रेडियो – एक लघु कथा

सन 1980-1990 का दशक बिन रेडियो के अधूरा था। अब रेडियो के महत्त्व को क्या बतलायें; उस ज़माने में घर के हर एक सदस्य के पास अपना रेडियो होता था। बाबा का अपना, पिताजी का अपना, माँ का अपना और पढ़ने वाले बच्चों का अपना। समाचार, क्रिकेट कमेंट्री, सखी सहेली और विविध भारती लोगों की लाइफलाइन हुआ करते थे।

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रेडियो की प्रस्तुति और परिवार के लोगों की प्रतिक्रिया:

समाचार –
“हवाला केस की जाँच अब सी.बी.आई के अधिकारी करेंगे” – बाबा तिलमिलाते हुए, ख़ाक जांच करेंगे। ई नेता देश को लूट के रख दिए हैं।

खेल समाचार –
“मनोज प्रभाकर को होने वाले 1992 वर्ल्ड कप की टीम में शामिल कर लिया गया” – पिता जी, फिर ई प्रभाकरवा को टीम में काहे रख लिया सब।

सखी सहेली कार्यक्रम –
“सखी सहेली शाम 3:00 बजे, मैं ममता सिंह आज का विषय है गृहणियों की समस्यायें” – माँ, कोई तो हमारी समस्यायों पर बात करता है।

छाया गीत कार्यक्रम –

मैं कमल शर्मा;
दोस्तों ये इन्सां भी कितना अजीब है मन में अनेकों हसरतें लिए सबकुछ पा लेने की असीम तमन्ना रखता है। रात के 10:00 बज चुके हैं नीला आसमां गहरे काले रंग की चादर से ढक चुका है। काले आसमां से झांकती टिमटिमाते हुए तारों की रौशनी मानो रात्रि का श्रृंगार कर रही हों। सफ़ेद चमकीले तारों के ये आभूषण भी काश हमें मिल जाते…..!!!! उधर बिस्तर पर टिंकू..खर्र खर्र !

अबे टिंकू तुम सो गए क्या ? बगल में लेटे चिंटू ने प्रश्न किया।
टिंकू बोला – अबे सोये न तो का करें।
ई कमल शर्मवा पिछले 5 मिनट से – आसमां, तारा, श्रृंगार, अँधेरा जैसी डीलिंग फेंके जा रहा है, एको गाना नहीं सुनाया।

कमल शर्मा, बोलना जारी रखते हुए…
दोस्तों…टिमटिमाते तारों का ये मूल्यवान आभूषण हमें कभी प्राप्त नहीं हो सकता ! क्योंकि “कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता” !

चलिए सुनते हैं निदा फ़ाज़ली की ये ग़ज़ल,
जिसे लिया गया है फिल्म आहिस्ता आहिस्ता से और
सुरों से सजाया है खय्याम ने।

टिंकू फिर बोला – इतना बकैती काट के 1 गाना बजाये।

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीन तो कहीं आसमान नहीं मिलता !!

जिसे भी देखिये वो अपने आप में गुम है
ज़ुबाँ मिली है मगर हमज़ुबाँ नहीं मिलता !

बुझा सका है भला कौन वक़्त के शोले
ये ऐसी आग है जिसमे धुआँ नहीं मिलता !

तेरे जहाँ में ऐसा नहीं कि प्यार न हो
जहाँ उम्मीद हो इसकी वहाँ नहीं मिलता !

कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीन तो कहीं आसमान नहीं मिलता !!

भोर होती है, नींद खुलते ही बाबा सवाल करते हैं –

रात में रेडियो कौन चलता छोड़ दिया था ? खरखर..खरखर करता रहा है पूरा रात ! रेडियो लाके दिए कि तुमलोग कुछ समाचार सुनोगे पढोगे सीखोगे जानोगे…पर तुमलोग खाली गाना बजाना सुनने के कुछ नहीं कर सकते। आइन्दा ऐसा किये तो रेडियो का बैटरी निकालकर रख देंगे..समझे नालायक !

कहते हैं दौर गुजर जाता है यादें छोड़ जाता है। घर में बाबा तो रहे नहीं और रेडियो घर की किसी वीरान जगह में हमेशा के लिए दफ़्न हो चुका है। कभी छत, आँगन, बरामदे, टेबल और चारपाई के नीचे हमेशा साथ रहने वाला ‘रेडियो’ 21वीं सदी में आकर विलुप्त हो चुका है। आप कहेंगे नहीं मोबाइल पर तो है, कार में अभी भी लगा हुआ है, ऑनलाइन भी है। हां है…मगर नहीं है !!

दुनियां में हर एक चीज़ होने से न होने तक का सफर तय करती है। जैसे मेरा और आपका शरीर जो आज है पर कल नहीं होगा…हम हमेशा के लिए नष्ट हो चुके होंगे। यही जीवन का सार है !

लेखक:
रवि प्रकाश शर्मा