गाँव की यादें और शहरी जीवन – Gaon Se Shahar मेरे माता पिता और उनकी यादें जिन्हें छोड़ शहर आया पैसा कमानें
मैं आज अपने घर परिवार से दूर एक अजनबी शहर में आ गया वजह था पैसा। एक अति-निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के लिये पैसे कि अहमियत क्या होती है ये मुझसे बेहतर भला कौन जान सकता था। दादाजी किसान और पिता जी कचहरी में एक साधारण typist थे ; माताजी के बारे में क्या कहूँ वो एक साधारण जमीनी महिला हैं जिन्होनें जीवन में शायद ही कुछ अपने मन का किया हो। मेरे अलावा घर में मेरी एक छोटी बहन है जो सरकारी स्कूल से फ़िलहाल शिक्षा ले रही है। यूँ तो हमारा घर एक संयुक्त परिवार है पर वो सिर्फ दिखावा मात्र है ; सभी के आपसी मतभेद हैं और सबका खाना पीना भी अलग अलग होता है। साथ में रहकर भी किसी का किसी से विशेष तौर पर कोई लेना देना नहीं होता , यहाँ तक कि कोई किसी की आर्थिक मदद भी नहीं करता। आर्थिक तंगी का सामना करते हुए मेरे माँ बाप नें किसी तरह मुझे बी ए की डिग्री तो दिला दी, अब वो भी यही चाहते थे कि मैं शहर जाकर कुछ रुपये पैसे कमाऊं, पर मेरा मन शहर आने को न था। पिताजी की ज़िद के आगे मैं कुछ कह नहीं पाया और एक दिन ये फैसला किया कि मैं शहर जाऊँगा। सन 1999 , महीना- अप्रैल, दिन- मंगलवार को मैं उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गाँव दोहा (जिला बाँदा) को छोड़कर नये सपने की खोज और आँखों में उम्मीदें लिये भारत कि राजधानी दिल्ली की ओर प्रस्थान कर दिया।
शहर में मुझे पूरे 18 साल होने को आये, मैं जय प्रकाश जो मात्र 23 वर्ष कि आयु में अपने गाँव और माता पिता की उम्मीदों के साथ इस दिल्ली शहर में आया था; आज मेरी भी आयु 41 वर्ष कि हो गयी। विगत 18 वर्ष मेरे जीवन में खासा स्थान रखते हैं ; क्या खोया – क्या पाया ये तमाम विचार अब मेरे मन में आते हैं। 18 साल गुजर जाने के बाद भी मेरा दिल मेरे गाँव में ही रहता है जहाँ मेरा बचपन, किशोरावस्था, और अतीत गुजरा है। आज बस यूँ ही माँ की याद आ गयी ; मेरी माँ जो अब इस दुनियाँ में नहीं है उसे बड़ी इच्छा थी शहर घूमने की। जब जब मैं छुट्टियों में अपने गांव जाता, मेरी माँ बड़ा आदर करती और शहर की बातें पूछती थी। कहती थी तेरे साथ बड़े शहर चलूंगी तू मुझे घुमाना। मुझे ये जिंदगी भर मलाल रहेगा कि मैं अपनी माँ को दिल्ली भी नहीं घुमा सका। आज वो होती तो बड़ी खुश रहती मेरी तरक्की देखकर। पर ये सुकून है कि माँ के रहते ही मेरी और मेरी बहन की शादी हो गयी।
मेरी बहन गांव में ही है और पिताजी घर पर अकेले ; कई बार कहा मेरे साथ चलो शहर में साथ रहना पर नहीं मानते। कहते हैं ये घर तेरी माँ का सजाया है मैं इसे कैसे छोड़ कर चल दूँ ; वो कहते बेटा जय – तेरी माँ भी यहीं गांव में मरी और मैं भी यहीं मरूँगा। पिताजी कि बात सुनकर मैं कुछ बोल नहीं पाता , फिर उनको अकेला छोड़ लौट आता हूँ इस बुझे हुए से शहर में जहाँ सिर्फ शोर ही शोर है। मैं यहाँ इतनी दूर हूँ , साल में 1 बार ही गांव जाना मुमकिन हो पाता है ; बहन वहीं ब्याही गई है वो पिताजी का हाल लेती रहती है यहाँ से मैं पैसे उसको भेज देता हूँ। इंसानी जज़्बात से ज्यादा कीमती पैसा ही हो गया है वरना कौन भला अपने प्रियजनों को छोड़ इस धुंध भरी जगह पे आता।
सब याद आता है, जब मैं पहली बार अपने घर से निकला ; मेरे आने से माँ बहुत परेशान हुई थी क्योंकि मैं एकलौता पुत्र था उनका। माँ होने के नाते वो बहुत चिंतित रहती थी। मैंने भी यहाँ काफी शंघर्ष किया , शुरू के 8 साल तक तो मैं कुछ विशेष नहीं कर सका बस अपना काम ही चला पाता था। इन दस सालों में ही माँ का साथ छूट गया ; पर माँ का दिया आशीर्वाद हमेशा साथ रहा, उसी के सहारे मैं आगे बढ़ता गया और आज मैं एक कामयाब इंसान हूँ। दिल्ली में मेरा अब अपना घर है , गाड़ी है , पत्नी है , एक बेटा है और बैंक में रुपये हैं। किसी नें सच ही कहा है जब हमें जिस चीज की जरूरत ज्यादा होती है वो नहीं मिलता और जब मिलता है तब ऐसा लगता है कि अब इसकी क्या जरूरत है। काश मेरे पास उस वक़्त पैसे होते तो मैं माँ को शहर लेकर आता उसकी भी इच्छा पूरी हो जाती शहर घूमने की।
18 साल बाद अब ये शहर काटने को दौड़ता है क्योंकि यहाँ एक व्यक्ति की ज़िन्दगी में आनंद नहीं है। ना यहाँ के लोगों में प्रेम भाव है और ना ही भाईचारा ; बस पैसों के धरातल पे टिकी यहाँ कि शहरी ज़िन्दगी, यहाँ व्यक्ति केवल एक खिलौना है। चारों तरफ दौड़ती भागती सड़कें, भोग विलासिता में लिप्त युवा , अपने आप से बात करता हुआ घरों में बैठा हुआ बुजुर्ग जिसे सिर्फ दिन में 2 बार खाना मिल जाता है प्यार नहीं। मैं जब यहाँ का मंजर देखता हूँ दिल पुनः गांव लौट जाने को करता है।
आज सुबह जब जागा तो बहन का फ़ोन आया , कह रही थी जल्दी आ जाओ पिताजी की सेहत कुछ ठीक नहीं है कल से कुछ बोल नहीं रहे हैं। यह सुन मैं अपने आपको रोने से रोक नहीं पाया। पत्नी और बच्चे को लेकर मैं दौड़ पड़ा रेलवे स्टेशन की ओर। दूसरे दिन जैसे ही मैं घर पहूँचा वहाँ कई लोग मौजूद थे जिसमें मेरी बहन भी थी। पिताजी …… अब इस दुनियाँ में नहीं थे ; मैं करुण भाव से उनके पैरों में गिर पड़ा। मेरी अंतर-आत्मा टूट चुकी थी , आँखों से आँसुओं की नदी बह रही थी , ज़ुबां कुछ कह पानें में असमर्थ थी। पिताजी ….. आँख से बहते आँसुओं के कारण मैं उनका चेहरा भी नहीं देख पा रहा था। तभी मेरे जीजा और बहन पास आये और मुझे संभालते हुए कुछ समझाया। मैंने भी संभाला अपने आपको और पिताजी की अंतिम विदाई का कार्य आरम्भ हुआ। कुछ पंडितों को बुला मैंने, गीता का पाठ भी करवाया और फिर हम प्रस्थान किये गंगा घाट की ओर जहाँ चिता जलानी थी।
कितना दुःखद होता है किसी अपने को आग के हवाले करना। मेरे सामने मेरे आदरणीय पिताजी पंचतत्व में विलीन हो रहे थे ; मुझे मेरा बचपन याद आने लगा जब मैं उनके इर्द गिर्द घूमता और जिद करता पर आज वो मुझसे हमेशा के लिये दूर जा रहे थे शायद माँ के पास। मैं स्तब्ध और अवाक था , आज मैं फिर गरीब हो गया माँ और पिता दोनों को खो दिया सिर्फ कागज़ के टुकड़े बचे थे मेरे पास जिसे पैसा कहते हैं।
लेखक:
रवि प्रकाश शर्मा