“बछड़ा” और उसका अपना घर – हिंदी कहानी
पॉँच पॉँच भैंसें होने के बावजूद भी मुकुंद तिवारी का मन अब एक गाय लेने का भी हो रहा था। द्वार पर आवाज़ लगाते हुए अपने सेवक ब्रिज बहादुर को बोले, जा जरा अवध मिश्रा को बुला ला तो। उनसे कहना की आज से पशु मेला शुरू है, मैं सोच रहा हूँ की एक गईया भी रख लूँ। ब्रिज बहादुर ने कहा – मालिक 5 भैसें हैं अब कितना पशु पालन करेंगे ! मैं तो इन 5 भैसों में ही परेशान हो जाता हूँ, अब गईया कौन संभालेगा भला ? हा हा …. मुकुंद तिवारी उसकी बात सुन मुस्कुराने लगे।
उधर ब्रिज बहादुर मालिक की आज्ञा पाकर अवध मिश्रा के घर जाकर उनको बुलावा दे आया। दिन में भोजन के बाद दोनों मित्र उस तरफ निकल लिए जिधर पशु मेला लगा था, उनके साथ ब्रिज बहादुर भी था। मेले में दूर दूर से मवेशी आये हुए थे, यह मेला कोई साधारण नहीं था बल्कि प्रति वर्ष इस मेले का आयोजन होता था जिसमें घरेलु पशुओं की खरीद और बिक्री होती थी। मुकुंद तिवारी और उनके मित्र अवध मिश्रा दोनों गाय की खोज में मेले के चारो तरफ घूम रहे थे। वे यह भी देख रहे थे की इस बार कैसी कैसी गायों की नस्ल मेले में आई है। करीब 2 घंटे मेले में घूमने के बाद वे एक जगह खड़े हुए जहाँ एक ही मालिक अपनी 2 गायों की बिक्री हेतु मेले में आया था। बात यह थी की, दोनों गायें अभी ज्यादा बड़ी न थी; मुकुंद तिवारी ने बिक्रेता से कहा – यह तो बछिया है कितनी सुन्दर है भला इसे क्यों बेच रहे हो। बिक्रेता भी साधारण नरम शब्दों में बोला जी ये दोनों मेरी गायों की बछिया हैं, मेरे पास पशुओं की संख्या अधिक हो गयी है अतः सोचा की 2 बछिया बेच दूँ।
अवध मिश्रा नें बछिया के चारो तरफ घूमकर देखा, उसके मुख को देखा, उसकी नस्ल को देखा और फिर मुकुंद से बोले ! ऐसा करो मुकुंद यह हल्के भूरे रंग की बछिया लेलो तुम्हारे द्वार की शोभा बढ़ायेगी। मुकुंद नें अपने सेवक ब्रिज से पूछा, बता बिरजू कैसी लग रही है बछिया ? ब्रिज नें उत्तर देते हुए कहा – मालिक जब अवध मिश्रा जी कह दिए तब का सोचना !! भला इनसे बेहतर कौन जान सकता है, उ का है कि इनके द्वार पर तो कितनी गायें हैं ! मालिक, मिश्रा जी जिसपर हाथ धर दिए उहे खरीद लें बस।
क्रेता और बिक्रेता के बीच कुछ देर बात के उपरांत पैसों पर बात बनी और बछिया खरीद ली गयी। खूंटे से बंधी बछिया भला अपने पालक से दूर होने का नाम काहे ले, ब्रिज बहादुर जितनी ऊर्जा से बछिया के पगहे को अपनी ओर खींचता उसकी दो गुनी ताकत से बछिया ब्रिज बहादुर को अपनी ओर खींच लेती। ब्रिज के लाख प्रयास करने से भी बछिया अपने खूँटे से अलग ना हुयी ! मुकुंद बिक्रेता और बछिया के पालक से बोले – आपकी बहुत कृपा होती अगर आप स्वयं ही इस बछिया को हमारे द्वार तक लाते। अच्छी कीमत का सवाल था, भला बिक्रेता ना कैसे कहे ! अतः उसने कहा ठीक है चलिए मैं स्वयं आपके घर इसे लेकर चलता हूँ। संध्या होने को थी अतः चारों मानुष और एक प्यारी बछिया नें रुख किया मुकुंद के घर की दिशा में। रास्ते में बात, हंसी ठिठोली करते घर की दूरी का पता ही न चला और बछिया अपने नए मालिक के द्वार पर आ गयी।
हिन्दू समाज में बछिया पूज्यनीय है, इससे पहले की बछिया को नांद में चारा दिया जाता। तिवारी जी की पत्नी नें पहले बछिया की पुजईया करी फिर उसके बाद बिक्रेता नें स्वयं अपने हाथ से बछिया को नांद के पास गड़े खूँटे से बांध दिया और विदा लेते हुए द्वार से चल पड़ा। जानवरों में भी संवेदना होती है यह बछिया के भावों को देख प्रतीत हो रहा था !! अपने पालक को जाता देख वो सुन्दर भूरे रंग की बछिया आवाज़ भी दे रही थी मानो जैसे उसकी इच्छा इस नए घर में रहने की न हो। नए घर में प्रवेश करने से जायदा दुःख तो उस अनबोलते जीव को यह हो रहा होगा की उसे अब अपनी माँ (गईया) से सदा के लिए जुदाई मिल गयी। वहां उपस्थित मुकुंद तिवारी और उनकी धरम पत्नी अत्यंत हर्षित थे बछिया के आगमन पर। पशु प्रेमी मुकुंद के लिए बछिया उनके परिवार के सदस्य से कम न थी।
पाँच भैसों के बीच एक सुन्दर सी बछिया सबके लिए खिलौने के समान थी। मुकुंद का छोटा बेटा मनु तो उसके साथ खेलता रहता था; यह दृश्य अब प्रतिदिन देखने को प्राप्त होता। कहते हैं गाय शुभ होती है और आज देख भी लिया मुकुंद ने धीरे से यह बात अपनी पत्नी को कही। दूसरे घर से आई बछिया भी अब अपने नए घर को प्राप्त कर ख़ुशी से रहने लगी खासकर उसे मनु का साथ तो अत्यंत लुभाता था।
मुकुंद तिवारी धनि व्यक्ति थे, सब कुछ यूँ ही कुशल मंगल चलता रहा। बेटा मनु और बछिया समय के साथ बड़े होते गए, हालांकि मनुष्य किसी पशु की अपेक्षा धीमी गति से बड़ा होता है अतः छोटी सी दिखने वाली बछिया एक गाय का रूप धारण कर चुकी थी और मनु अभी भी अपनी बाल्यावस्था में ही था। एक दिन उसी गाय से एक बछड़ा भी प्राप्त हुआ। स्थिति यह हो गयी की मुकुंद तिवारी का द्वार ही पशु मेले के समान लगने लगा। अब तो उनका सेवक ब्रिज बहादुर भी ये कहने लगा की मालिक एक काम कीजिए कुछ मवेशी को बेच देते हैं। परन्तु वह जब जब यह कहता मुकुंद तिवारी मुस्कुराकर रह जाते, वहीँ बछिया से जन्मा बछड़ा भी कुछ बड़ा हो गया।
एक दिन मुकुंद तिवारी के द्वार पर कुछ लोग आन खड़े हुए और बछड़े के संबंध में बातें करने लगे। बात यह थी की, गांव में एक ही सांड रह गया था जो अब बूढ़ा हो चुका था। द्वार पर आये अतिथि सरकारी ऑफिस के लोग जान पड़ते थे, उनकी यह राय थी की मुकुंद तिवारी अपने बछड़े को सांड बनाकर गांव में छोड़ दें ताकि गायों के प्रजनन की क्षमता आगे बाधित न हो।
भारत भी अजीब देश है, यहाँ अगर किसी मनुष्य के घर कन्या का जन्म हो तो वह दुःखी हो उठता है और इसके विपरीत यदि उसके द्वार पर खड़ी गाय किसी बछिया को जन्म दे तो हर्ष और उल्लास का माहौल होता है। अतः मुकुंद तिवारी यह जानते थे की बछड़ा उनके लिए कोई खास मायने नहीं रखता। बिना देर किये उन्होंने उन सरकारी पशु विभाग से आये व्यक्तियों को यह कह दिया की वे राजी हैं बछड़े को सांड के रूप में छोड़ने के लिए। सरकारी सांड विशेष अहमियत रखता है, सरकारी पशु विभाग इसका लाइसेंस देता है जिसपर सांड (बछड़ा) का नंबर भी अंकित होता है। अगले दिन वह सरकारी अफसर पुनः दरवाज़े पर आये जो अपने साथ कुछ लोहे के उपकरण भी लाये थे। देखते ही देखते छोटे और मासूम से दिखने वाले बछड़े के चारों पैर बांध कर ज़मीन पर गिरा दिया गया और लोहे को तेज़ आँच पर गरम कर उसके शरीर पर दागा गया। अंग्रेजी अक्षर में यह “T-17” था, जो बछड़े का सरकारी लाइसेंस नंबर था। गरम लोहे से दागे जाने की वेदना क्या होती है आप स्वयं उसकी कल्पना कर सकते हैं। दर्द से चीखते बछड़े की वेदना किसी ने जानी या न जानी हो परन्तु बेटा मनु यह दृश्य देख अत्यंत दुःखी हो उठा।
दागे जाने के उपरांत सरकारी अफसर उस बछड़े को अपने साथ दूर ले जाकर उसी गांव में छोड़ देते हैं। द्वार पर दौड़ता भागता नन्हा बछड़ा अब नहीं था, जिसकी वजह से गाय आवाज़ लगा रही थी। मुकुंद तिवारी ने उसकी नांद में चारा दिया मगर गाय नें चारे को देखा तक नहीं। उधर बेटा मनु भी उदास हो गया, उसकी नाराज़गी मुकुंद तिवारी भली-भाँति समझते थे। कुछ दिनों तक परिवार में शोक जैसा माहौल रहा मानो किसी इंसान की मृत्यु हो गई हो, पर अगले ही दिन जो हुआ उसे देख सब आश्चर्यचकित थे।
जिस बछड़े को गरम लोहे से दाग कर सरकारी अफसरों नें दूर गांव में छोड़ दिया था, आज वही बछड़ा वापस अपने द्वार पर प्रवेश कर चुका था। क्या पशु भी अपना घर पहचानते हैं ? क्या पशु भी अपनों से मिलने की ख्वाहिश रखते हैं ? क्या उनमें भी जज़्बात होते हैं ? इन तमाम प्रश्नों का उत्तर हाँ था। मुकुंद तिवारी के द्वार पर लगा विशाल दरवाज़ा जिसमें एक छोटा दरवाज़ा भी था वह खुला रह गया और उसी छोटे दरवाज़े से बछड़ा अंदर दाखिल हो अपनी माँ के पास पहुँच गया। घर के सभी बड़े सदस्य और बेटा मनु इस दृश्य को देख भावुक हो उठे, मानों उन्हें अपने कृत्य का अफ़सोस हो। बछड़ा अब सरकारी सांड था उसे घर में नहीं रखा जा सकता, इसलिए मुकुंद तिवारी नें अपनी पत्नी को कुछ रोटियाँ लाने को कहा और बेटे मनु के हाथ में देते हुए बोले – जा….जाकर अपने बछड़े को खिला दे। रोटियाँ खिलाने के उपरांत फिर उसे घर से बाहर कर दिया गया; इस प्रकार बछड़ा अब प्रतिदिन आता….. अपनी माँ से मिलता…..मनु उसे रोटी खिलाता और अंत में फिर उसे दरवाज़े से बाहर कर दिया जाता।
कुछ महीने बीतने के पश्चात, अब वह नन्हां जीव बछड़े जैसा न रह गया, उसका शरीर पूर्णतः सांड की तरह का हो चुका था, भारी भरकम। पूरे गांव में वह सांड प्रसिद्ध हो गया क्यूंकि वह मुकुंद तिवारी जैसे रसूखदार व्यक्ति का था और सरकारी भी; इस एक सांड से गायों की प्रजनन क्षमता में काफी इजाफा भी हुआ। द्वार पर खड़ी भूरे रंग की गाय जिसे मुकुंद तिवारी ने कई वर्ष पहले पशु मेले से ख़रीदा था अब वह नहीं रही पर उसकी निशानी सांड अब भी दरवाज़े पर आकर प्रतिदिन मनु के हाथ से रोटी खाकर जाता।
चंद वर्ष गुजरे ही थे की, अचानक 4 दिनों तक सांड मुकुंद तिवारी के दरवाज़े पर नहीं आया। मनु अब जवान युवक था पर सांड का न आना उसे सोच में डाल दिया उसने पिता मुकुंद से सवाल किया – बाबूजी चार दिन हो गए अपना बछड़ा नहीं आया रोटी खाने ! तिवारी बोले – बेटा वह सांड है, कोई ले गया होगा दूर गांव में, वह आ जायेगा। 4 दिन 7 दिनों में बदले और 7 दिन 15 दिन में परन्तु सांड नहीं आया। बेटा मनु स्वयं पशु कार्यालय में जा पहुंचा बछड़े का लाइसेंस हाथ में लिए जिसपर T-17 लिखा था। पशु अधिकारीयों नें उसकी छानबीन की और तिवारी जी के यहाँ संदेशा भेजा। बेटा मनु और स्वयं मुकुंद तिवारी अपने बछड़े अर्थात सांड की दशा देख रोने लगे।
सांड अब जीवित न था, बिजली विभाग की लापरवाही उन्होनें ट्रांसफॉर्मर को ज़मीन पर रख दिया था। एक दिन बरसात में वह सांड विचरण करते उस ट्रांसफॉर्मर से जा चिपका और बिजली का करंट लगने से उसकी मौत हो गयी। अब द्वार पर न भूरे रंग की गाय थी, न ही छोटा बछड़ा और ना ही सांड जो प्रतिदिन रोटी खाने आता था।
लेखक:
रवि प्रकाश शर्मा
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रवि प्रकाश शर्मा
मैं रवि प्रकाश शर्मा, इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी से ग्रेजुएट। डिजिटल मार्केटिंग में कार्यरत; डिजिटल इंडिया को आगे बढ़ाते हुए हिंदी भाषा को नई ऊंचाई पर ले जाने का संकल्प। हिंदी मेरा पसंदीदा विषय है; जहाँ मैं अपने विचारों को बड़ी सहजता से रखता हूँ। सम्पादकीय, कथा कहानी, हास्य व्यंग, कविता, गीत व् अन्य सामाजिक विषय पर आधारित मेरे लेख जिनको मैं पखेरू पर रख कर आपके समक्ष प्रस्तुत करना चाहता हूँ। मेरे लेख आपको पसंद आयें तो जरूर शेयर कीजिये ताकि हिंदी डिजिटल दुनियां में पिछड़ेपन का शिकार न हो।