तीन बेटियां – हिन्दी कहानी
सुबह के 6 बज चुके थे, समय हो चला था दुकान खोलने का। सुखीराम नें अपने किराने की दुकान का शटर खोला; शटर की आवाज़ से वहां आस पास के लोग यह जान जाते थे कि सुखीराम की दुकान खुल गयी है। अभी तड़के दुकान खोली ही थी कि एक लड़के नें सुखीराम को आवाज़ लगाते हुए पूछा …. बाबा दूध की थैली है क्या ? सुखीराम नें धीमे स्वर में कहा नहीं बेटा अभी कहाँ, अभी 7 बजे तक दूध की गाड़ी आयेगी तभी दूध मिल पायेगा। तड़के जागना और भोर में पदयात्रा करना जिसे अंग्रेजी में वॉकिंग भी कहते हैं, लोगों को बहुत भाता था। थोड़ी ही देर में कई बुजुर्ग और जवान सुखीराम के दुकान की ओर से निकलते हुए जा रहे थे मॉर्निंग वॉक पर। जो भी सुखी को देखता “राम राम” कहकर निकलता; छोटे व् जवान बच्चे “प्रणाम बाबा” बोलकर जाते। विगत कई वर्षों से सुखीराम की सुबह ऐसी ही होती थी। समय के पाबंद सुखीराम अपनी 60 वर्ष की आयु में भी दुकान खोलने में तनिक भी देरी न करते, उनके लिए 6 बजना मतलब दुकान पर हाजिर होना था। दुकान खोल, साफ़ सफाई में व्यस्त सुखीराम को उनकी सबसे बड़ी बेटी ‘रीता’ नें आवाज़ लगायी बाबूजी चाय बन गयी लाऊँ क्या आपके लिए ? हाँ बेटी ला दे, सुखीराम बोले।
मोहल्ले के ही एक वरिष्ठ व्यक्ति “पारसनाथ” सुबह सुबह सुखीराम की दुकान पर आ धमके और फिर हमेशा की तरह ताने मारते हुए कहा – क्या सुखी, बड़ी बेटी की तो शादी नहीं की अब क्या मझली और छोटी बेटियों को भी सारी उमर कुँवारा ही रखोगे ? अरे कम से कम अपने पिता होने का फ़र्ज़ तो अदा कर दो; क्या होगा इन तीनों बेटियों का जब तुम दुनियां में नहीं रहोगे ?? तभी बड़ी बेटी रीता नें चाय रखते हुए सुखीराम से कहा – बाबूजी चाय लो। पारसनाथ भी ब्रेड और अंडे लेकर अपने घर को चल दिए। बेटी रीता नें सुखीराम से सवाल पूछते हुए कहा – बाबूजी आप पारसनाथ को जवाब क्यों नहीं देते ? उनको क्या पड़ी है हमारी शादी की, हम कौन सा उनपर निर्भर हैं ? उनका यूँ रोज-रोज आपको टोकना हमें अच्छा नहीं लगता। सुखीराम नें सहजता से उत्तर दिया – बेटी वो भी तो ठीक कह रहे हैं। कब तक तुम तीनों शादी नहीं करोगी। एक लड़की के लिए अकेला रहना कितना कष्टदाई है। अंदर से अन्य दो बेटियां भी दुकान में आकर बोलीं..बाबूजी हमें कोई कष्ट नहीं है और न होगा कभी। शादी न करने का फैसला हमने सोच समझकर लिया है। मझली बेटी “चंदा” और छोटी बेटी “तारा” को समझाते हुए सुखीराम फिर बोले – अरी, कम से कम तुम दोनों तो शादी के लिए हाँ कर दो। पिता हूँ तुम तीनों का मेरे भी कुछ अरमान हैं और फिर मेरे मरने के बाद तुम तीनों कैसे रहोगी; समाज तो हमेशा ही बहू-बेटियों पर गन्दी नजरें रखता है; कौन हिफाजत करेगा तुम्हारी। आज तुम्हारी माँ “गायत्री” जीवित होती तो क्या अब तक तुम तीनों बिन ब्याही रहती। वो बोल कर गई थी मुझसे की बेटियों की शादी कोई अच्छा वर देखकर कर देना। पर तुम तीनों नें मेरी एक न सुनी; पारसनाथ नें क्या गलत कहा ? उन्होनें सब सच ही तो कहा। सुखीराम नाराज होकर चाय हाथ में लिए अंदर घर में चले गए।
पिता सुखीराम और उनकी तीनों बेटियों – रीता, चंदा और तारा के बीच यह वाद विवाद प्रतिदिन हो ही जाया करता था। देखते देखते समय यूँ ही आगे बढ़ता रहा, बड़ी बेटी रीता 38 वर्ष, मझली बेटी चंदा 33 वर्ष और छोटी बेटी तारा 27 वर्ष की हो गयीं पर अपने पिता को अकेला छोड़कर जाने को कोई भी राजी न थीं। माँ गायत्री से सुखीराम को कोई बेटा न हुआ; बेटा न होने से सुखीराम और गायत्री दोनों दुःखी जरूर रहते थे मगर उनको अपनी बेटियों पर नाज था। माँ गायत्री नें भी बेटी रीता को शादी के लिए कई बार मनाया पर वो कभी न मानी। रीता हमेशा यही कहती रही माँ – अगर मैं शादी कर लूँगी तो मेरी दो बहनों का ख़याल कौन रखेगा। आपकी और बाबूजी की उम्र भी तो ज्यादा हो गयी है; कितने कमजोर हो गए हैं आप दोनों।
माँ के रहते बड़ी बेटी रीता का तो विवाह हो न सका पर मझली बेटी चंदा के रिश्ते की बात एक जगह बनी पर वो भी टूट गयी। गायत्री पहले से ही बीमार रहा करती थी, ऊपर से बेटियों का ब्याह न होने से वो अधिक चिंता में रहने लगी। फिर एक दिन माँ गायत्री हमेशा के लिए सबसे दूर चली गयी। माँ की मृत्यु नें पिता सुखीराम को अधिक कमजोर बना दिया। पिता की कमजोरी को देखकर तीनों बेटियों ने कभी न ब्याह करने का फैसला किया।
भारतीय समाज में बेटियों का ब्याह न होना दोष के समान माना जाता है। मोहल्ले की बुजुर्ग औरतें तो सुखीराम की तीनों बेटियों को अशुभ मानने लगीं थीं। कोई कहता देखो कैसी बेटियां हैं – अपनी माँ को तो खा ही गयीं अब अपने पिताजी को भी खाकर ही दम लेंगीं। सुखीराम के अन्य भाई अथवा रिश्तेदार भी अब सुखीराम से कन्नी काट चुके थे। वे सब भी सुखीराम की बेटियों को अशुभ ही मानते थे और यह कहकर अलग हो गए की अगर हम तुम्हारे साथ रहे तो हमारी बेटियों का भी रिश्ता न हो पायेगा। सुखीराम पूर्णतः अकेले हो चुके थे; बस बेटियां और दुकान ही उनका एक मात्र सहारा रह गया था। बड़ी बेटी रीता तो ज्यादा पढ़ी लिखी न थी परन्तु चंदा और तारा दोनों ही पढ़ाई के क्षेत्र में हमेशा अव्वल रहीं। पढ़ी लिखी दोनों बेटियों नें अपनी क़ाबलियत से सुखीराम की छोटी सी दुकान का काफी विस्तार कर दिया। कभी तंगहाली में रहने वाले सुखीराम, अपनी बेटी चंदा और तारा की बदौलत आज धन से भरपूर थे। चंदा एवं तारा दुकान के विस्तार के साथ साथ अपने घर में छोटे बड़े स्कूली बच्चों को पढ़ाने का भी कार्य करती थी। बेटियों की इस उपलब्धि को देखकर अब ताने मारने वाले लोग उनकी मिसाल पेश करने लगे थे। छोटी बेटी तारा नें अपनी पढ़ाई आगे जारी रखते हुए खूब मेहनत की जिसका परिणाम यह हुआ की उसकी नियुक्ति सरकारी बैंक में हो गयी।
पिता सुखीराम अब उम्र के 68वें वर्ष में आकर अधेड़ हो चले थे। छोटी मोटी बिमारियों के साथ उनका जीवन कट रहा था तो वहीँ दुकान का सारा जिम्मा बड़ी बेटी रीता के हाथ में था। मझली बेटी चंदा घर में कोचिंग चलाती और छोटी बेटी तारा तो सरकारी बैंककर्मी बन चुकी थी। तीनों ही बेटियां अब किसी के लिए अशुभ नहीं रह गयी थीं बल्कि वे सारे समाज के लिए प्रेरणा थी।
सदैव सुबह 6 बजे खुलने वाली दुकान आज 7 बजे तक भी न खुली। कई ग्राहक तो दुकान का शटर खुला न देख वापस लौट गए, तो कई सैर सपाटे पर निकलते हुए लोग यही सोच रहे थे कि भला 7 बजे तक भी सुखीराम ने दुकान क्यों नहीं खोली। 7 से 8 और फिर 9 बज गए; सुखीराम को हमेशा ताना मारने वाले पारसनाथ नें माजरे का संज्ञान लेने हेतु सुखीराम के घर का दरवाज़ा खटखटाया। कुछ देर दरवाज़ा खटखटाने पर भी किसी नें नहीं खोला। पारसनाथ के साथ कुछ अन्य व्यक्ति भी घर के सामने एकत्रित हो गए।
आखिरकार पारसनाथ का प्रयास सफल हुआ – बड़ी बेटी रीता नें दरवाज़ा खोला। अंदर देखा तो घर में तीनों बेटियां विलाप कर रहीं थीं और सुखीराम के प्राण पखेरू उड़ चले थे। यूँ सुखीराम को मृत्यु शैय्या पर देख पारसनाथ की आँखें भी नम हों गयीं। सुखीराम की मृत्यु की खबर आस पड़ोस के लोगों में आग की तरह फ़ैल गयी। एक एक कर जमा होते पुरुष और महिलाओं नें तीनों बेटियों को सांत्वना देने का कार्य आरंभ कर दिया तो वहां अन्य सज्जन व्यक्ति सुखीराम के अंतिम क्रियाकर्म में हाथ बटाने लगे।
यह दिन था सुखीराम की अंतिम यात्रा का। कभी अपने पिता से न दूर जाने वाली बेटियों को स्वयं उनके पिता ही सदा के लिए अकेला छोड़कर चले गए। पिता को मुखाग्नि से लेकर चिता को आग देने तक का सभी कार्य तीनों बेटियों नें ही संपन्न किया। समाज व् मोहल्ले के लोगों के लिए यह पहला ऐसा अवसर था जब कोई बेटी अपने पिता को अग्नि दे। सुखीराम की अंतिम यात्रा काफी सुखद रही, उनको चाहने वाले और मानने वाले लोगों के अलावा वे सभी व्यक्तिगण भी उनकी अंतिम यात्रा में शामिल हुए जो उनको बेटियों का ब्याह न करने का दोषी मानते थे। सुखीराम की तीनों बेटियां रीता , चंदा और तारा अशुभ नहीं शुभ साबित हुयीं। बेटियों नें अपने पिता सुखीराम को वह सारा सुख प्रदान किया जिसकी चाहत वे बेटे से करते थे। तेरहवें दिन के बाद सुबह 6 बजे बड़ी बेटी रीता नें पुनः दुकान खोली….आज भी सुखीराम दुकान में मौजूद थे परन्तु एक तस्वीर के रूप में जिसमें उनके चेहरे की प्रसन्नता और अपार सुख को साफ़ देखा जा सकता था।
लेखक:
रवि प्रकाश शर्मा
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रवि प्रकाश शर्मा
मैं रवि प्रकाश शर्मा, इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी से ग्रेजुएट। डिजिटल मार्केटिंग में कार्यरत; डिजिटल इंडिया को आगे बढ़ाते हुए हिंदी भाषा को नई ऊंचाई पर ले जाने का संकल्प। हिंदी मेरा पसंदीदा विषय है; जहाँ मैं अपने विचारों को बड़ी सहजता से रखता हूँ। सम्पादकीय, कथा कहानी, हास्य व्यंग, कविता, गीत व् अन्य सामाजिक विषय पर आधारित मेरे लेख जिनको मैं पखेरू पर रख कर आपके समक्ष प्रस्तुत करना चाहता हूँ। मेरे लेख आपको पसंद आयें तो जरूर शेयर कीजिये ताकि हिंदी डिजिटल दुनियां में पिछड़ेपन का शिकार न हो।