राम जी – एक हिंदी कहानी
सन 1992, Montessori Junior High School जो की एक गैर सरकारी विद्यालय था; जिसमें कक्षा 1 से लेकर कक्षा 8वीं तक के बालक बालिकाएं अध्ययन किया करते थे। यह विद्यालय गैर सरकारी होते हुए भी सरकारी विद्यालयों की तरह ही जान पड़ता था, जहाँ दौर के हिसाब से व्यवस्था अत्यंत ही साधारण थी। परन्तु 1992 के दशक में व्यवस्था की परवाह किसे थी; यह वो दौर था जिसमें लोग विषम परिस्थितियों में रह कर भी हंसी ख़ुशी जीते थे और जीवन में कामयाबी भी हासिल करते थे।
वक़्त दोपहर 12 बजे, स्कूल के प्रांगण में लटकी चपटे गोल आकार वाली पीतल की घंटी पर चपरासी नें जैसे ही हथौड़े से चोट की “टन…टन…टन” मानो चारो तरफ हँसने और चिल्लाने का शोर उमड़ पड़ा। असल में यह शोर किसी और का नहीं अपितु वहां सैकड़ों पढ़ने वाले नन्हे बालक व बालिकाओं का था। यह समय था दिन के भोजन और क्रीड़ा का जिसका इंतज़ार बच्चे प्रतिदिन किया करते थे। रोजाना 1 घंटे का दिया जाने वाला ये मध्यांतर जिसको लेकर बच्चे बड़े ही उत्सुक रहते थे, वजह “राम जी” ।
घर से माँ नें टिफिन बनाकर बस्ते में डाला तो था पर उसे खाने में सभी की रूचि कुछ कम ही होती थी। राहुल अपना टिफिन खोलते हुए बोला – यार आज 3 पराठे मम्मी ने दे दिए…सुन बलवंत यार तू मेरा एक पराठा भी खा ले। राहुल की बात सुन, बलवंत जवाब देते हुए बोला – मैं नहीं खाता तेरा पराठा मुझे तो Ice Cream खाना है…पता है मेरे पास आज 2 रुपए हैं। राहुल और बलवंत के साथ-साथ कक्षा के अन्य सहपाठी – प्रिया, आशुतोष, राजेश, संदीप, मंजीत और नदीम भी अपना-अपना टिफिन बॉक्स जल्दी ख़तम कर दौड़ चले स्कूल के मुख्य द्वार की ओर। स्कूल का मुख्य द्वार बच्चों के क्रीड़ा स्थल के साथ ही लगा हुआ था। सभी बच्चे घर का खाना कम खाते पर स्कूल के मुख्य द्वार पर लगे विशालकाय लोहे के दरवाज़े के सामने प्रतिदिन – चाट पकौड़े, कुल्फी आइसक्रीम, चूरन खटाई, चना और चुरमुरा खाना सभी को बेहद पसंद हुआ करता था। उस ज़माने में किसी के पास 50 या 100 रुपए नहीं बल्कि सिर्फ 1 या 2 रुपए ही हुआ करते थे जो जेब खर्च और खान-पान के लिए पर्याप्त थे। 1 या 2 रुपए के सिक्कों के बजाय जेब में 5 पैसे, 10 पैसे, 20 पैसे के सिक्के थे जो अब हमारी आँखों से ओझल हो चुके हैं।
स्कूल की नीली हाफ पेंट में हाथ डालते हुए राहुल नें 5 पैसे निकाले और कहा – वो मलाई वाली आइसक्रीम देना, प्रिया नें कहा – मुझे लाल वाली, बलवंत ने थोड़ा देहाती लहजे में बोलते हुए कहा – उ सफ़ेद वाली बरफ देना !! कई अन्य बच्चे – चूरन, चाट, खटाई इत्यादि खरीदते खाते और फिर मुस्कुराते हुए स्कूल प्रांगण में इधर उधर दौड़ लगाते। नीली पैंट, सफ़ेद शर्ट और लाल टाई लगाए नन्हें से बच्चे बागीचे में खिले पुष्प के समान प्रतीत हो रहे थे। कक्षा में पढ़ने वाले संदीप और आशुतोष तो अपने बस्ते में “सुपर कमांडो ध्रुव” , “नागराज” , “भोकाल” , “चाचा चौधरी” और “परमाणू” जैसी प्रसिद्ध कॉमिक्स के साथ उनके नायकों के स्टीकर भी रखते थे जो उस ज़माने में मात्र 8 रुपए की मिलती थी।
राम जी उस स्कूल में पढ़ने वाले हर बच्चे की ख़ुशी का कारण थे, जिस दिन वे नहीं आते बच्चे उसदिन स्कूल आना व्यर्थ समझते। Montessori Junior High School में पढ़ने का सिलसिला 5 साल इसी तरह चला। समय के साथ राम जी बच्चों के लिए सच में राम तुल्य ही बन गये। परन्तु कुछ बच्चे पाँचवीं तक अध्यन करने के पश्चात उस विद्यालय को अलविदा कह गए, तो कुछ कक्षा आठवीं तक वहीँ अध्यनरत रहे। जैसे जैसे बच्चे उम्र के पड़ाव को पार का बीज से पौधे का रूप ले रहे थे राम जी की अवस्था भी बढ़ती जा रही थी मगर इतने सालों में राम जी और बच्चों के बीच एक अटूट प्रेम का बंधन बंध चुका था जिससे स्वयं राम जी भी अलग नहीं होना चाहते थे।
समय पर जोर किसका चला है, आखिर वह दिन आ ही गया जब बच्चे Montessori Junior High School में पढ़ते हुए अपनी आखरी कक्षा 8वीं में प्रवेश कर गये। कुछ महीने के उपरांत कक्षा आठवीं की परीक्षा समाप्त हुई और फिर राहुल, बलवंत, प्रिया और नदीम जैसे कक्षा मित्र सदा के लिए जुदा हो गए। कोई उसी शहर में किसी दूसरे स्कूल में चला गया जो कहीं दूर स्थित था तो कोई उस शहर से बाहर चला गया बड़ी शिक्षा हासिल करने। पर राम जी ??…..कहाँ गए ? भला राम जी कहाँ जाते..वो तो उस विद्यालय के क्षात्र नहीं थे !! समय किसी पखेरू की भाँती है जो एक पल में यहाँ तो दूसरे पल में वहाँ उड़ता फिरता है। राहुल, बलवंत, प्रिया और नदीम यह चार बच्चे राम जी के बेहद करीब रहे जो अब कहाँ चले गए कौन जाने…..!!
राहुल का परिवार 1998 के बाद उस शहर से बाहर चला गया। एक तरफ पिता की नौकरी और दूसरी तरफ राहुल का भविष्य जिसे ध्यान में रख राहुल का परिवार दूसरे बड़े शहर चला गया; हाँ मगर परिवार के अन्य रिश्तेदार उसी शहर में रहे। सन 1998 से 2013 तक आते-आते राहुल अब नौजवान युवक बनने के साथ ही एक कुशल इंजीनियर भी बन चुका था। बीते 15 साल के अंतराल में राहुल अपने जीवन में कामयाबी के उच्त्तम शिखर पर था अपनी बीवी, बच्चे और बुजुर्ग माता पिता के साथ। यूँ ही कुछ और वर्ष बीते 2013 से वर्ष 2017 में आकर राहुल की माता का निधन हुआ जिसके फलस्वरूप राहुल को अपने जन्म स्थान की पुनः यात्रा करनी पड़ी जहाँ उसके अन्य रिश्तेदार रहते थे। राहुल का जन्म स्थान कोई अन्य नहीं बल्कि वही शहर था जहाँ वो 1992 से 1998 तक Montessori Junior High School में पढ़ा।
एक तरफ माता की मृत्यु का दुःख तो दूजी ओर अपने पुराने शहर में पूरे 19 साल बाद वापसी का मोह, दोनों का भाव राहुल के चेहरे पर साफ़ दर्शित हो रहा था। माता के क्रियाकर्म के पश्चात जब राहुल की पत्नी नें उसे वापस शहर चलने की बात कही तो वह बोला – बस कुछ दिन और रह लो यहाँ, आज मैं जो कुछ भी हूँ उसमें इस छोटे शहर का बड़ा योगदान है….बस कुछ दिन और जी लेने दो यहाँ, मुझे किसी की तलाश है। तलाश…..? पत्नी नें आश्चर्यवश प्रश्न किया…किसकी तलाश है तुम्हें ?? राहुल नें कहा – राम जी ।
राम जी ?…भला ये कौन है ! तुमने मुझे कभी बताया नहीं !!
मैं क्या बताता, वो कोई हमारे परिवार का सदस्य नहीं है पर इस शहर में आकर मुझे उनकी याद आ गयी। जाने क्यों मन उनसे मिलने को कर रहा है…बहुत यादें जुड़ीं हैं उनसे…कैसी यादें ? पत्नी नें उत्सुकतावश पूछा !! राहुल ने कहा – मेरे बचपन की यादें !!
पति-पत्नी की ये वार्ता जारी ही थी की राहुल की नज़र घर के बरामदे में लगी दीवाल घड़ी पर पड़ी जिसमें दिन के 12 बजने में पूरे 30 मिनट बाकी थे। घड़ी पर नज़र पड़ते ही राहुल बाहर को चल दिया।
आज राहुल को बड़ी लालसा थी अपने उस छोटे से विद्यालय को देखने की जिसका नाम था Montessori Junior High School, राहुल को रास्ते व गलियां 19 साल बाद भी अच्छे से याद थे, जिन रास्तों पर वह चलकर स्कूल जाया करता था; बस उन रास्तों पर अब भीड़ पहले से ज्यादा बढ़ गई थी। घर से स्कूल की दूरी ज्यादा न थी, 30 मिनट के अंदर ही राहुल वहां पहुँच गया जहाँ पहले उसका स्कूल हुआ करता था। चारों तरफ नज़रें घुमाकर देखा पर स्कूल कहीं नज़र नहीं आ रहा था, एक पल को उसे ये लगा की शायद वह भूल से गलत जगह आ गया है। आत्म संतुष्टि के लिए उसने दूर खड़े एक व्यक्ति से प्रश्न किया – भाई साहब क्या आप बता सकते हैं यहाँ जो विद्यालय था वो अब कहाँ गया ! विद्यालय ?….कौन सा विद्यालय ? दूर खड़े व्यक्ति नें पुनः ये सवाल राहुल से किया। राहुल कुछ बोल पाता इससे पहले ही वह व्यक्ति बोला – भाई साहब मैं इस शहर में 5 साल पहले ही आया हूँ तब से मैंने यहाँ कोई विद्यालय या स्कूल नहीं देखा।
विगत 19 वर्षों में शहर की व्यवस्था पूर्णतः परिवर्तित हो चुकी थी। राहुल मायूसी के साथ वहाँ से पीछे मुड़ा और राह चलते एक बुजुर्ग से दुबारा यह सवाल किया – दादा आप तो इस शहर के ही जान पड़ते हैं; क्या आपको याद है यहाँ एक स्कूल हुआ करता था। दादा मुस्कुराते हुए बोले – बेटा लगता है कई वर्षों के बाद तुम्हरा आगमन हुआ है इस शहर में। मोंटेसरी जूनियर हाई स्कूल की बात कर रहे हो ना ?? बुजुर्ग व्यक्ति से अपने स्कूल का नाम सुनकर राहुल के चेहरे पर मुस्कान दौड़ आयी और बोला – हां दादा। बेटा वह स्कूल अब नहीं रहा; आज से 10 साल पहले ही उस स्कूल को गिरा दिया गया और उसकी जगह “दलित बस्ती” का निर्माण सरकार ने करा दिया। ये जो कॉलोनी तुम देख रहे हो ये तुम्हारे स्कूल की ज़मीन पर ही तो बनी है; जरा ध्यान से देखो स्कूल का जितना परिसर था उस पूरे परिसर को घेरकर ही “दलित बस्ती” का निर्माण हुआ है। राहुल नें करुण भाव से पुनः कहा – दादा स्कूल की जगह दलित बस्ती कोई कैसे बना सकता है ? स्कूल की जगह तो स्कूल ही होना चाहिए ना….बस्तियां तो कहीं अन्य स्थान पर भी बनाई जा सकती हैं।
बुजुर्ग दादा जी राहुल की तरफ प्रेम पूर्वक देखते हुए बोले – बेटा हम जिस देश में रहते हैं वहाँ सियासत पहले स्थान पर आती है। देश में बैठे सियासतदारों को हमारी भावनाओं से कोई सरोकार नहीं वे तो केवल वोट और राजनीति के तहत ही कार्य करते हैं। स्कूल गिराए जाने का विरोध यहाँ के स्थानीय लोगों ने किया, यहाँ तक की कुछ लोग तो स्कूल के नवीनीकरण की मांग भी कर रहे थे परन्तु वे सभी सफल न हो सके। जातीय वोट बैंक की चाहत नें एक सुन्दर विद्यालय को नष्ट कर दिया। राहुल को यह बात बोलकर बुजुर्ग दादा वहां से आगे प्रस्थान कर गए; कुछ देर राहुल अपने स्थान पर खड़ा उस दलित बस्ती की ओर देखता रहा और फिर वहाँ से अपने घर की ओर प्रस्थान कर दिया।
राहुल के मन में राम जी से मिलने की तमन्ना अधूरी रह गयी थी; पर वह कहाँ मानने वाला था। अगले दिन वह फिर कई अन्य स्कूलों के सामने दिन के 12 बजे राहुल पहुंचा; यह सोचते की शायद राम जी अब दूसरे स्कूल के पास आते होंगे। पर उसे निराशा ही हाथ लगी, राम जी किसी अन्य स्कूल के सामने भी न दिखाई दिए। रात्रि में पत्नी नें राहुल की व्यथा जानने के लिए सवाल किया – तुमने बताया नहीं राम जी कौन हैं ? दो दिन से तुम्हें परेशान देख रही हूँ बताओ कौन हैं राम जी।
राहुल अपनी पत्नी को उत्तर देते हुए बोला – जानती हो, 1992 में मैं मोंटेसरी जूनियर हाई स्कूल में ही पढता था। पत्नी ने कहा – हाँ जानती हूँ ….! राहुल आगे बोलते हुए – मैं 1992 से 1998 तक उस स्कूल में पढ़ा, उस दौरान स्कूल के मुख्य द्वार पर रोजाना एक लड़का Ice Cream की ठेली लिए आता था। उसकी ठेली पिले रंग की थी जिसपर राम जी लिखा था। जब मैंने उससे पूछा की राम जी कौन है तो वह लड़का बोला ये तो मेरा ही नाम है। मैंने उस दिन से उसे आइस क्रीम वाला कहना बंद करके राम जी कहना शुरू कर दिया।
पत्नी ध्यान पूर्वक राहुल की बातें सुन रही थी; राहुल अपनी बातें दुःख प्रेम व प्रसन्नता को समाहित करते हुए कहता जा रहा था। पता है – राम जी केवल 15 साल का था और उसे भी पढ़ने की बड़ी इच्छा थी पर वह बेहद गरीब परिवार का था। एक दिन राम जी नें मेरी पुस्तकें देखने को मांगी और मुझसे ये जानना चाहा की इन पुस्तकों में क्या लिखा है और ये हमें क्यों पढ़ाया जाता है। मैं तो बहुत छोटा था, मगर राम जी उम्र में हमसे बड़े होते हुए भी बच्चा ही था। उसे स्कूल के अंदर आने का बड़ा मन करता…पर वो कभी अंदर नहीं आ सका। जानती हो – राम जी कभी मुझसे आइसक्रीम के पैसे नहीं लेता था, बस कभी कभी मेरी पुस्तकें अपने घर लेकर चला जाता यह कहते हुए की मैं भी पढूंगा। मैं और मेरा दोस्त बलवंत बारी-बारी अपनी पुस्तकें राम जी को देते थे जिसके बदले में हमें वो आइसक्रीम खिलाता । राहुल नें चौकते हुए अपनी पत्नी से कहा – तुम्हें जानकर हैरानी होगी, राम जी को गिनती और पहाड़े ठीक हमारे जैसे ही याद हो गए। हम सभी उसकी दी हुयी आइसक्रीम खाते और वो हमें कभी गिनती तो कभी पहाड़े सुनाता और पूछता की बताओ मैंने सही पढ़ा ना।
तुमको पता है, राहुल ने पत्नी को कहा !
मैंने कक्षा आठ पास करके अपनी सारी पुस्तकें राम जी को दे दीं। मैंने राम जी से मिलने का वादा किया था !! आज मैं 19 साल बाद उसे खोज रहा हूँ ! क्या मैं सच में दोस्त कहलाने के लायक हूँ ? राहुल का ये सवाल पत्नी से था।
बिना विराम लिए राहुल अपनी बात कहता जा रहा था।
आज मैं इंजीनियर हूँ , मेरे पास पैसा है….मैं राम जी को इसलिए खोज रहा हूँ ताकि मैं उसकी मदद कर सकूँ। क्या पता सच में उसे मेरी मदद की आवश्यकता हो !!
राहुल आदरपूर्वक बोला – राम जी आज मुझसे उम्र में बहुत बड़े होंगे और मैं जानता हूँ वे मुझे याद करते होंगे। अगर वो मुझे याद न करते तो भला मुझे उनकी याद कैसे आती !! अगर मैं उनसे मुलाक़ात न कर पाया तो….अब पता नहीं इस शहर मेरा आना कब होगा। आज मैं इस लायक हूँ की उन्हें छोटी-मोटी नौकरी दिला सकूँ !! या फिर उनके परिवार अथवा बच्चों की मदद कर सकूँ।
लगातार बोलते बोलते राहुल कुछ पल के लिए चुप हो गया। शायद वह जानता था की इस शहर में राम जी जैसे एक गरीब व्यक्ति को बिना किसी पते के खोज पाना असंभव है। कभी कभी तो वह ये भी सोचता की क्या पता वो आज जीवित हैं या नहीं !
रवानगी से पहले, राहुल पुनः उसी दलित बस्ती के समक्ष जाकर खड़ा हो गया मन में ये कल्पना लिए हुए की शायद राम जी वहां आ जायें।
पर राम जी नहीं आये…
लेखक:
रवि प्रकाश शर्मा
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रवि प्रकाश शर्मा
मैं रवि प्रकाश शर्मा, इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी से ग्रेजुएट। डिजिटल मार्केटिंग में कार्यरत; डिजिटल इंडिया को आगे बढ़ाते हुए हिंदी भाषा को नई ऊंचाई पर ले जाने का संकल्प। हिंदी मेरा पसंदीदा विषय है; जहाँ मैं अपने विचारों को बड़ी सहजता से रखता हूँ। सम्पादकीय, कथा कहानी, हास्य व्यंग, कविता, गीत व् अन्य सामाजिक विषय पर आधारित मेरे लेख जिनको मैं पखेरू पर रख कर आपके समक्ष प्रस्तुत करना चाहता हूँ। मेरे लेख आपको पसंद आयें तो जरूर शेयर कीजिये ताकि हिंदी डिजिटल दुनियां में पिछड़ेपन का शिकार न हो।