एक अंजान लड़का – सत्य घटना हिंदी कहानी

सत्य घटना:

यह संसार अनेक घटनाओं से भरा पड़ा है। मनुष्य ने अपने मष्तिष्क के बल पर संसार की कई घटनाओं से पर्दा उठा दिया है किन्तु अभी भी असंख्य घटनायें ऐसी हैं जिनको उजागर कर पाना शायद मानव वश में ना हो। जहाँ एक तरफ ब्रम्हांड की घटनाएं अभी भी अबूझ पहेली बनी हुई हैं तो वहीं मानव जीवन में एक ऐसी घटना भी है जिसका जिक्र होता है तो कोई उसपर विश्वास करता है तो कोई उसे अंधविश्वास कहकर नकार देता है।

मैं बात कर रहा हूँ भूत, प्रेत एवं आत्मां से जुड़ी घटनाओं के बारे में। विश्वास और अंधविश्वास में मात्र ‘अंध’ शब्द का अंतर है अर्थात जिसे देखा न जा सके वही अंध है। अंधविश्वास में निहित विश्वास को वही मानता है जिसने कभी अपने जीवन में उस “अंध” नामक विषय को महसूस किया हो या उसकी अनुभूति की हो। भूत-प्रेत एवं आत्माओं की बातें बड़ी निजी हो जाती हैं अतः जब हम इनकी अनुभूति करते हैं तो उसका अहसास दूसरों को दिला पाना पूर्णतः असंभव हो जाता है। इसलिए ज्यादातर व्यक्ति भूत-प्रेत एवं आत्मा से जुड़ी घटनाओं का खंडन करते देखे जाते हैं और इसे अंधविश्वास मानकर सामने वाले व्यक्ति का उपहास करने लगते हैं।

आज मैं ऐसी ही एक सत्य घटना की चर्चा करूँगा जो मेरे लिए तो विश्वास है किन्तु शायद आपके लिए अंधविश्वास हो। यह भी हो सकता है की आप मेरी कही गयी बात में अपना कोई तर्क जोड़ दें। खैर मैं वह बात आपको मानने के लिए नहीं कह रहा, मैं तो बस वही कहने जा रहा हूँ जो मेरे साथ घटित हुआ।

सत्य घटना पर आधारित कहानी:

वर्ष 1999, मैं उन दिनों कक्षा 11वीं का छात्र हुआ करता था।
इस उम्र में हर एक विद्यार्थी बड़ा ही चंचल होता है। यारों की मंडली, धामा चौकड़ी, हंसी मजाक, दिन रात के सैर सपाटे; बस यही माहौल होता है 11वीं-12वीं कक्षा में पढ़ने वाले छात्रों का। सन 1990 का दशक ज्यादा सुविधाओं वाला नहीं था किन्तु खुशियां अपार हुआ करती थी। जेब में घर वालों से 100 या 200 रुपये खर्च करने को मिल जायें तो बात ही क्या। इतने पैसे में तो सिनेमा हॉल का टिकट भी आ जायेगा और कुछ चाय नाश्ता पानी भी। सैर करने के लिए साईकल ही काफी था, किसी मित्र के पास यदि साईकल ना हो तो वह दूसरे मित्र की साईकल की सवारी कर लिया करता था।

यह वो दौर था जब भारत में क्रिकेट परवान चढ़ रहा था। अब घरों में टेलीविज़न आ चुके थे किन्तु ऐसे कम ही घर थे जहाँ रंगीन टेलीविज़न और डिश टीवी का कनेक्शन हो। क्रिकेट की दीवानगी उस दौर में देखते ही बनती थी। हमें हर एक टीम के खिलाडियों के नाम याद थे और यह भी याद रहता की कौन सा टूर्नामेंट कब और कहां खेला जाना है।

दिन रविवार का, मैं अपने एक मित्र के कमरे पर गया था।
वो भाईसाब प्रयागराज में रहकर अकेले पढाई किया करते थे किन्तु एक छोटा सा कलर टेलीविज़न भी रखे थे जिसपर क्रिकेट मैच देखने का अलग ही लुफ्त आता था। चूँकि वो अकेले रहकर विद्यार्थी जीवन व्यतीत किया करते थे तो हमें हंसी मजाक और सचिन तेंदुकर के चौके छके पर चीखने चिल्लाने की आजादी भी मिल जाती थी।

रविवार का दिन था और मैच डे-नाईट का था। अतः मैं पूर्णतः मैच समाप्ति के बाद ही वहां से निकलने का मन बना चुका था।
भारत ने वह मैच जीत लिया और जीत के बाद हम खिलाड़ियों के खेल की चर्चा करने लगे। फिर घर से थोड़ा बाहर निकलकर चाय पर चर्चा करने लगे। देखते ही देखते घड़ी की सुई रात 11 का समय बताने लगी। उन दिनों मेरे बायें हाथ की कलाई पर एक काले रंग की डिजिटल घड़ी बंधी रहती थी। इसे शाम नहीं रात्रि का पहर कहेंगे, मैंने देखा की 11 बज चुके हैं और मुझे वहां से करीब 4-5 किलोमीटर दूर अपने निवास स्थान पर जाना है तो मैंने तुरंत निकलने की सोची।

मेरे पास उन दिनों BSA SLR Photon नाम की सीधी हैंडल वाली साईकल हुआ करती थी जिसे चलाना मुझे बेहद पसंद था।
खैर, आनन-फानन में मैंने अपने मित्र को कहा चलो मेन रोड तक मेरा साथ दे दो फिर तुम कमरे पर लौट आना और मैं अपने कमरे की ओर चला जाऊंगा। अभी तक हम एक सघन आबादी वाले क्षेत्र में थे। कदमों से चलते हुए, साईकल को हाथ से लुढ़काते हुए और आपस में अगले दिन स्कूल की चर्चा करते हुए हम मेन रोड पर आ पहुंचे। यह मेन रोड ‘स्टैनली रोड’ और ‘बेली रोड’ दोनों नामों से जाना जाता था।

मेन रोड के दोनों तरफ रिहायशी इलाके, घर मकान एवं दुकानें मौजूद थी और फ़िलहाल चारों तरफ हलचल मौजूद थी।

मैंने मित्र से कहा –
ठीक है तुम चलो, अब मैं जा रहा हूँ कल कॉलेज में मिलेंगे।
ऐसा कहने के बाद मैं अपनी साईकल पर सवार हुआ और पैडल मारकर आगे बढ़ने लगा।

मुश्किल से मैंने अभी 10-15 पैडल मारे होंगे, तभी एक करीब 12 वर्षीय लड़का मुझे हाथ देकर कहता है – भईया मुझे भी साईकल पर बिठा लो मैं स्टैनली रोड जहाँ खतम होगी मैं वहां पर उतर जाऊंगा।

जाना तो मुझे भी स्टैनली रोड के उस पार ही था क्योंकि वहीं से कुछ दूर आगे मेरा अपना रिहायशी इलाका शुरू होता है। किन्तु मैंने लड़के की तरफ देखते हुए और उससे झूठ बोलते हुए कहा – मैं स्टैनली रोड नहीं जा रहा, मैं तो बस यहीं पास में ही जा रहा हूँ।

मैंने लड़के से पल्ला झाड़ते हुए कहा –
तुम एक काम करो, टैम्पो गाड़ियां आएंगी उसपर बैठकर चले जाना जल्दी पहुँच जाओगे।
और इस प्रकार मैंने उसे सलाह देकर अपनी साईकल को आगे बढ़ा चल पड़ा।

स्टैनली रोड रात में काफी सुनसान हो जाती है। जिसकी मुख्य वजह है मिलिट्री छावनी, रोड का ज्यादातर हिस्सा सड़क के दोनों तरफ मिलिट्री छावनी से पटा है जो घने पेड़ पौधों से भरा हुआ है। मानो जैसे कोई जंगल का रास्ता हो, स्टैनली रोड को बेली रोड इसलिए कहा जाता है क्योंकि उसी रोड पर ‘बेली हॉस्पिटल’ स्थित है। यह एक सरकारी हॉस्पिटल है किन्तु यह मेन रोड से थोड़ा अंदर पड़ता है।

मैं साईकल चलाते हुए बेली हॉस्पिटल को पार करते हुए स्टैनली रोड के उस हिस्से में आ गया जहाँ सड़क के दोनों तरफ जंगल अर्थात मिलिट्री छावनी बसी है। कहीं कोई आवाज़ नहीं, पीछे व सामने से कोई बड़ी कार, बस, गाड़ी नहीं। रात 11 से ज्यादा का समय हो चुका था अब, और मैं साईकल का पैडल तेज़ी से मारने लगा ताकि मैं उस सूनसान वाले रास्ते को जल्द पार कर सकूँ।

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यहीं से शुरू होती है एक ऐसी हक़ीक़त जिसे मैं अब बयां करने जा रहा हूँ –
स्टैनली रोड की सड़क कुछ दूरी पर जाकर आगे से थोड़ा ऊपर उठ जाती है, जो कि एक हल्की फुल्की चढ़ाई है। अमूमन तौर पर इसपर चलने में ज्यादा ताकत लगाने की जरूरत नहीं पड़ती किन्तु मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मुझे साईकल चलाने में ज्यादा जोर लगाना पड़ रहा हो। मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मेरी साईकल पर पीछे कोई बैठा हो और उसके भार से मुझे उसे खींचने में जोर लगाना पड़ रहा हो।

मैं पूरी तरह से घनी छावनी के बीच था।
सामने से कुछ 1-2 ट्रक निकल कर गए किन्तु पीछे से किसी प्रकार का वाहन अब तक नहीं गुजरा था।
साईकल भार से लदी जा रही थी और मैं इतना साहस नहीं कर पा रहा था की पीछे पलट कर देख सकूँ या फिर अपनी साईकल रोक सकूँ। छावनी का घना जंगला-नुमा रास्ता, काली रात से भरा एवं सूनसान इलाका खत्म होना अभी बाकी था पर मेरे पैर साईकल की पैडल पर अतिरिक्त जोर देने से थके जा रहे थे।

पल में कुछ यूँ घटित होता है की साईकल पुनः अपनी सामान्य स्थिति में आ जाती है और पैडल आसानी से चलने लगते हैं।
मैंने भी अपनी पूरी ताकत झोंकते हुए, उस घने-अँधेरे वाले मार्ग को सरपट पार करना शुरू कर दिया।

अब वो पल जिसने मुझे पूरी तरह से स्तब्ध कर दिया –
स्टैनली मार्ग समाप्त होने वाला था मैं अपनी साईकल के साथ एक तिराहे रास्ते की ओर पहुंच रहा था जहाँ से एक मार्ग मेरे घर की तरफ जाता है। एक दूसरा मार्ग स्टैनली रोड को जोड़ते हुए आगे निकल जाता है।

थोड़ी थकान के साथ जब मैंने अपनी साईकल की गति को धीमा किया तो फिर –
थोड़ी दूर स्थित वही 12 वर्षीय लड़का खड़ा मिला, जिसने मुझसे साईकल पर बैठ स्टैनली रोड पार जाने का निवेदन किया था।
चूँकि उस ज़माने में स्टैनली रोड पर कोई रोड लाइट नहीं हुआ करती थी अतः बहुत उजाला नहीं था। कभी-कभी सामने से या पीछे से गुजरते ट्रक एवं गाड़ियों की रौशनी मिल रही थी इसलिए मैंने उस लड़के को पहचान लिया।

मैं अपने हाथ से बायीं ओर सड़क किनारे था और वो मेरे हाथ से दायीं ओर सड़क किनारे खड़ा था।
…मैं उसे देखता हुआ साईकल के दोनों पैडल मारे जा रहा हूँ और वो मुझे देख रहा है .. किन्तु इस बार न उसने मुझे टोका न मैंने उसे कुछ कहा। हमारी नजरें एक दूसरे से टकरायीं किन्तु हम दोनों मौन थे।

मैं भयभीत हो चला उसे देखकर, जानें क्यों वो मुझे इंसानों से अलग लग रहा था।
…भयवश मैंने अपनी साईकल की गति को पुनः तेज़ किया और अपने रिहायशी क्षेत्र में आ पहुंचा जहां एक ‘शीतला माता’ का मंदिर स्थित है।
साईकल रोक कर मैंने माँ शीलता को प्रणाम किया और अंततः वहां से नजदीक अपने कमरे की ओर प्रस्थान कर गया।

अब मैं अपने घर में था।

माँ ने पूछा इतनी रात तक घर से बाहर रहते हो। मैं शाम से ही तुम्हारा इंतज़ार कर रही थी।
उस ज़माने में मेरे पास कोई मोबाइल फ़ोन नहीं था, जिससे मैं उनको फ़ोन कर बता सकूँ की मैं क्रिकेट मैच देखकर वापस आऊंगा। माँ तो कह-बोल कर चुप हो गयी किन्तु मेरा मन अनेक प्रश्नों ने भर गया।

रात अपनी गहराई में जा चुकी थी मगर मेरा मन उस अंजान लड़के की खोज में निकल गया।

  • कौन था वो ?
  • क्यों उसने मुझसे ही स्टैनली रोड के पार ले जाने का निवेदन किया ?
  • क्यों मेरी साईकल भारी हो गयी ?
  • क्या वह मेरी साईकल पर किसी साये की तरह पीछे बैठ कर आ गया ?
  • क्या वो सच में कोई इंसान था ? या कोई भूत ?
  • अगर वो भूत था तो उसने मुझे हानि क्यों नहीं पहुंचायी ?
  • एक 12 वर्षीय लड़का रात को यूँ अकेले कैसे घूम सकता है ?
  • अंत में वो लड़का सड़क के उस पार कैसे आ गया ?
  • सड़क के उस पार फिर वो किसका इंतज़ार कर रहा था ?

मैं इसे अंधविश्वास कहूं तो कैसे ! यह तो मेरे साथ घटी एक सत्य घटना है।
…भूत ही रहा होगा वो, वो बिल्कुल भी मानव जैसा नहीं था। प्रेत होगा वो कोई … शायद भटक रहा हो।

लेखक:
रवि प्रकाश शर्मा