मेरा गांव

मेरा गांव निबंध
Essay on My Village in Hindi

‘गांव’… यह शब्द सुनकर मन मष्तिष्क पर खेत, खलिहान, मवेशी, धोती कुर्ता धारी पुरुष, खेतों में काम करती महिलायें, बैलगाड़ी, ट्यूबेल, ट्रैक्टर, खेतों की मेढ़, बागीचे, तालाब, गुल्ली डंडा खेलते बच्चे, पँछी एवं तितली इत्यादि की छवि बन जाती है।

सच में मेरा गांव तो कुछ ऐसा ही है। भोर में जल्दी जागना और रात को जल्दी सोना। शहर की आप धापी से अलग एक बेहद सरल ज़िन्दगी का अहसास गांव दिलाता है। कुछ ऐसा है मेरा गांव –

1 – मेरा गांव ऐसा है जहाँ पड़ोसी भी दादी बाबा, चाचा, चाची, भईया, दीदी कहे जाते हैं।
2 – मेरा गांव ऐसा है जहाँ सारे बच्चे एक दूसरे के घर आते जाते हैं।
3 – मेरा गांव ऐसा है जहाँ त्यौहारों में सब एक दूसरे से भोजन आदान प्रदान करते हैं।
4 – मेरा गांव ऐसा है जहाँ सब एक दूसरे के दुःख में शामिल होते हैं।

क्या क्या बताऊँ मैं अपने गांव के बारे में। एक पूरे गांव को मैं शब्दों में ढालूँ भी तो कैसे। द्वार पर गईया का बान देना, खेतों में चलने वाले ट्यूबेल की आवाज आना, घरों में गौरइया का चूं-चूं करना… यह सब कुछ कितना लुभावना लगता है। मेरा गांव प्रकृति के बेहद करीब है। चलिए कुछ और बातें बताती हूँ अपने प्यारे से गांव की –

मुझे मेरा गांव बहुत ही प्यारा लगता है। गांव में मेरा खुद का घर है, जहां मेरे दादा-दादी रहते हैं। शहर में मेरे पिता की सरकारी नौकरी है, जिस कारण मैं मेरी मां और मेरे पिता शहर वाले घर में निवास करते हैं। लेकिन जब भी मेरे पिता को ऑफिस से छुट्टी मिलती है, हम सभी लोग अपने गांव जाते हैं। गांव जाकर मुझे ऐसा महसूस होता है कि मानों मैं स्वर्ग में पहुंच गई हूं।

शहर के भागदौड़ वाले जीवन से निकलकर जब मैं गांव जाती हूं। तो वहां मुझे एक अलग ही शांति प्राप्त होती है। गांव में चारो ओर हरियाली होती है। ठंडी हवाएं चलती हैं, जानवर और पंछी होते हैं, छोटे-छोटे तालाब होते हैं। जिन्हें देखकर मन प्रसन्नता से भर जाता है। इसके साथ ही गांव में मेरे चाचा-चाची की दो बेटियां भी हैं, जो मेरी पक्की सहेलियां हैं। उनके साथ मैं पूरे गांव की सैर करती हूं और खूब खेलती हूं।

इसके अतिरिक्त जब बारिश का मौसम आता है। तब गांव में ही आम के पेड़ पर मैं और मेरी सहेलियां झूला डालकर झूलते हैं और हम सभी सहेलियां मिलकर बरसात के गीत भी गाते हैं। हम सभी नदी के किनारे जाते हैं और नदी के सुंदर नज़ारे का आनंद लेते हैं। वहीं कभी-कभी नाव वाले चाचा जी हमें नाव पर बैठाकर नदी की सैर भी करवाते हैं।

मेरे गांव की सबसे अच्छी बात:

मुझे मेरे गांव की सबसे अच्छी बात यह लगती है कि गांव में सभी लोग एक दूसरे को समय देते हैं। उनका जीवन शहर के लोगों की तरह भाग-दौड़ वाला नहीं है। शादी हो या फिर कोई त्यौहार सब एक साथ मिल-जुलकर मनाते हैं। सावन का महीना शुरू होते ही सभी औरतें मिलकर एक साथ सावन में हरे रंग की चूड़ियां पहनती हैं।

इसके अलावा मुझे मेरे गांव की सबसे अच्छी बात यह लगती है कि वहां पर कोई एक दूसरे से लड़ाई-झगड़ा नहीं करता। यदि कभी छोटा-मोटा मनमुटाव हो भी जाए तो आपस में बैठकर उसे सुलझा लिया जाता है। इसके अलावा गांव में ग्रामपंचायत होती है, जो लोगों के छोटे-मोटे झगड़ों या मामलों को हल करती है।

गांव और शहर के वातावरण में अंतर:

यदि आज के आधुनिक युग की बात करें तो शहर का वातावरण बहुत ही प्रदूषित हो चुका है। फैक्ट्री से निकलने वाला धुआं, सड़कों पर चलने वाला वाहन। विभिन्न प्रकार की मशीनों की ध्वनि और चारों तरफ लोगों द्वारा फेंके जाने वाला कूड़ा-कचरा, शहर के वातावरण को बिगाड़ देता है।

वहीं दूसरी ओर जब मैं गांव जाती हूं तो गांव में मुझे हर तरफ पेड़-पौधे, तालाब, जानवर, पंछी इत्यादि दिखाई देते हैं, जो गांव के वातावरण को सुंदर और शांत बनाए रखने में सहायता करते हैं। वहां वाहनों की संख्या भी अधिक नहीं होती, इसलिए वायु और ध्वनि प्रदूषण भी न के बराबर होता है। रात के समय गांव में तारे भी टिमटिमाते हुए दिखाई देते हैं। जो वहां के नज़ारे की सुंदरता को दोगुना करते हैं।

मेरे गांव के लोगों का मुख्य व्यवसाय:

गांव चाहे मेरा हो या फिर किसी का भी हो। हर गांव के लोगों का मुख्य कार्य खेती करना होता है। इसके साथ ही गांव के लोग गाय, भैंस, बकरी आदि का पालन (पशुपालन) भी करते हैं। यही कार्य गांव के लोगों का मुख्य पेशा होता है। वहीं कुछ लोग अधिक पैसे कमाने की चाहत में। या फिर गांव में काम न मिल पाने के कारण शहर का चक्कर भी लगाते हैं।

गांव के लोगों का रहन-सहन:

गांव के लोग शहर के लोगों की तुलना में बहुत ही सीधे-साधे और भोले-भाले होते हैं। उनका रहन-सहन भी बहुत ही साधारण सा होता है। गांव के लोग दिखावा पसंद नहीं करते हैं। गांव के लोग स्वभाव से भी बहुत ही साधारण होते हैं। गांव में रहने वाले लोग बहुत ही मेहनती होते हैं। वे अपना सारा दिन खेती करके या फिर किसी और कार्य में व्यतीत करते हैं।

गांव से मेरा लगाव:

मेरे गांव से मेरा लगाव बचपन से है। ऐसा इसलिए क्योंकि गांव में मेरे सभी अपने रहते हैं। गांव में ही मेरा जन्म हुआ, वहां मेरे बूढ़े दादा-दादी रहते हैं, जो मुझे बहुत ही प्रेम करते हैं। गांव में ही मेरे बचपन के सभी दोस्त हैं, जिनके साथ मैं खेतों में खेलने जाती हूं। गांव में मैं खुद को आज़ाद सा महसूस करती हूं। वहां रहने वाले सभी लोग मुझे बहुत प्रेम करते हैं।

जब मैं गांव से वापस शहर आती हूं तो मुझे मेरे गांव की और वहां के लोगों की बहुत याद आती है। शहर के भीड़-भाड़ वाले वातावरण में मैं अपने शांत वातावरण वाले गांव की कल्पना करती हूं और मन ही मन में प्रसन्न हो जाती हूं। गांव में अपने दादा-दादी और सहेलियों के साथ बिताए हुए लम्हें मुझे बहुत ही याद आते हैं। यदि मेरे पिता शहर में नौकरी नहीं कर रहे होते तो मैं सदा के लिए अपने गांव में ही बस जाती। क्योंकि मुझे मेरा गांव बहुत ही ज़्यादा प्रिय है।

गांव में शिक्षा की आवश्यकता:

हमारे भारत की 65.53% आबादी गांव में निवास करती है। इसलिए गांव में शिक्षा का प्रसार बहुत ही आवश्यकता है। वैसे तो पहले की तुलना में गांव के लोग शिक्षा में काफी आगे निकल चुके हैं। लेकिन फिर भी कई गांव ऐसे हैं जो शिक्षा से वंचित हैं। ऐसे में हमारी सरकार को चाहिए कि वह लोगों के बीच शिक्षा का प्रचार व प्रसार करे और गांव के लोगों को शिक्षा के महत्व के बारे में बताए। ऐसा करने से जो गांव के बचे हुए अशिक्षित लोग हैं, वे शिक्षा की ओर बढ़ेंगे और अज्ञानता से छुटकारा पाएंगे। क्योंकि “पढ़ेगा भारत, तभी तो बढ़ेगा भारत” ।

इसके अलावा मेरे गांव में भी अब ज़्यादातर लोग शिक्षा पर जोर देते हैं। मेरे गांव के बूढ़े और बच्चे सभी शिक्षा प्राप्त करना चाहते हैं। मैं भी जब गांव जाती हूं तो मैं अपनी सहेलियों को शिक्षा के महत्व के बारे में बताती हूं। जब मैं उनको अपने स्कूल और शिक्षक के बारे में बताती हूं तो उनकी भी दिलचस्पी शिक्षा की ओर बढ़ जाती है।

भारत की आबादी:

वर्ष 2011 से लेकर अब तक हुई जनसंख्या वृद्धि दर के अनुसार भारत की कुल आबादी 2020 के अंत तक 1 अरब, 38 करोड़ होने का अनुमान था। वर्ष 2021 में होने वाली जनगणना के बाद ही यह साफ हो पायेगा की भारत की आबादी 1 अरब, 38 करोड़ पहुंची है या उससे भी अधिक हो गयी है। हम यह जानते हैं की भारत में शहरों के मुकाबले गांव में ज्यादा लोग निवास करते हैं। अगर मैं प्रतिशत की करूँ तो 1 अरब, 38 करोड़ की कुल आबादी में से 65.53% भारतीय अभी भी गांव में ही रहते हैं।

गांव की वर्तमान स्थिति:

सन 1947 आजादी से लेकर आज डिजिटल क्रांति आने तक भारत की तसवीर में व्यापक बदलाव आया है। व्यापक बदलाव से मेरा तात्पर्य है देश का विकास। विकासशील कहा जाने वाला भारत बेहद जल्द विकसित राष्ट्रों की श्रेणी में आ जायेगा और जो दुनियां हमें “थर्ड वर्ल्ड” की संज्ञा देती थी, कल हमें “फर्स्ट वर्ल्ड” के नाम से बुलाने लगेगी।

भारत के विकास ने, ना सिर्फ शहरी क्षेत्र को बदला है बल्कि ग्रामीण क्षेत्र भी बेहद तेजी से विकसित हुए हैं। भारतीय गांवों की वर्तमान स्थिति की बात करूँ तो वे अब पूरी तरह गांव कहे जाने के लायक नहीं। आज गांवों में भी पक्के आलीशान मकान, पक्की सड़कें, तेज रफ्तार गाड़ियां, टेलीविज़न, मोबाइल एवं इंटरनेट आसानी से देखे जा सकते हैं।

जैसा मैंने ऊपर लिखा है अब गांवों की छवि अनपढ़ लोग, बैलगाड़ी, खेत खलिहान और मवेशी तक सीमित नहीं रही। आज देश के गांवों में भी लोग साक्षर हो रहे हैं। लिटरेसी रेट पहले के मुकाबले आज बहुत सुधरा है। गांव में रहने वाले मर्द एवं महिलायें समान रूप से शिक्षित हो रहे हैं। बेटे और बेटी का भेद कम हुआ है।

बस इतना सा बचा है ‘गांव’ मेरे गांव में:

मेरे इस टाइटल का भावार्थ आप समझ गये होंगे। कहने का अर्थ ये है की गांव अब पूरी तरह गांव नहीं रह गए। सड़क, परिवहन, व्यापार, संचार, स्वास्थ, शिक्षा एवं रोजगार तो बढ़ें हैं किन्तु ईर्ष्या, अहंकार, नफरत, अपराध, राजनीति ने भी अपनी जड़ें गहरी की हैं।

कभी दादा, बाबा, चाचा कहलाने वाले पड़ोसी परिवार आज दूर हो चले हैं। त्यौहारों एवं मुसीबतों में कभी एक साथ जमा होने वाले लोगों की भीड़ कम हो गयी है। घरेलु भाईचारा कायम रखने वाले गांव के परिवार भी आज विखंडित हो चले हैं। भाई भाई का विवाद, पिता पुत्र का विवाद, चाचा भतीजे का विवाद, जीजा साले का विवाद अब गांवों में अब बात हो चली है।

घर-घर पशुपालन का चलन खतम हो गया है। आज गांवों में भी दूध एवं घी की कमी हो चली है। गोबर के उपले और चूल्हे का पकवान लुप्त हो चला है। शहरी क्षेत्र से निकलकर गांव पहुंचे लोगों ने शहर की प्रदूषित मानसिकता को वहां भी पहुंचा दिया है।

कभी किसी दौर में मिट्टी के चूल्हे का पकवान खाना और गोबर के उपलों पर सेकीं हुई रोटियां खाना गर्व की बात होती थी किन्तु ओछी मानसिकता ने आज इन कार्यों को गरीबी का दर्जा दे दिया है। अतः यदि गांव के किसी परिवार में गैस का इस्तेमाल नहीं किया जा रहा तो वह परिवार गरीब माना जा रहा है। शादी ब्याह में दहेज़ प्रथा भी कायम हो चुकी है। अब कुएं का ठंडा पानी तो भूल ही जाइये, अब तो गांव के घरों में भी फ्रिज अपनी हाजरी लगा चुका है।

सच में बस इतना ही बचा है ‘गांव’ मेरे गांव में कि थोड़ा आबो हवा साफ है, पंछियों की चहचहाहट अभी गूंज रही है, बैलों की घंटियां झूल रही हैं, तालाब में बतखें डुबकियां लगा रही हैं …कहीं न कहीं चंद बूढ़े बुजुर्ग हाल पूछ ही डालते हैं – कहो बेटा कैसे हो ! बस इतना ही बचा है ‘गांव’ मेरे गांव में।

लेखिका:
ज़रनैन निसार