टूटते बिखरते पारिवारिक रिश्ते
टूटते बिखरते पारिवारिक रिश्ते ! आखिर क्यों ? भारतीय समाज में संयुक्त परिवार की प्रथा रही है फिर आखिर ऐसा क्या हो गया की एक संयुक्त परिवार विखंडित होने लगा और आज के आधुनिक परिवेश में तो सब कुछ बिखर चुका है। क्या परिवार का विखंडित होकर रहना सच में एक दोष है ? क्या यह पाप है ? मेरे हिसाब से तो बिल्कुल भी नहीं। मगर आज भी घर के पुराने बड़े बुजुर्ग इस पारिवारिक विखंडन को किसी अपराध के समान ही देखते हैं।
यह तो हम सभी जानते हैं की भारत 21वीं सदी में प्रवेश कर चुका है, यह आधुनिक दौर है न की 1950 या 1980 से 1990 का दौर। हर दौर की अपनी विशेषता होती है जिसको जीने वाला व्यक्ति भी उसी दौर से प्रभावित होता है और उसकी मान्यतायें उस दौर की मान्यताओं को समाहित किये हुए होती हैं। इसी अवस्था को हम जनरेशन गैप कहते हैं, यह जनरेशन गैप हर युग में रहा था और आगे भी रहेगा। आज जिस दौर या युग को हम जी रहे हैं असल में यह नया दौर नहीं बल्कि पीछे गुजरे अन्य दौर तरह उसकी एक अग्रिम कड़ी है जो कि आगे चलकर अतीत बन जायेगी।
जैसा की मैंने कहा, हर दौर अपनी खास विशेषता रखता है। पीछे गुजरा दौर ऐसा था जहाँ परिवार एकजुट होकर रहा करते थे, परन्तु आज के दौर की विशेषता बेहद अलग है ऐसे में परिवार के सभी सदस्यों का एकसाथ रह पाना मुमकिन नहीं।
बीते दौर की बात करें तो, पहले जनजीवन अधिकांशतः कृषि पर आधारित था। समाज में शिक्षा का माहौल नहीं था जिस वजह से घर के अधिकतर सदस्य कम पढ़े लिखे या फिर पूर्णतः अनपढ़ ही हुआ करते थे। भारत का शहरी ढाँचा आज जितना विकसित है पहले उतना नहीं था। शहरों में भी नौकरियां बेहद कम थीं जिसकी वजह से गांव से शहर की तरफ पलायन भी बहुत कम हुआ करता था। यही वजह है की लोग अपना जीवन कृषि पर आधारित कार्यों को कर के ही जिया करते थे जिसकी वजह से परिवार एकजुट था। परिवार का हर सदस्य एक समान था, सभी की परिस्थितियां एक समान थीं, सभी की आवश्यकतायें एक जैसी थीं; ऐसे में सभी एकसाथ रहना ही उचित समझते थे और एक दूसरे का हाथ-बटा धन अर्जित किया करते थे। यह तो नहीं कहा जा सकता की पहले मनमुटाव न रहता होगा पर वो इतना गहरा न हो पाता था की लोग एक दूसरे से अलग हो जाएं। संयुक्त रहने की एक और बड़ी वजह यह थी की बीते दौर में पूँजीवादी व्यवस्था नहीं थी। अर्थात पैसा जीवनयापन हेतु ही कमाया जाता था न की उसका संग्रह करने और पूँजीपति बनने के लिए।
आज आधुनिक दौर की परिस्थितियां बिल्कुल भिन्न हैं। भारत आज भी कृषि प्रधान देश तो है, मगर कृषि अब लोगों के बीच घृणा का विषय बन चुकी है। बीते दौर का वह पुराना किसान यह नहीं चाहता की उसका बेटा खेती करके जीवनयापन करे। गुजरते समय के साथ भारत में शिक्षा को लेकर जागरूकता भी बढ़ी है ऐसे में शहर से लेकर गांव तक हर बच्चा शिक्षा प्राप्त कर रहा है। अब वो दौर भी नहीं की भारत के शहर इतने पिछड़े हों की वह लोगों को पर्याप्त रोजगार भी न दे सकें। दिन प्रतिदिन गांव से बाहर शहर में आकर लोग रोजगार कर रहे हैं जिससे बीते वर्षों के मुकाबले आज पलायान तेज़ी से बढ़ रहा है। गांव से शहर की ओर बढ़ते पलायन की वजह से कभी संयुक्त रहने वाला परिवार लगातार टूटता जा रहा है। समाज में बढ़ती पूँजीवादी व्यवस्था पारिवारिक अलगाववाद को जन्म दे रही है। परिवार का हर सदस्य एक दूसरे से ज्यादा धन अर्जित करना चाहता है। एक दूसरे से अधिक धन-अर्जन करने की यह प्रतिस्पर्धा ही पारिवारिक कलह और मनमुटाव को गहराती जा रही है, ऐसे में संयुक्त रहना तो किसी स्वप्न की भाँति जान पड़ता है।
अंत में बस यही कहूंगा की – इंसान अपनी आवश्यकताओं और परिस्थितियों का ग़ुलाम होता है। आज के दौर में प्रति व्यक्ति की आवश्यकता भिन्न है ऐसे में वह अपनी आवश्यकता की पूर्ति हेतु पलायन को विवश है। अगर कोई अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए घर से बाहर निकल आये, अपने संयुक्त परिवार से दूर अलग जा बसे तो इसे पाप की संज्ञा नहीं दी जा सकती। हां ये जरूर गलत है की अपनी सफलता के बाद अपनों को न याद करना या उनसे घृणा करना।
पारिवारिक टूट या बिखराव यूँ ही होता रहेगा और एक दिन मनुष्य सिर्फ एक व्यक्ति बनकर रह जायेगा। जिसका कारण है उसकी बढ़ती हुई आवश्यकतायें और महत्वकांछाएं जो कभी पूरी नहीं होंगी।