लालटेन – लघु कथा
द्वार पर बैठे ‘बाबा सुखीराम‘ ने अपने नाती-पोतों को आवाज़ मारते हुए कहा – सांझ हो गया जी, तुमलोग लालटेन नहीं बारे ? चलो सबलोग लालटेन लेकर आओ पढ़ाई करो !
प्रतिदिन शाम के 7 बजते ही ‘बाबा सुखीराम’ यूँ आवाजें मारकर बच्चों को पढ़ने के लिए बुलाते। सुखीराम अपने ज़माने के बड़े पढ़े लिखे आदमी थे अतः वे चाहते थे की उनके नाती-पोते पढ़ाई में उनसे भी ज्यादा होशियार बनें। घर में तीनों बहुओं के बच्चे अंगूर के गुच्छे की तरह कुछ छोटे और कुछ बड़े थे, उनमें से कोई खट्टा था तो कोई अत्यंत मीठा।
बड़ा पोता, लालटेन का शीशा पोछते हुए बड़बड़ाया – फोड़ दें क्या आज इसको !! छोटा वाला बोला ना!!…बाबा मारेंगे।
एक ने तो मिट्टी का तेल ही कम डाला लालटेन में ताकि जल्दी ख़तम हो जायेगा तो पढ़ाई से मुक्ति मिलेगी।
…अरे लाओ जी, ले नहीं आये अभी तक !! सुखीराम ने पुनः उच्च स्वर में कहा।
हुम्म्म।।। जब तक 10 बार नहीं कहा जायेगा तब तक तुमलोग पढ़ने नहीं आओगे..अपना मन से नहीं बुझाता है तुम लोगों को ? पढ़ लो जीवन में यही काम आयेगा।.. चलो चटाई बिछाओ यहाँ।
पिंकू बताओ – 2 की घात 7 का मान क्या होगा ? चलो जल्दी से हल करके दिखाओ।
गुड्डू बताओ – दिए गए पूर्णांकों को परिमेय संख्याओं के रूप में लिखो जिनका हर 1 हो।
सोनू – आ तुमको नींद आ रहा है जी ?? पढ़ाई के नाम पर ‘उहांई’ लगने लगता है तुमको।
बाबा सुखीराम के सवालों और बच्चों के जवाबों का सिलसिला हरदिन यूँ ही चलता।…सालों गुजर गए !! अंगूर के गुच्छे के समान रहने वाले बच्चे एक दूसरे से टूटकर अलग हो गए। कोई बैंक में, कोई सरकारी पोस्ट ऑफिस में..तो कोई शहर में…सब जहां-तहां कार्यरत हो गए और सबका अपना घर बस गया।
गुजरे कई सालों बाद पिंकू की दुल्हन शहर से गांव आयी थी। गांव के पुराने मकान में एक कमरा ऐसा भी था जहां सदियों से किसी ने रौशनी न जलाई। मोबाइल के उजाले में देखा तो खूंटी पर एक ‘लालटेन’ टंगा था। कभी घर में रौशनी बिखेरने वाला यह लालटेन विगत कई वर्षों से अंधेरी कालकोठरी में सज़ा काट रहा था।
आ…जी, सुन रहे हैं आप!! पिंकू की दुल्हन ने पिंकू से पूछा – हई लालटेनवा आज ले काहे सम्हार के रखे हैं ? फेंक दे का इसको। पिंकू ने जवाब देते हुए कहा – माथा चटक गया क्या तुम्हारा ? अरे वो तुम्हारा झुमका और बाली थोड़ी मांग रहा है जो फेंकने जा रही हो।
ई तो हमरे बाबा का निशानी है, यही तो हमारे ज्ञान का दीपक है !!
खूंटी पर टंगे…धुल गर्दे और जालों से लिपटे लालटेन को पिंकू ने अपने बचपन वाले अंदाज़ में प्यार से पोछा और साफ़ किया। मिट्टी का तेल डालकर जैसे ही माचिस लगायी।.. लालटेन अंधेरी कालकोठरी की सज़ा से मुक्त होकर जगमगाने लगा।
पिंकू ने अपनी पत्नी को गर्व से दिखाते हुए कहा – देखो तो !!
अभी भी वैसे ही रौशनी कर रहा है…तुम कहती हो फेंक दें का इसको।
पत्नी ने ताना मारते हुए कहा – हां ठीक है, लटका लीजिये अपना गला में और इतना कहकर वो चली गयी।
पिंकू जलती लालटेन के सामने बैठकर बाबा सुखीराम और उनके सवालों को यादकर मुस्कुराने लगा।
लेखक:
रवि प्रकाश शर्मा
About Author
रवि प्रकाश शर्मा
मैं रवि प्रकाश शर्मा, इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी से ग्रेजुएट। डिजिटल मार्केटिंग में कार्यरत; डिजिटल इंडिया को आगे बढ़ाते हुए हिंदी भाषा को नई ऊंचाई पर ले जाने का संकल्प। हिंदी मेरा पसंदीदा विषय है; जहाँ मैं अपने विचारों को बड़ी सहजता से रखता हूँ। सम्पादकीय, कथा कहानी, हास्य व्यंग, कविता, गीत व् अन्य सामाजिक विषय पर आधारित मेरे लेख जिनको मैं पखेरू पर रख कर आपके समक्ष प्रस्तुत करना चाहता हूँ। मेरे लेख आपको पसंद आयें तो जरूर शेयर कीजिये ताकि हिंदी डिजिटल दुनियां में पिछड़ेपन का शिकार न हो।