पढ़िये वैदेही शर्मा द्वारा लिखित हिंदी कविता अगली तनख्वाह। भला एक तनख्वाह में क्या कुछ पूरा हो पाता है। पापा की महीने की कमाई और लोगों की ख्वाहिशों के बीच हर महीने अगली तनख्वाह का इंतज़ार रह जाता था।
पढ़िये वैदेही शर्मा द्वारा रचित एक सुन्दर हिंदी कविता जिसका शीर्षक है मैं बेसब्र हूँ। कवितायें अपनी अभिव्यक्ति को बयां करने का सबसे उत्तम माध्यम है। मैं बेसब्र हूँ नाम की यह कविता क्या कहना चाहती है आप भी जानिये।
कविता शीर्षक – क्या लिखूँ ? रोज काल का ग्रास बन रही आसिफा, फिर कैसे मैं श्रृंगार लिखूँगा । देश चल रहा नफरत से ही, फिर कैसे मैं प्यार लिखूँगा । वंचित हैं जो अधिकार से अपने, उनका मैं अधिकार लिखूँगा । दुष्टों को मारा जाता है जिससे, अब मैं वही हथियार लिखूँगा ।
कविता शीर्षक – राह किनारे चलता हूँ शाम को थके हारे, पीठ पर ऑफिस का बस्ता लादे मैं अपने कदम बढ़ता हूँ, राह किनारे चलता हूँ । शिथिल शरीर, व्याकुल नयन धैर्य रहित, अधीर मनमैं स्वयं से बातें करता हूँराह किनारे चलता हूँ ।। चलते-चलते कुछ दूर तलक, एक मोड़ नज़र आता हैसहसा मेरे
उलझा उलझा रहता है मन, जाने क्यूं हरदम कुछ कहता है मन, जाने क्यूं ज़िन्दगी की कैद में अरमानों का पंछी है उम्मीदों के पंख लिए जिसकी हसरतें मचलती हैं उड़ जाने का करता है मन, जाने क्यूं ये कैसा मायाजाल है जिसने हमको घेरा है हर तरफ बस ख्वाहिशों का पहरा है जीवन
हे भारत मातृभूमि हमारी हे भारत मातृभूमि हमारी जन्म दिया तुमने यहां पर तुमने ही चलना सिखलाया गोद में तेरी खेले हैं हम कभी न तुमने हमें रुलाया हमें है तू प्राणों से प्यारी हे भारत मातृभूमि हमारी ! तू उपवन हम फूल हैं तेरे तुमने ही हमको सींचा है नस नस बहती रक्त
मानव जीवन पर प्रकृति का बहुत गहरा प्रभाव रहा है। अलग अलग ऋतुएं हमें आनंदित करने के साथ साथ हमारे जीवन पर अपना सकारात्मक प्रभाव भी छोड़तीं हैं। धरा पर बदलती ऋतुओं की व्याख्या कवियों नें कविताओं के माध्यम की है जो यह दर्शाती है की प्रकृति सच में हमारे जीवन के लिए बहुमूल्य
यूँ तो ‘प्रेरणा’ केवल एक शब्द मात्र है, परन्तु जब इसे किस्से कहानियों व कविताओं में पिरोया जाता है तो वह हमारे जीवन ऊर्जान्वित कर देता है अर्थात वह एक प्रेरणादायी प्रसंग बन जाता है। मनुष्य जीवन एक युद्ध और संग्राम की भांति है जहाँ हम किसी भी कीमत पर पराजित होना नहीं चाहते
तुम कम से कम उसे देख तो पाते हो ना उसे देख कर जी तो पाते हो ना तुम कम से कम उसे देखकर, महसूस कर तो पाते हो ना तुम कम से कम उसकी आंखों को पढ़ तो पाते हो ना तुम कम से कम उन आंखों को पढ़कर, दिल को संभाल तो
ज़िंदगी की बढ़ती आपा-धापी, पारिवारिक विखंडन, अपनों से लगातार बढ़ती दूरी और पैसा कमाने की लालसा आज हमें अकेलेपन के दल दल में धकेल चुकी है। परिवार का हर सदस्य एकांत में जी रहा है, अगर खुशियां हैं भी तो केवल कृतिम रूप में हैं जो ज्यादा वक़्त तक हमारा साथ नहीं दे पातीं।