एक ख़त – “अम्मी”

एक ख़त - अम्मी

अम्मी-

मैं यह जानती हूँ कि तुम यह जानती हो की वो जो औरत है, वो अब्बा की महज़ दोस्त नहीं और मैं यह भी जानती हूँ की तुम यह कभी जानना नहीं चाहती थी।

जब कभी भी अब्बा रातों को दूसरे शहर में होते हैं तब यह शहर तुम्हें दोज़ख लगता है जैसे किसी ने तुम्हें धकेल दिया हो उन ढलती दरख्शांन के दरमियाँ और यूँ लगता है की नींद भी कोई नापाक नक़ाब हो तुम्हारा।

जब कभी अब्बा मेज़ से उठकर चले जाया करते हैं तो तुम्हारे हलक से वो निवाला नीचे नहीं उतरता मगर तुम मुझे तो खिला ही दिया करती हो और तुम भी कैसे ना कैसे खा ही लिया करती हो।

जब मैं छोटी थी तब मेरे सवाल भी जुदा थे और तुम्हारे जवाब भी और अब जब उम्र का इक मुकाम मैं तय कर चुकी हूँ तो अब्बा को लेकर मेरे सवाल की जानिब जुदा हैं लेकिन तुम्हारे जवाब तो अब भी वहीं हैं।

तुम कहा करती थी की अब्बा मुहब्बत से महरूम रहें हैं और अब मुझे महफूज़ रखने के खातिर कह दिया करती हो की वह मजबूरियों पर मौक़ूफ़ है, मुहब्बत पर नहीं।

और तुम्हारी उस मुहब्बत का क्या?

जो हमारे घर जे अंदर के बरामदे में अब्बा की उन तमाम कमीज़ो में से एक कमीज़ की तरह से कील पर लटकी रहती है और तुम कितने इख्लास से उसे इस्त्री कर दिया करती हो इस इंतज़ार में की अब्बा देर सबेर ही सही लेकिन उसे पहन तो लिया करते हैं।

अम्मी तुम्हारे अहद भी तो इतने अहमक हैं की तुम यह अपनी अम्मी से भी नहीं कहती,
गर किसी रोज़ मेरे अहद इतने अहमक हो गए की मैं भी अपनी अम्मी से ना कह सकी तो क्या करोगी तुम?

कितनी सहजता से तुम सब कुछ अपनी सीरत में समा लेती हो,
क्या तुम्हारा सम्बल कभी तुम्हें सवाल नहीं करता?

क्या तुम्हारी तवककों तुमसे कभी तवज्जों की माँग नहीं करती?

क्या तुम्हारी ज़बाँ कभी ज़हन से ज़बरदस्ती नहीं करती?
क्या तुम्हारी रूह कभी उस रकीब की राहत देख रो नहीं पड़ती?

लेकिन क्या तुम यह जानती हो की मैं कई दफ़ा सोचती हूँ की पूछ लूँ तुमसे यह सब इक रोज़ और यकीन करो मैं पूछने ही वाली होती हूँ मग़र तुम उससे पहली ही मेरी ओर देख कर मुस्कुरा दिया करती हो..!!

लेखिका
वैदेही शर्मा