क्योंकि उनके पास भी जज़्बात हैं

कहते हैं कुछ एहसासों को ज़ाहिर करने का कभी कोई सही वक्त नहीं आता। उन्हें जब भी जाहिर कर दिया जाए तभी सही वक्त बन जाता है क्योंकि इन एहसासों के ज़ाहिर होने की गुंजाईश बहुत कम होती है, या यूं कहें कि ना के बराबर होती है। आज ऐसा ही एक एहसास मेरे दिल को जनझोड़ रहा है। मैं जानती हूँ की इस एहसास के बारे में जानकर आपको हैरानी होगी लेकिन मैं शर्मिंदा हूं उस हर एक ही हिस्से के लिए जब कभी मैंने या दुनिया में मौजूद किसी और शख्स ने ना चाहते हुए भी पुरुष वर्ग को इतना संवेदनहीन करार दिया जितना उन्हें संवेदनहीन बनाने के लिए काफी है।

क्योंकि उनके पास भी जज़्बात हैं




मैं कुछ सवालों को यहाँ जगह देना चाहती हूँ। वो सवाल जिन्होंने इस मुद्दे को मेरे मस्तिष्क में और गहराई से जगह दे दी है। ऐसा क्यों कहा हमने कि वह लड़के हैं वह रोते नहीं एक और जहाँ लिंग समानता का परचम बुलंद हो रहा है, वहीं दूसरी ओर हम यह क्यों भूल जाते हैं कि औरत की तरह ही आदमी भी इस दुनिया की संपूर्णता का एक मुकम्मल हिस्सा है।

क्यों हमने कभी इस बात पर गौर नहीं किया कि वह भी टूट कर अपनी माँ की गोद में रोने की उतनी ही तीव्र इच्छा रखते हैं जितना कि एक लड़की। उनसे कभी घर से निकलने से पहले यह पूछना जरूरी क्यों नहीं समझा कि वह कहां जा रहे हैं और कब तक घर लौटेंगे? क्या फ़िक्र सिर्फ बेटियों के हिस्से में होती है।

क्या उस सुर्ख़ गुलाबी रंग को अपनी जिंदगी में शामिल करने का पूरा अधिकार सिर्फ लड़कियों को होता है?क्या वह अपनी मर्ज़ी के रंगों को तक नहीं चुन सकते?

क्या हर दूसरा आदमी किसी औरत को गलत नजर से ही देखता है ? यदि ऐसा है तो फिर भी दोस्त हम-दर्द जैसे सभी रिश्ते सिर्फ खून से ही निर्धारित होते है ? ऐसा क्यों माना जाता है कि संस्कारों और बलिदानों का प्रभाव पुरुष वर्ग पर महिला वर्ग की तुलना में बेहद कम होता है ?

ऐसा क्यों कहा जाता है कि मर्द अपने जज्बातों को ज़ाहिर नहीं कर पात ? वो लगाव को परिभाषित करने में कमतर होते हैं ? वो अहम का त्याग करने से बचते हैं ? वह स्वभाव से सख़्त होते है ? उन्हें अपनी जिंदगी के जरूरी लोगों को खोने का खौफ नहीं होता ? कहीं ऐसा तो नहीं कि हमने कभी उनको अपने जज्बातों को ज़ाहिर करने का मौका ही नहीं दिया ?

हम जब तक उन्हें इन दायरों से बांधे रखेंगे तब तक वह भी अपनी असलियत से महरूम रहेंगे। किसी औरत की तरह वह भी हूबहू हैं, उनके पास भी वैसा ही दिल है जैसा कि एक औरत के पास फर्क बस इतना है कि इस हिस्से को कभी किसी ने टटोलने की चाहत की ही नहीं। और ना जाने आगे आने वाले वक्त में कब तक यूँ होगा।

उम्मीद है कि आप कहीं ना कहीं मेरी उन तमाम सवालों से इत्तेफाक रखते होंगे फ़र्क ना आने देना ही फर्क लाने के लिए बहुत है।

लेखिका:
वैदेही शर्मा