशेखर आज़ाद बना हुआ है।
स्कूल की सभी लड़कियों को छेड़ने वाले और आँख मारने वाले लौंडे – क्रांतिकारी बने हैं।
नंदिनी शुक्ला जो अपनी चुगली के लिए मशहूर है – हाथ में झंडा लिए भारत माता बनी है।
दर्शक दीर्घा की बात करें तो, आगे से चौथी पंक्ति में स्कूल के कुछ चुनिंदा मजनू और दिलफेंक आशिक बैठे हैं जिनकी अवस्था मात्र 15 से 18 वर्ष की है, परन्तु वे सभी 35 से 40 पार अध्यापिकाओं के रूप में अपना पहला प्यार पा चुके हैं। उनकी नजरें मैडम की आँखों में लगे सूरमे में घुसी रहती हैं जो 35 साल और 3 बच्चों की माँ हैं तो क्या हुआ, आशिकी के पहले प्रयोग हेतु उत्तम हैं।
मजनुओं के बायीं तरफ बैठी लड़कियों की पंक्ति में कुछ चेहरे गुलाब , चमेली , गुड़हल , गेंदे के समान हैं तो कुछ मेकअप की अधिकता की वजह से रामायण की सूपनखा का रूप ले चुकी हैं। लड़कियों की पंक्ति से सटे हुए कुछ बालक ‘एक्शन का स्कूल टाइम’ नामक जूता पहने व ‘स्कूल चले हम’ के सरकारी विज्ञापन के समान दिख रहे हैं जहाँ कुछ एक के अभिभावक भी साथ बैठे हैं।
सबसे आगे की पंक्ति में स्कूल के प्रधानाचार्य के साथ महिला शिक्षकें बैठीं हैं। उनके चेहरे पर लगा मेक-अप कहीं बिगड़ न जाय और असली सूरत दिख न जाय इसलिए वे सभी आज मौन धारण किये हैं। प्रधानाचार्य जी की बात करें तो वे प्रायः 15 अगस्त और 26 जनवरी के दिन ही थोड़ा खुश दिखाई देते हैं अन्यथा उनके चेहरे पर उदासी पुरानी फिल्म के मनोज कुमार की तरह हमेशा बरक़रार रहती है।
जैसा की हम देख पा रहे हैं, स्कूल का प्रॉक्टर के डी श्रीवास्तव, मनोज कुमार ओह्ह माफ़ कीजिये प्रधानाचार्य जी के कानों में कुछ कह रहा है। ऐसा जान पड़ता है की ध्वजारोहण का कार्यक्रम होना अभी बाकी है। के डी श्रीवास्तव पूरे साल 15 अगस्त और 26 जनवरी की मुद्रा में ही रहते हैं, हर दिन प्रातः काल ये हम बच्चों को सावधान विश्राम करने का निर्देश देते हैं। ये लीजिये, लंबे डंडे में लगा भारतीय ध्वज फहराने को तैयार है और यह सोच रहा है कि इसबार कौन उल्लू का पट्ठा उसे सही तरीके से खीचेगा !!
प्रधानाचार्य नें जैसे ही ध्वज की रस्सी अपने हाथ में पकड़ी, मेरे बगल खड़े कल्लू पान भंडार वाले का बेटा इलाहाबादी टोन में बोल पड़ा “अबहिन ई नैय खुलीगा” हुआ भी वही, रस्सी खींचते ही ध्वज अटक गया। सबके अरमानों पर एकबार फिर पानी फिर गया…ताली बजाने को व्याकुल हाथ पुनः सावधान की मुद्रा में आ गए। पीछे खड़े कुछ अपने कमीने दोस्तों नें हलके स्वर में आवाज़ लगायी “के डीया कहाँ गा बे” तभी दिखा की स्कूल प्रॉक्टर के डी श्रीवास्तव अपने हाथ में लंबा डंडा लिए आ रहे हैं। रस्सी में अटके ध्वज को डंडे से पीटकर, हिला-डुला कर….मन में दो चार गलियां देकर अत्यंत परिश्रम से खोला गया। स्कूल प्रांगण में बहती हवा के झोकों नें ध्वज को फड़फड़ाने पर मजबूर कर दिया और उसके अंदर एकत्रित पुष्प चारों तरफ बिखर गए। चपरासी नें गुलाब के पैसे लेकर ध्वज में गेंदे के फूल के चीथड़े रख दिए थे। वहां खड़े हम सभी नें छक्कों और हिजड़ों के अंदाज़ में जोर जोर से गगनभेदी तालियों की ताल ठोकी जिसे स्कूल प्रॉक्टर भली-भाँती समझ रहा था पर करे क्या आज तो आज़ादी का दिन है।
पुनः वापसी करते हुए सभी शिक्षक , शिक्षिका , विद्यार्थीगण स्कूल के नाटक मंच के सामने यथा स्थान विराजमान हो गए। इस वर्ष एक नई आइटम अर्थात शिक्षिका नें हमारे अत्यंत दुर्लभ स्कूल को ज्वाइन किया था। स्कूल के बिगड़ैल लौंडों नें टर्मिनेटर फिल्म के समान आँखों में लगे साइज फिगर और उम्र मापक यंत्र से नई शिक्षिका ‘रेणुका सहाय’ को 29 वर्ष की अविवाहित कन्या का आधिकारिक दर्ज़ा दे दिया था। दिखने में बेहद खूबसूरत और तीखे नयन नक्श से लैस रेणुका सहाय न केवल छात्रों की आइटम गर्ल थी, बल्कि वे अध्यापक जिनके मुँह में दाँत के दो-चार पिलर गायब थे वह भी रेणुका के लिए बाल और मूंछ में कला रंग पोतने को मजबूर हो चुके थे।
तिरंगे के समान रंग वाली साड़ी में लिपटी रेणुका सहाय मंच पर खड़ी थी।
उनके सम्मुख आगे से दूसरी पंक्ति में जर्जर ईमारत के माफिक कुछ पुराने अध्यापक और शेषनाग , बकरा , कालिया , अज़गर , 6नंबर, अमीबा , पैरामीशियम , कंस , नागिन जैसे अनेकों उपनामों से पहचाने जाने वाले महिला व पुरुष अध्यापक टकटकी लगाए रेणुका सहाय का प्रथम भाषण सुनने को बेक़रार थे। नैनों के बाण, गुलाबी मुस्कान और अपनी बातों में कोयल सी बोली लिए रेणुका नें स्वतंत्रता दिवस के भाषण का समापन किया। दर्शक दीर्घा में बैठे तमाम सज्जनों व दुर्जनों नें झन्नाटेदार ताली पीटकर रेणुका सहाय का धनयवाद किया।
देशभक्ति की प्रस्तुति को व्याकुल आठवीं कक्षा के छात्र-छात्राएं अपने वास्तविक चरित्र के ठीक विपरीत का किरदार निभाने को इसकदर जल्दबाज़ी में थे की गाँधी जी को का बे गाँधी , भारत माता को चुप बे चुगलखोर जैसे शब्दों से नवाजिश कर रहे थे।
तभी अचानक रंगमंच का पर्दा सरकता है !
और पहला ही संवाद जग्गू दादा उर्फ़ विजय प्रताप उर्फ़ भगत सिंह का चंद्रशेखर आज़ाद बने नीरज चंद्रा से होता है –
“ज़िन्दगी तो अपने दम पर ही जी जाती है…दूसरों के दम पर तो सिर्फ जनाज़े उठाये जाते हैं”
तुम सही कह रहे हो, चंद्रशेखर आज़ाद नें भगत सिंह से वास्ता रखते हुए कहा –
“दुश्मन की गोलियों का सामना हम करेंगे…आज़ाद हैं, आज़ाद ही रहेंगे”
दर्शक दीर्घा में उपस्थित तमाम श्रोतागणों नें विजय प्रताप व नीरज चंद्रा की दमदार आवाज़ के लिए तालियां बजायी। उधर सौम्या चतुर्वेदी को ताली बजाता देख क्रांतिकारी जल रहे थे, वे इस सोच में पड़े थे की यह तो हमारी माल है भला विजय प्रताप के लिए और इस बीमार नीरज चंद्रा के लिए ताली कैसे बाज़ा सकती है।
वहीं महात्मा गाँधी के रूप में बैठे अहमद नदीम की भी सुलग रही थी और वो अपनी बारी की प्रतीक्षा में मुँह टेढ़ा किये हुए था।
आखिर बारी आ ही गयी –
“आँख के बदले में आँख पूरे विश्व को अंधा बना देगी” संवाद स्वरुप यह बात अहमद नें विजय प्रताप से कही।
उधर क्रांतिकारियों की तरफ से आवाज़ आयी –
“देशभक्तों को जो पागल कहते हैं कहने दो”
इधर भगत नें भी अपने संवाद में आवाज़ बुलंद की और कहा –
“सीने पर जो ज़ख्म हैं, सब फूलों के गुच्छे हैं
हमें पागल ही रहने दो, हम पागल ही अच्छे हैं”
गाँधी ने फिर कहा – अहिंसा परमो धर्मः –
“कमजोर किसी को माफ़ नहीं कर सकते
माफ़ करना मजबूत लोगों की निशानी है”
दमदार संवादों और अभिव्यक्ति का नज़ारा देख दर्शक दीर्घा में बैठे सभी अध्यापक अध्यापिकायें नालायकों द्वारा लायक प्रदर्शन देख आत्मुग्द थे। और किशोरियां जिनकी उमर 16 को छू रही थी यह सोचने को विवश थीं की आखिर ये नालायक जो हमें दिनभर छेड़ते रहते हैं अथवा लाइन मारते रहते हैं इतना अच्छा प्रदर्शन कैसे कर सकते हैं।
इधर अग्रिम पंक्ति में बैठे प्रधानाचार्य जी का सीना रामायण के हनुमान दारा सिंह की तरह फूल चुका था। सीना प्रधानाचार्य का फूल रहा था और समस्या उनके साथ बैठी अध्यापिकाओं को हो रही थी। वह भी यह सोच रही थी मनोज कुमार, हीमैन धर्मेन्द्र जैसा कैसे बन गया।
जोरदार संवादों और अभिनय के अंत में नाटक के सभी पात्र नंदिनी शुक्ला जिसे वो फूटी आँख देखना भी पसंद नहीं करते, उसे भारत माता जान अपनी गोद में उठा लेते हैं।
इधर रंगमच का पर्दा गिरता है, उधर कल्लू पान भंडार वाले का लौंडा जो कक्षा आठवीं का छात्र भी है, आवाज़ मारते हुए कहता है –
“सुन बे, हम तो दुई चाकर लड्डुओं खाय लिए”
लड्डू शब्द कानों में पड़ते ही –
भगत सिंह, महात्मा गाँधी, चंद्रशेखर आज़ाद और क्रांतिकारी सभी भारत माता को धक्का मारते हुए प्रांगण की ओर दौड़ लगाते हैं। लड्डू की लूट और अबे तबे कर उनको आपस में झगड़ा करते देख यह तनिक भी अहसास नहीं होता की ये बच्चे अभी स्वतंत्रता सेनानियों की भाषा में ज्ञान की बातें कर रहे थे।
वहीं कुछ दूरी पर खड़ी रेणुका सहाय का जलवा कायम था। आस-पास उनको घेरे कई अध्यापक उनके समक्ष अपने विचार रखने के बहाने खोज रहे थे। कुछ अध्यापक जो बिखरे बाल, मैले कुचैले कपडे पहनकर विद्यालय आया करते थे आज उजाला नील की भाँति चमक मार रहे थे।
मित्रों,
” विद्यालय में गुजरे वो तमाम पल आज भी मेरी यादों में ज़िंदा हैं।
उम्मीद है आप भी अपने स्कूल की यादों को सजोंकर रखे होंगे। ”
स्वतंत्रता दिवस की बधाई के साथ मैं अपने लेख पर यहीं विराम लगाता हूँ।
लेखक:
रवि प्रकाश शर्मा